अभिवृद्धि और विकास का अर्थ, परिभाषा और अंतर – Difference Between Growth and Development

आज के आर्टिकल में हम अभिवृद्धि और विकास (Abhivriddhi Or Vikas) का अर्थ, परिभाषा और अंतर को समझेंगे और इनके सिद्धांत भी आसानी से समझेंगे ।

अभिवृद्धि और विकास: अर्थ व सिद्धान्त

(GROWTH & DEVELOPEMENT : MEANING & PRINCIPLES)

अभिवृद्धि व विकास से आशय –

’अभिवृद्धि’ और ’विकास’ दोनों ‘भ्रमोत्पादक शब्द’ हैं अतएव इन दोनों का अन्तर समझ लेना आवश्यक है।    ’अभिवृद्धि’ से तात्पर्य – शरीर एवं उसके अवयवों की वृद्धि से है। इन दोनों के आकार और परिमाण में परिवर्तन होता है। अभिवृद्धि जनित परिवर्तनों को नापा एवं तौला जा सकता है, किन्तु विकास से तात्पर्य शरीर एवं मन के होने वाले सभी प्रकार के परिवर्तनों से है।

जी. ए. हेडफील्ड ने इनके अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि विकास रूप व आकार में परिवर्तन है जबकि अभिवृद्धि आकार का बढ़ना है। विकास एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिसमें अभिवृद्धि का भाव सदैव निहित रहता है। अभिवृद्धि एवं विकास दोनों परस्पर जुङे हुए हैं। अभिवृद्धि की अनुपस्थिति में विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।

मानव विकास का क्रम आजीवन चलता रहता है। गर्भाधान से मृत्यु-पर्यन्त तक प्राणी में परिवर्तन का क्रम चलता रहता है। कुछ लोगों का विचार है कि परिपक्वावस्था के बाद परिवर्तन रुक जाता है, किन्तु इस प्रकार का त्रुटिपूर्ण है परिवर्तन का क्रम तो परिपक्व होने के बाद भी चलता है। यह अवश्य है कि उसकी गति धीमी हो जाती है।

इरा. जी. गोर्डन ने विकास के बारे में लिखा है, ’’विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जो व्यक्ति के जन्म से लेकर उस समय तक चलती रहती है जब तक कि वह पूर्ण विकास को प्राप्त नहीं कर लेता है।’’

‘गैसेल’ के अनुसार, ’’विकास एक प्रकार का परिवर्तन है जिसके द्वारा बालकों में नवीन गुणों एवं क्षमताओं का विकास होता है।’’

‘हरलाॅक’ का कथन भी गैसेल से मिलता-जुलता है, ’’विकास के परिणामस्वरूप भक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ जन्म लेती हैं।’’
“Development results in new characteristics and new abilities on the past of the individual.” – Harlock.

विकास-क्रम में होने वाले परिवर्तन –

विकास-क्रम में होने वाले परिवर्तन चार वर्गों में बाँटे जा सकते हैं-

1. आकार परिवर्तन – जन्म के बाद ज्यों-ज्यों बालक की आयु बढ़ती जाती है उसके शरीर में परिवर्तन होता जाता है। शरीर के ये परिवर्तन-बाह्य एवं आन्तरिक दोनों अवयवों में होते हैं। शरीर की लम्बाई, चैङाई एवं भार में वृद्धि होती है। आन्तरिक अंग जैसे हृदय, मस्तिष्क, उदर, फेफङा आदि का आकार भी बढ़ता है। शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। आयु में वृद्धि के साथ बालक का शब्दकोष बढ़ता है और स्मरण-शक्ति का भी विस्तार होता है।

2. अंग-प्रत्यंगों के अनुपात में परिवर्तन – बालक एवं वयस्क के अंग-प्रत्यंगों के अनुपात में अन्तर होता है। बाल्यावस्था में हाथ-पैर की अपेक्षा सिर बङा होता है, किन्तु किशोरावस्था में आने पर यह अनुपात वयस्कों के समान होता है इसी प्रकार का अन्तर मानसिक विकास में भी देखने को मिलता है। प्रारम्भ में बालक काल्पनिक जगत में घूमता है किन्तु किशोरावस्था के बाद वह वास्तविक जगत में आ जाता है। बाल्यावस्था में बालक आत्म-केन्द्रित होता है, किन्तु किशोरावस्था में वह विषमलिंगी में रुचि लेने लगता है।

3. कुछ चिन्हों का लोप – विकास के साथ ही थाइमस ग्रन्थि, दूध के दाँत आदि का लोप हो जाता है। इसके साथ ही वह बाल-क्रियाओं को भी त्याग देता है।

4. नवीन चिन्हों का उदय – आयु में वृद्धि के साथ बालक में अनेक नवीन शारीरिक एवं मानसिक चिन्ह प्रकट होते रहते हैं, उदाहरण के लिए, स्थायी दाँतों का उगना। इसके साथ ही लैंगिक चेतना का भी विकास होता है। किशोरावस्था में चेहरा एवं गुप्तांगों पर बाल उगने प्रारम्भ हो जाते हैं।

अभिवृद्धि व विकास के सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF GROWTH & DEVELOPMENT)

1. समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) – एक जाति के जीवों में विकास का एक क्रम पाया जाता है और विकास की गति का प्रतिमान भी समान रहता है। मानव जाति के विकास पर भी यह सिद्धान्त लागू होता है। गैसेल ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि ’’यद्यपि दो व्यक्ति समान नहीं होते हैं किन्तु सभी सामान्य बालकों में विकास का क्रम समान होता है।’’ विश्व के सभी भागों में बालकों का गर्भावस्था या जन्म के बाद विकास का क्रम सिर से पैर की ओर होता है। इसी सिद्धान्त की पुष्टि हरलाॅक महोदय ने भी की है।

2. सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle from General to Specific Response) – बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्टता की ओर होता है। बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सर्वप्रथम सामान्य प्रतिक्रिया होती है उसके बाद वह विशिष्ट रूप धारण करती है। उदाहरण के लिए, प्रारम्भ में बालक किसी वस्तु को पकङने के लिए शरीर के सभी अंगों को प्रयोग में लाता है किन्तु बाद में वह उस वस्तु को पकङने के लिए विशिष्ट अंग का प्रयोग करता है।

शैशवावस्था में बालक किसी वस्तु को देखकर उसको पकङने के लिए हाथ, पैर, मुख, सिर आदि को चलाता है किन्तु आयु में वृद्धि होने पर वस्तु को पकङने के लिए केवल हाथ की प्रतिक्रिया करता है। इसी प्रकार का रूप उसके अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।

3. सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth) – मानव के विकास का क्रम गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक सतत् रूप में चलता रहता है। विकास की गति कभी तीव्र या कभी मन्द हो सकती है। बालक में गुणों का विकास यकायक नहीं होता है। इनका विकास सतत् रूप में मन्द गति से होता रहता है। इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए बालकों के दाँतों का उदाहरण दिया जा सकता है।

लगभग 6 माह की आयु पर शिशु के दूध के दाँत निकलने पर अनुभव होता है कि ये दाँत यकायक प्रकट हुए हैं। वास्तविकता यह है कि दाँतों का विकास 5 माह की भ्रूणावस्था से प्रारम्भ हो जाता है किन्तु वे जन्म के बाद 6 माह की आयु में मसूङों से बाहर निकलना प्रारम्भ होते हैं।

4. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Inter-relation) – इस सिद्धान्त से तात्पर्य है कि बालक के विभिन्न गुण परस्पर सम्बन्धित होते हैं। एक गुण का विकास जिस प्रकार हो रहा है, अन्य गुण भी उसी अनुपात में विकसित होंगे, उदाहरण के लिए तीव्र बुद्धि वाले बालक के मानसिक विकास के साथ ही शारीरिक और सामाजिक विकास भी तीव्र गति से होता है, इसके विपरीत मन्द बुद्धि बालकों का शारीरिक एवं सामाजिक विकास भी मन्द होता है।

5. शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति में भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Different Rate of Growth of Different Parts of the Body) – शरीर के सभी अंगों का विकास एक गति से नहीं होता है। इनके विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है। यह बात मानसिक विकास पर भी चरितार्थ होती है। शरीर के कुछ अंग तेज गति से विकसित होते हैं और कुछ मन्थर गति से, उदाहरण के लिए, 6 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क विकसित होकर लगभग पूर्ण आकार प्राप्त कर लेता है जबकि व्यक्ति के हाथ-पैर, नाक-मुँह का विकास किशोरावस्था तक पूरा हो जाता है।

यह सिद्धान्त शारीरिक पक्ष के साथ-साथ मानसिक पक्ष पर भी लागू होता है। बालक में सामान्य बुद्धि का विकास 14 से 15 वर्ष की आयु में पूर्ण हो जाता है, किन्तु तर्क शक्ति मन्द गति के साथ विकसित होती रहती है।

6. विकास की दिशा का सिद्धान्त (Principle of Development Direction) – इसी को केन्द्र से परिधि की ओर विकास का सिद्धान्त कहते हैं। इसमें विकास सिर से पैर की ओर एक दिशा के रूप में होता है। बालक का सिर पहले विकसित होता है और पैर सबसे बाद में। यही बात उसके अंगों पर नियन्त्रण पर भी लागू होती है। बालक जन्म के कुछ समय बाद सर्वप्रथम अपने सिर को ऊपर उठाने का प्रयास करता है। 9 माह की आयु में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। धीरे-धीरे खिसककर चलते-चलते वह पैरों के बल एक वर्ष की आयु में खङा हो जाता है।

7. व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धान्त – बालकों के विकास के क्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ भी अपना प्रभाव दिखाती हैं इनके प्रभाव के कारण विकास की गति में अन्तर आ जाता है। किसी के विकास की गति तीव्र और किसी की मन्द होती है। अतएव आवश्यक नहीं कि सभी बालक एक निश्चित अवधि पर ही किसी विशिष्ट अवस्था की परिपक्वता प्राप्त कर लें।

8. भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Variation) – विकास का क्रम एकसमान हो सकता है, किन्तु विकास की गति एक समान नहीं होती है। विकास की गति शैशवावस्था एवं किशोरावस्था में तीव्र होती है, किन्तु बाल्यावस्था में मन्द पङ जाती है। इसी प्रकार बालक एवं बालिकाओं की विकास-गति में भिन्नता पाई जाती है।

विकास-सिद्धान्तों का महत्त्व –

विकास के प्रमुख सिद्धान्तों का ज्ञान शिक्षक एवं सामान्य व्यक्ति सभी के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। इसके ज्ञान का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से अधिक है-

विकास के सिद्धान्तों के ज्ञान से ज्ञात होता है कि बालकों से कब और किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करनी चाहिए। इनके ज्ञान के अभाव में हम बालकों से बहुत अधिक गुणों की अपेक्षा करने लगते हैं या उनको निरर्थक समझने लगते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ बालक के विकास के लिए हितकर नहीं होती हैं। प्रथम स्थिति में बालक में हीनता की भावना आ जाती है और दूसरी स्थिति में उनको विकास के उत्प्रेरक नहीं मिल पाते हैं।

विकास के सिद्धान्तों का ज्ञान हमको बताता है कि हम कब बालकों के विकास के लिए प्रेरणा प्रदान करें। इसके ज्ञान से बालकों के यथोचित विकास के लिए अनुकूल वातावरण की रचना की जा सकती है, उदाहरण के लिए, जब बालक चलना या बोलना प्रारम्भ करे तो उसे इसका अभ्यास करवाना चाहिए।

विकास के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों से अनभिज्ञ होने के कारण बालकों में कभी-कभी मानसिक तनाव या संघर्ष पैदा हो जाता है जिसके कारण उनमें भावना-ग्रन्थियाँ विकसित हो जाती हैं। शिक्षक एवं माता-पिता बालकों के विकास सम्बन्धी परिवर्तनों का पूर्व ज्ञान देकर उनमें उत्पन्न होने वाले तनाव को कम कर सकते हैं।

इन विकास के सिद्धान्तों का ज्ञान शिक्षक को विद्यालयों में क्रियाओं का आयोजन करने में भी सहायक होता है।

मानव-विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व

(FACTORS INFLUENCING GROWTH & DEVELOPMENT)

मानव-विकास क्रम को प्रभावित करने वाले अनेक तत्त्व होते हैं। इन तत्त्वों द्वारा विकास की गति प्राप्त होती है तथा ये तत्त्व विकास को नियन्त्रित भी रखते हैं।

मानव-विकास क्रम को प्रभावित करने वाले  तत्त्व निम्न है –

1. वंशानुक्रम – बालक का विकास वंशानुक्रम से उपलब्ध गुण एवं क्षमताओं पर निर्भर रहता है।

2. वातावरण – वातावरण भी बालक के विकास को प्रभावित करने वाला तत्त्व है। वंशानुक्रम एवं वातावरण के प्रभाव का विस्तृत विवरण पिछले अध्याय में दिया गया है।

3. बुद्धि – मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के आधार पर निश्चित किया है कि कुशाग्रबुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास मन्द बुद्धि वालों की अपेक्षा अधिक तेज गति से होता है। कुशाग्रबुद्धि बालक शीघ्र बोलने एवं चलने लगते हैं। प्रतिभाशाली बालक 11 माह में, सामान्य बुद्धि बालक 16 माह की आयु में और मन्द बुद्धि बालक 24 माह की आयु में बोलना सीखता है।

4. लिंग – बालकों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में लिंग-भेद का प्रभाव पङता है। जन्म के समय बालकों का आकार बङा होता है, किन्तु बाद में बालिकाओं में शारीरिक विकास की गति तीव्र होती है। इसी प्रकार बालिकाओं में मानसिक एवं यौन परिपक्वता बालकों से पहले आ जाती है।

5. अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ – बालक के शरीर में अनेक अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें से विशेष प्रकार के रस का स्राव होता है। यही रस बालक के विकास को प्रभावित करता है। यदि ये ग्रन्थियाँ रस का स्राव ठीक प्रकार से न करें तो बालक का विकास अवरुद्ध हो जाता है, उदाहरण के लिए गल-ग्रन्थि (Thyroid Gland) से स्त्रावित रस थाइराक्सिन बालक के कद को प्रभावित करता है। इससे स्त्रावित न होने पर बालक बौना हो जाता है।

6. जन्म-क्रम – बालक के विकास पर परिवार में जन्म-क्रम का प्रभाव पङता है। अध्ययनों से पता चला है कि परिवार में जन्म लेने वाले प्रथम बालक की अपेक्षा दूसरे, तीसरे बालक का विकास तेज गति से होता है। इसका कारण यह है कि बाद के बालक अपने से पूर्व जन्मे बालकों से अनुकरण द्वारा अनेक बातें शीघ्र सीख लेते हैं।

7. भयंकर रोग एवं चोट – भयंकर रोग एवं चोट बालक के विकास में बाधा पैदा करते हैं। लम्बी बीमारियों के कारण बालक का शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार बालक के सिर पर भारी चोट लगने से भी विकास में बाधा पहुँचती है।

8. पोषाहार – सन् 1955 में वाटरलू ने अफ्रीका और भारत के बालकों के विकास पर कुपोषण के प्रभाव का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि कुपोषण से बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।

9. शुद्ध वायु एवं प्रकाश – शुद्ध वायु एवं प्रकाश न मिलने पर बालक अनेक रोगों का शिकार बन जाता है और इसके परिणामस्वरूप उसके विकास में अवधान पैदा हो जाता है।

10. प्रजाति – प्रजातीय प्रभाव के कारण बालकों के विकास में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। अध्ययन से पता चला है कि उत्तरी यूरोप की अपेक्षा भूमध्यसागरीय बच्चों का विकास तेज गति से होता है।

विकास के मुख्य सोपान

(MAIN STAGES OF DEVELOPMENT)

यह तो ठीक है कि मानव विकास में निरन्तरता पाई जाती है, किन्तु उसका विकास भिन्न-भिन्न सोपानों से गुजरता है। यद्यपि मनोवैज्ञानिकों में विकास के विभिन्न सोपानों के विषय में मतभेद है।

यहाँ कुछ विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सोपानों पर विचार करना उपयुक्त होगा –

(1) राॅस के अनुसार विकास की अवस्थाएँ –

  1. शैशव (Infancy) – जन्म से 3 वर्ष तक।
  2. आरम्भिक बाल्यकाल (Early Childhood) – 3 से 6 वर्ष तक।
  3. उत्तर बाल्यकाल (Late Childhood) – 6 से 12 वर्ष तक।
  4. किशोरावस्था (Adolescence) – 12 से 18 वर्ष तक।

(2) काॅलेसनिक के अनुसार विकास की अवस्थाएँ –

  1. पूर्व जन्मकाल (Prenatal Period)।
  2. शैशव (Neonatal) – जन्म से 3 या 4 सप्ताह तक।
  3. आरम्भिक शैशव (Early Infancy) – 1 माह से 15 माह तक।
  4. उत्तर शैशवकाल (Late Infancy) – 15 माह से 30 माह तक।
  5. पूर्व बाल्यकाल (Early Childhood) – 30 माह से 5 वर्ष तक।
  6. मध्य बाल्यकाल (Middle Childhood) – 5 से 9 वर्ष तक।
  7. उत्तर बाल्यकाल (Late Childhood) – 9 ये 12 वर्ष तक।
  8. किशोरावस्था (Adolescence) – 12 से 21 वर्ष तक।

विद्वानों में सामान्य रूप से मानव विकास की अवस्थाओं को पाँच अवस्थाओं में वर्गीकृत किया है-

(1) पूर्व जन्मकाल (Prenatal Period)।
(2) शैशवावस्था (Infancy) – जन्म से 5 या 6 वर्ष तक।
(3) बाल्यावस्था (Childhood) – 5 या 6 वर्ष से 12 तक।
(4) किशोरावस्था (Adolescence) – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
(5) प्रौढ़ावस्था (Adulthood) – 18 वर्ष के बाद।

विकास के मुख्य पहलू

(MAIN ASPECTS OF DEVELOPMENT)

विकास के प्रत्येक सोपान में होने वाले परिवर्तनों को निम्नलिखित पहलुओं में विभाजित किया जा सकता है-

(1) शारीरिक विकास (Physical Development)
(2) मानसिक विकास (Mental Development)
(3) संवेगात्मक विकास (Emotional Development)
(4) सामाजिक विकास (Social Development)
(5) चारित्रिक विकास (Character Development)

आज के आर्टिकल में हम अभिवृद्धि और विकास (Abhivriddhi Or Vikas) का अर्थ, परिभाषा और अंतर और इनके सिद्धांतो को समझा ,हम आशा करतें है कि आपको ये टॉपिक अच्छे से समझ में आ गया होगा ।

बुद्धि का सिद्धान्त

बुद्धि क्या है ?

संवेगात्मक बुद्धि क्या है ?

अधिगम क्या है ?

व्यक्तित्व क्या है ?

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