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What is Adhigam-अधिगम क्या होता है || मनोविज्ञान|| Psychology

Author: K.K.SIR | On:2nd Jan, 2021| Comments: 2

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Table of Contents

  • अधिगम का अर्थ एवं परिभाषा(adhigam ki paribhasha)
  • अधिगम की विशेषताएँ
  • अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक
  • (3) विषयवस्तु की प्रकृति-
  • (5) अधिगम विधियाँ-
  • (8) शारीरिक कारक-
  • थार्नडाइक के सीखने के नियम
  • अन्य नियम
  • अधिगम के सिद्धान्त
  • 1. प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त
  • इस सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व
  • 2. सम्बद्ध-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त
  • इस सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व
  • 3. सक्रिय अनुबंध सिद्धांत
  • शिक्षा के महत्व-
  • 4. सूझ या अन्तर्दष्टि का सिद्धान्त
  • शिक्षा के महत्व
  • शिक्षा में महत्व
  • शिक्षा का उपयोग
  • स्थानान्तरण का अर्थ व पभिाषा
  • स्थानान्तरण के सिद्धान्त
  • अधिगम स्थानान्तरण के सिद्धान्त
  • 1. मानसिक शक्तियों का सिद्धान्त-
  • 4. सामान्य व विशिष्ट तत्वों का सिद्धान्त-
  • सामाजिक अधिगम सिद्धान्त (बन्डुरा)
  • सामाजिक अधिगम की विभिन्न अवस्थाएँ
  • अन्य अवस्थाएँ
  • सामाजिक अधिगम के शैक्षिक निहितार्थ
  • अन्य जानकारी
  • स्मरणीय बिन्दु

आज की पोस्ट में हम मनोविज्ञान में अधिगम (What is Adhigam) क्या होता है ,इसके बारें में विस्तार से पढेंगे |

दोस्तो जिस प्रकार व्यक्ति नित्य अपने जीवन में नए-नए अनुभव एकत्र करता है। तो नवीन अनुभव एकत्र करता रहता है। ये नवीन अनुभव व्यक्ति के व्यवहार में वृद्धि तथा परिवर्तन करते है। इसलिए ये अनुभव और उसका उपयोग ही सीखना या अधिगम (Learning) कहलाता है।

What is Adhigam

अधिगम का अर्थ एवं परिभाषा(adhigam ki paribhasha)

काॅलविन- ’’पूर्व निर्मित व्यवहार में अनुभवों द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते है।

वुडसर्थ- ’’नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही अधिगम है।’’

क्रो व क्रो- ’’ज्ञान और अभिवृति की प्राप्त ही अधिगम है।’’

गेट्स व अन्य- ’’प्रशिक्षण एवं अनुभव के द्वारा व्यवहार में हाने वाले परिवर्तनों को अधिक कहते हैं।’’

मार्गन एवं गिलीलैण्ड- ’’ सीखना अनुभव के परिणामस्वरूप प्राणी के व्यवहार में परिमार्जन है, जो प्राणी द्वारा कुछ समय के लिए धारण किया जाता है।’’

अधिगम की विशेषताएँ

योकम एवं सिम्पसन के अनुसार सीखने की सामान्य प्रक्रिया इस प्रकार है-

  • सीखने की प्रक्रिया आजीवन चलती है।
  • सीखना व्यवहार में परिवर्तन है।
  • सीखना नई परिस्थितियों से अनुकूलन है।
  • सीखना नए-पुराने अनुभवों का संगठन है।
  • सीखना उद्देश्यपूर्ण होता है।
  • सीखना वातावरण की देन है।
  • सीखना खोज करने की प्रक्रिया है।
  • सीखना सामाजिक व व्यक्तिगत दोनों है।
  • सीखना विकास की प्रक्रिया है।

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

अधिगम-प्रक्रिया को अनेक व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, आतंरिक और बाह्य कारक प्रभावित करते है। इन कारकों के आधार पर अधिगम-प्रक्रिया की गति तीव्र या मंद हो जाती है। एक उत्तम शिक्षक इन कारकों को समझकर अधिगम प्रक्रिया को गति दे सकता है।

(1) बालक का स्वास्थ्य-

बालक का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अधिगम को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बालक सीखने में रूचि लेता है और शीघ्रता से सीखता है जबकि बीमार और चिंताग्रस्त बालक सीखने में रूचि नहीं ले पाता है। इसलिए वह मंद गति से और बहुत कम सीख पाता है।

(2) विद्यालय का वातावरण-

शहर की भीङभाङ से दूर शांत और सुरम्य वातावरण में स्थित विद्यालय जिसमें बङे-बङे हवादार और प्रकाशयुक्त कमरे हो, जिसमें छात्रों में बैठने के लिए उचित स्थान हो तो ऐसे अनुकूल वातावरण में पढ़ने के प्रति रूचि जाग्रत होती है। छात्र जल्दी थकता नहीं है। विद्यालय में छात्रों में एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति का भाव भी सीखने की क्रिया में सहयोग देता है।

(3) विषयवस्तु की प्रकृति-

सरल, उद्देश्य और रोचक विषयवस्तु को छात्र जल्दी और आसानी से सीख लेता है। सही ढंग से संगठित विषयवस्तु को छात्र आसानी से सीख लेता है और जल्दी भूलता भी नहीं है। इसलिए विषयवस्तु को ’सरल से कठिन की ओर’ शिक्षण सूत्र के अनुसार प्रस्तुत करना चाहिए, इसमें अधिगम सरल हो जाता है।

(4) अभिप्रेरणा-

अभिप्रेरणा यह प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले की आवश्यकता या आतंरिक ऊर्जा को वातावरण में स्थिति किसी लक्षित वस्तु की ओर निर्देशित कर दिया जाता है। बालक किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उस लक्षित वस्तु (अभिप्रेरक) की ओर आकर्षित होता है। यही अभिप्रेरक बालक को नई बात सीखने के लिए प्रात्सोहित करता है। इसलिए छात्र को प्रोत्साहन, प्रशंसा, प्रतिस्पर्धा, आदि तरीकों से नया पाठ सीखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

(5) अधिगम विधियाँ-

रूचिकर और उपयुक्त मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों से सीखने की प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। प्राथमिक कक्षाओं के लिए खेल विधि, करके सीखना तथा उच्च कक्षाओं के लिए समूह शिक्षण, सहसम्बन्ध आदि विधियों का प्रयोग कर अधिगम को सुगम बना सकते है।

(6) थकान व तत्परता-

मानसिक व शारीरिक थकान सीखने वाले की कार्य-शक्ति को कम कर देती है। बालक की शारीरिक अवस्था, स्वास्थ्य, ऊर्जा, कार्यक्षमता, ताजापन, थकान न होना आदि बातें उसे सीखने के लिए तत्पर करती है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बालक में रूचि और जिज्ञासा पैदा करके तथा उसकी इच्छा-शक्ति को मजबूत बनाकर उसे सीखने के लिए तत्पर किया जा सकता है। अतः सीखने वाला नई बात को तब ही सीख पायेगा जब वह सीखने के लिए तत्पर होगा।

(7) परिपक्वता-

मानसिक तथा शारीरिक परिपक्वता अधिगम के लिए आवश्यक है। किसी अभ्यास या प्रशिक्षण को उचित आयु से पूर्व दिया जाये तो वह प्रभावी नहीं होता है। पूर्व का अनुभव किसी बात को सीखने या समझने के लिए आधार का काम करता है। इसलिए छात्र जिस स्तर की बातें सीखने के लिए परिपक्व हो चुका है उसी स्तर का अधिगम परिणामदायक होता है।

(8) शारीरिक कारक-

बालक की शारीरिक आवश्यकताएँ ग्रन्थियों की कार्यप्रणाली, वंशानुगत बीमारी का विकृति आदि शारीरिक दशाएँ अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करते है। विभिन्न शारीरिक रोग, कम दिखना, कम सुनना व अन्य बीमारियों से बालक के सीखने की योग्यता का प्रभाव पङता है।

थाइराइड ग्रंथि के सही कार्य नहीं करने से उसकी बुद्धि पर असर पङता है। एड्रेनल कोर्टिकल से थकान, आलस्य, रक्तचाप कम होना आदि समस्याएँ पैदा हो जाती है। अध्यापक को शारीरिक रूप से दोषग्रस्त बालकों में सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करके उसके अधिगम स्तर सुधारना चाहिए।

(9) कुशल अध्यापक-

बालमनोविज्ञान का ज्ञाता और अपने विषय पर पूर्ण अधिकार रखने वाला शिक्षक अधिगम को प्रभावशाली बना सकता है। एक लोकतांत्रिक शिक्षक अपने शिक्षण में मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों प्रकार से प्रगति कर सकता है जबकि निरंकुश शिक्षक अपने शिक्षण में केवल मात्रात्मक वृद्धि कर सकता है गुणात्मक नही।
शिक्षक अपने शिक्षण को बाल-केन्द्रित रखकर अधिगम में वृद्धि कर सकता है।

What is Adhigam

थार्नडाइक के सीखने के नियम

अधिगम

1. तत्परता का नियम –

हम किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार या तत्पर होते हैं, तो उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित होती है। तत्परता ध्यान केन्द्रित करने में भी सहायता देती है।

2. अभ्यास का नियम –

हम किसी कार्य का अभ्यास करते रहते हैं, तो उसे सरलतापूर्वक करना सीख जाते हैं और उसमें कुशल हो जाते हैं। यदि हम सीखे हुए कार्य का अभ्यास नहीं करते हैं, तो उसको भूल जाते हैं।

3. प्रभाव का नियम –

इस नियम के अनुसार हम उस कार्य को सीखना चाहते हैं, जिसका परिणाम हमारे लिए लाभदायक होता है, या जिससे हमेें सुख और संतोष मिलता है। जिस काम को करने में हमें कष्ट होता है, उसको हम सीखते या करते नहीं है।

4. बहुप्रतिक्रिया का नियम –

जब हम कोई नया कार्य करना सीखते है, तो हम उसके प्रति अनेक प्रतिक्रियाएँ करते हैं या कई उपायों और विधियों का प्रयोग करके सफलता प्राप्त करते हैं। प्रयत्न और त्रुटि का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।

5. मनोवृत्ति का नियम –

जिस कार्य के प्रति हमारी जैसी अभिवृत्ति या मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में हम उसको असफलता मिलती है।

अन्य नियम

6. आंशिक क्रिया का नियम –

किसी कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभाजित करने से कार्य सरल और सुविधाजनक बन जाता है। इन भागों को शीघ्रता और सुगमता से करके सम्पूर्ण कार्य को पूरा किया जाता है। शिक्षक को विषय वस्तु छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित कर प्रस्तुत करनी चाहिए।

7. आत्मीकरण का नियम –

हम नवीन ज्ञान का आत्मीकरण कर अपने पूर्व ज्ञान का स्थायी अंग बना लेते हैं। इसलिए शिक्षक छात्र को कोई नई बात सिखाता है, तब वह उसका पहले सीखी हुई बात से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है।

8. साहचर्य का नियम –

इस नियम का अर्थ है पहले कभी की गई क्रिया को उसी समान दूसरी परिस्थिति में उसी प्रकार करना। इसमें क्रिया का स्वरूप तो वहीं रहता है, परन्तु परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।

अधिगम के सिद्धान्त

क्र.स.प्रवर्तकसिद्धान्त का नाम
1. थार्नडाइक (1913), अमेरिकाप्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त/ उद्दीपक-प्रतिक्रिया सिद्धान्त/ अधिगम का बन्ध सिद्धान्त/ समबन्धवाद का सिद्धान्त  प्रयोग-भूखी बिल्ली पर, उद्दीपक- मछली
2. पावलव (1904), रूससम्बद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त/ अनुकूलित- अनुक्रिया का सिद्धान्त/ शास्त्रीय अनुबन्ध का सिद्धान्त/ प्रतिस्थापक का सिद्धान्त प्रयोग-कुत्ते पर
3.सी.एल. हल (1915), अमेरिकापुनर्बलन का सिद्धान्त/ व्यस्थित व्यवहार का सिद्धान्त/ प्रबलन का सिद्धान्त
4.वर्दीमर, कोफ्का, कोहलर (1925), जर्मनीसूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त/ गेस्टाल्ट का सिद्धान्त/ समग्राकृति जर्मनी का सिद्धान्त/ पूर्णाकार सिद्धान्त प्रयोग-सुल्तान नाम चिंपैजी
5.स्किनर, अमेरिकासक्रिय अनुबंध सिद्धान्त/ क्रिया-प्रसूत अधिगम सिद्धान्त/ प्रयोग-चूहे व अकबर
6.कर्ट लेविन (1917), जर्मनीतलरूप सिद्धान्त/ क्षेत्र सिद्धान्त/ संज्ञानात्मक सिद्धान्त
7.टालमैनसंकेत (चिह्न), पूर्णाकार सिद्धान्त/ संभावना सिद्धान्त/ ज्ञानात्मक सिद्धान्त

1. प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त

थार्नडाइक ने 1913 में अपनी पुस्तक ’शिक्षा मनोविज्ञान’ में सीखने का एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त को कई नामों से पुकारा जाता है –
1. उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Stimulus-Response (S-R Theory)
2. सम्बन्धवाद का सिद्धान्त (Connectionist Theory)
3. अधिगम का बन्ध सिद्धान्त (Bond theroy of Learning)
4. संयोजनवाद का सिद्धान्त। (Connectionism Theory)

सीखने वाले व्यक्ति के सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने हेतु प्रेरित करता है। जिससे उद्दीपक-प्रतिक्रिया में सम्बन्ध (S-R Bond) स्थापित हो जाता है। परिणामतः भविष्य में वैसी ही स्थिति आने पर वह व्यक्ति वही प्रतिक्रिया करता है।

थार्नडाइक का प्रयोग – थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को पिंजङे में बन्द करके यह प्रयोग किया। बिल्ली पिंजङे के बाहर रखे मछली के टुकङे को प्राप्त करने हेतु पिंजङे से बाहर आने के अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयास करती रही और अंततः वह पिंजङा खोलना सीख गई। इस प्रकार बिल्ली प्रयास एवं त्रुटि के द्वारा उद्दीपक (मछली) दिखते ही प्रतिक्रिया सीख गई। इसी को ’प्रयत्न एवं त्रुटि’ का सिद्धान्त कहते हैं।
थार्नडाइक के अनुसार – ’’सीखना सम्बन्ध स्थापित करना है। सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य मनुष्य का मस्तिष्क करता है।’’

इस सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व

  • यह सिद्धान्त बङे और मंद बुद्धि बालकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
  • इस सिद्धान्त से बच्चों में धैर्य और परिश्रम के गुणों का विकास होता है।
  • अनुभवों का लाभ उठाने की क्षमता विकसित करता है।
  • बालकों में परिश्रम के प्रति आशा का संचार करता है।
  • यह सिद्धान्त समस्या समाधान करने में सहायक है।

2. सम्बद्ध-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक रूसी विद्वान् पावलव है। इस सिद्धान्त के कुछ अन्य प्रचलित नाम निम्नलिखित हैं –

(1) अनुकूलित-अनुक्रिया का सिद्धान्त (Conditioned Response Theory)
(2) शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धान्त (Classical Conditioning Theory)
(3) प्रतिस्थापक (Substitution Learning Theory)
(4) सम्बद्ध सहज-क्रिया सिद्धान्त (Conditioned Reflex Theory)

पावलव का प्रयोग-

पावलव के कुत्ते पर प्रयोग किया। उसने कुत्ते को भोजन देने पहले कुछ दिनों तक घण्टी बजाई। उसके बाद उसे भोजन न देकर केवल घण्टी बजाई। तब भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगी। इसका कारण था, कि कुत्ते ने घण्टी बजने से सीख लिया, कि उसे भोजन मिलेगा। घण्टी के प्रति कुत्ते की इस प्रतिक्रिया को पावलव ने ’सम्बद्ध सहज-क्रिया’ कहा। इस सिद्धान्त का सम्बन्धी शरीर विज्ञान से है। इसे मानने वाले व्यवहारवादियों के अनुसार सीखना एक प्रकार से उत्तेजक और अनुक्रिया को सम्बन्ध है।
इस प्रकार से सिखाने की प्रक्रिया को जहाँ अस्वाभाविक (कृत्रिम) उत्तेजक स्वाभाविक (प्राकृतिक) उत्तेजक का स्थान ग्रहण कर ले, अनुकूलित अनुक्रिया द्वारा सीखना कहा जाता है। इस सिद्धान्त को इस प्रकार भी समझ सकते है-

इस सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व

(1) यह सीखने की स्वाभाविक विधि है, जो क्रियाशीलता द्वारा सीखने पर आधारित है।
(2) यह सिद्धान्त क्रिया की पुनरावृत्ति पर बल देता है।
(3) इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे व्यवहार और उत्तम अनुशासन का निर्माण और बुरी आदतों को बदल सकते हैं।
(4) यह सिद्धान्त भय सम्बन्धी मानसिक रोगों और विपरीत संवेगों के निराकरण में सहायता देता है।
(5) इसके सम्बन्धीकरण के सिद्धान्त का उपयोग भाषा सिखाने और अच्छी आदतें सिखाने में कर सकते है।

3. सक्रिय अनुबंध सिद्धांत

बी.एफ. स्किनर द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत को ’क्रिया-प्रसूत अधिगम सिद्धान्त’ (Operant Conditioning Theory) भी कहते है। स्किनर अधिगम क्षेत्र में अनेक प्रयोग करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अभिप्रेरणा से उत्पन्न क्रियाशीलता ही सीखने के लिए उत्तरदायी है। अभिप्रेरणा का आधार उद्दीपन है। उद्दीपन भावी क्रिया को नियंत्रित करता है।

स्किनर ने चूहों , कबूतरों आदि पर अनेक प्रयोग करके यह धारणा विकसित की, कि प्राणियों में दो प्रकार के व्यवहार पाये जाते है- 1. अनुक्रिया (Respondent) और क्रिया-प्रभूत (Operant)। अनुक्रिया का सम्बन्ध उद्दीपन से होता है और क्रिया-प्रसूता स्वतंत्र होती है।

स्किनर के प्रयोग- स्किनर ने 1830 में सफेद चूहों पर प्रयोग किए। उसने लीवर बक्सा बनवाया। लीवर पर चूहे का पैर पङते ही खट् की ध्वनि होती थी। इस ध्वनि को सुनकर चूहा आगे बढ़ता और उसे प्याले में भोजन मिलता। यह भोजन चूहे के लिए पुनर्बलन का कार्य करता। चूहा भूखा होने पर प्रणोदित (Drived) होता और लीवर दबाता।

शिक्षा के महत्व-

  • अधिगम को स्वरूप प्रदान करने में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • इस सिद्धांत का प्रयोग बालकों के शब्द भण्डार में वृद्धि करने के लिए किया जाता है।
  • अभिक्रमित अधिराम विधि को गति प्रदान करने में सहायक है।
  • इससे कार्य के परिणाम की जानकारी प्राप्त होती है।
  • मानसिक रोगियों के निदानात्मक शिक्षण में उपयोगी है।
  • पुनर्बलन और संतोष द्वारा क्रिया को बल प्रदान करने में सहायक है।

4. सूझ या अन्तर्दष्टि का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त में प्रतिपादक जर्मन मनोवैज्ञानिक वर्दीमर, कोहलर और कोफ्का है। इस सिद्धान्त को पूर्णाकार या समग्राकृति सिद्धान्त कहते है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक जर्मनी के गेस्टाल्टवादी है, इसलिए इसे ’गेस्टाल्ट सिद्धान्त’ भी कहते है।

इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति कोई पाठ को सीखता है, तो वह सीखने से सम्बन्धित परिस्थिति के हर पहलू को समझने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वह विभिन्न पहलुओं को नए ढंग से देखकर उसके आपसी सम्बन्धों को समझ जाता है, तो उसमें अचानक सूझ या अंतर्दृष्टि उत्पन्न हो जाती है और इसके लिए अभ्यास की जरूरत नहीं होती है। इस सम्बन्ध में कई प्रयोग किए गए जिनमें सबसे प्रसिद्ध प्रयोग कोहलर का है।

कोहलर का प्रयोग-

कोहलर ने सुल्तान नामक चिंपैजी को कमरे में बंद करके कमरे की छत से केला लटक दिया और कुछ दूर एक बक्सा रख दिया। सुल्तान ने उछलकर केला लेने का असफल प्रयास किया। वह थोङी देर कमरे में इधर-उधर घूमा, बक्से के पास खङा हुआ, उसे खींचकर केले के नीचे ले गया, उस पर चढ़ गया और उछल कर केला ले लिया। सुल्तान के इन सब कार्यों से सिद्ध हुआ कि उसमें सूझ थी, जिसने उसे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता दी।

इसी प्रकार बालक भी सूझ द्वारा सीखते है। सूझ का आधार कल्पना है। जिस व्यक्ति में कल्पना-शक्ति जितनी अधिक होती है, उसमें सूझ भी उतनी ही अधिक होती है और इसलिए उसे सफलता भी अधिक मिलती है।

शिक्षा के महत्व

1. यह सिद्धान्त रचनात्मक कार्यों के लिए उपयोगी है।
2. यह सिद्धान्त गणित जैसे कठिन विषयों के शिक्षण में उपयोगी है।
3. यह सिद्धान्त बालकों में बुद्धि, कल्पना और तर्क-शक्ति का विकास करता है।
4. यह सिद्धान्त स्वयं खोज करके सीखने पर बल देता है।
5. यह सिद्धान्त कला, संगीत और साहित्य की शिक्षा में लाभप्रद है।
5. पुनर्बलन का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सी. एल. हल नामक अमरीकी मनोवैज्ञानिक ने 1915 में किया। यह सिद्धान्त थार्नडाइक और पावलव के सिद्धान्तों पर आधारित है। इस सिद्धान्त को ’व्यवस्थित व्यवहार का सिद्धान्त’ या ’प्रबलन का सिद्धान्त’ भी कहा जाता है।
इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने का आधार, आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। यदि कोई कार्य पशु या मानव की किसी आवश्यकता को पूर्ण करता है, तो वह उसको सीख लेता है। आवश्यकता उद्दीपन का कार्य करती है, उसकी पूर्ति के लिए व्यक्ति अनुक्रिया करके सीखता है।

शिक्षा में महत्व

  • यह सिद्धान्त बालकों के शिक्षण में प्रेरणा पर बल देता है।
  • यह सिद्धान्त बालकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम निर्माण करने पर बल देता है।
  • सफलता प्राप्त होने पर बालकों को पुरस्कार देने को भी आवश्यक मानता है।
  • बालकों की क्रियाओं का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध जोङने पर बल देता है।
  • बालकों को प्रोत्साहन देकर अधिगम में वृद्धि की जा सकती है।
  • तलरूप सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के जन्मदाता कुर्ट लेविन ने जीवन के वातावरण को अधिगम का आधार माना है। बालक वातावरण में अनेक प्रकार की कठिनाइयों को हल करता हुआ अपने उद्देश्य तक पहुँचता है। वह सदैव उद्देश्यों से प्रेरणा प्राप्त करता है। उद्देश्य कभी धनात्मक और कभी ऋणात्मक शक्तियाँ रखते है। बालक को अपने उद्देश्य तक पहुँचने में अनेक बाधाओं का सामना करना पङता है। इन बाधाओं पर विजय पाने के लिए उसे प्रेरणा मिलनी चाहिए, अन्यथा वह निराश होकर बैठ जाता है।

शिक्षा का उपयोग

1. अधिगम के लिए बालकों के समक्ष उचित वातावरण उपस्थित करना चाहिए।
2. पाठ्यासामग्री का उद्देश्य बालकों के अनुकूल होना चाहिए।
3. बालकों को समस्या का ज्ञान और कार्य करने की प्रेरणा देनी चाहिए।

स्थानान्तरण का अर्थ व पभिाषा

अधिगम या प्रशिक्षण के स्थानान्तरण से अभिप्राय- ’किसी सीखी हुई क्रिया या विषय का अन्य परिस्थितियों में उपयोग करने से है।’

1. सोरेन्सन- ’’स्थानान्तरण का परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, प्रशिक्षण और आदतों का दूसरी स्थानान्तरित किए जाने का उल्लेख करता है।’’

2. क्रो व क्रो- ’’सीखने के एक क्षेत्र में प्राप्त होने वाले ज्ञान या कुशलताओं का और सोचने, अनुभव करने या कार्य करने की आदतों का सीखने के दूसरे क्षेत्र में प्रयोग करना साधारणतः प्रशिक्षण का स्थानान्तरण कहा जाता है।’’

स्थानान्तरण के सिद्धान्त

अधिगम स्थानान्तरण के सिद्धान्त

  • समरूप तथ्यों का सिद्धान्त – थार्नडाइक
  • सामान्यीकरण का सिद्धान्त – चार्ल्स जुड
  • आदर्शों एवं मूल्यों का सिद्धान्त – डब्ल्यू.सी.बागले
  • सामान्य व विशिष्ट तत्वों का सिद्धान्त – स्पीयरमैन
  • अवयववादी सिद्धान्त – कोहलर, कोफ्का, वर्दीमर
  • संयोजनवाद का सिद्धान्त – थार्नडाइक

1. मानसिक शक्तियों का सिद्धान्त-

अधिगम स्थानान्तरण का यह सबसे पुराना सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का अर्थ है- सभी मानसिक शक्तियाँ एक-दूसरे से स्वतंत्र है। उनको स्वंतत्र रूप से प्रकाशित करके सबल बनाया जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान मस्तिष्क की शक्तियों के विभाजन को स्वीकार नहीं करता है। अतः इस सिद्धान्त की मान्यता समाप्त हो गई है।

2. समरूप तथ्यों का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक थार्नडाइक है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक स्थिति से दूसरी स्थिति को स्थानान्तरण उसी अनुपात में होता है, जिसमें दोनों स्थितियों की विषय सामग्री, दृष्टिकोण, विधि या उद्देश्य के तत्वों में समानता होती है। जैसे- इतिहास का ज्ञान भूगोल के अध्ययरन में सहायता दे सकता है, विज्ञान के अध्ययन में नहीं।

3. सामान्यीकरण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक चार्ल्स एच जुङ है। इस सिद्धान्त के अनुसार कोई व्यक्ति अपने किसी कार्य, ज्ञान या अनुभव से कोई सामान्य नियम या सिद्धान्त निकाल लेता है। वह उस सामान्यीकृत सिद्धान्त का दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग कर सकता है।

4. सामान्य व विशिष्ट तत्वों का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन है। उनके अनुसार व्यक्ति में दो प्रकार की बुद्धि होती है- सामान्य और विशिष्ट। इसका सम्बन्ध सामान्य योग्यता और विशिष्ट योग्यता से होता है। स्थानान्तरण केवल सामान्य योग्यता का होता है, विशिष्ट योग्यता का नहीं।

5. आदर्शों एवं मूल्यों का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बागले है। इनके अनुसार सामान्यीकरण के स्थानान्तरण के मूल में आदर्श और मूल्य होते है। इन आदर्शों और मूल्यों का ही एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरण होता रहता है। अतः बच्चों में मूल्यों और आदर्शों के विकास के लिए समुचित प्रयत्न करने की आवश्यकता है।

6. अवयववादी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के प्रतिपादक कोहलर, कोफ्का व वर्दीमर हैं। इनके अनुसार जब तक दो परिस्थितियों का सम्पूर्ण रूप से एक समुच्चय ज्ञान की उपलब्धि सहज भाव में होकर व्यक्ति के व्यक्तित्व का अवयव नहीं बन जायेगी, तब तक एक क्षेत्र का ज्ञान दूसरे क्षेत्र के ज्ञान में स्थानान्तरित नहीं हो सकेगा।

7. संयोजनवाद का सिद्धान्त – इसके प्रवर्तक थार्नडाइक थे। संयोजनवाद की परिभाषा एल.रेन ने इस प्रकार दी है- ’संयोजनवाद वह सिद्धान्त है, जो समस्त मानसिक प्रक्रियाओं को परिस्थितियों और अनुक्रियाओं के बीच मूल एवं अर्जित संयोजन का कार्य मानता है।’’

सामाजिक अधिगम सिद्धान्त (बन्डुरा)

सामाजिक अधिगम सिद्धान्त के प्रतिपादक बान्डुरा है। बालक सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया में सीखते हैं। सामाजिक अधिगम सिद्धान्तवादी यह मानते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही इस प्रकार का व्यवहार सीखकर पैदा नहीं होता अपितु यह आक्रामक व्यवहार एक प्रकार का अधिगमित सामाजिक व्यवहार होता है। अधिकांश अधिगम बालक माता-पिता, परिवार के सदस्यों और साथी समूह के आक्रामक व्यवहार के निरीक्षक के आधार पर सीखते हैं।

बान्डुरा ने अपने प्रयोग के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि जब अधिगमकर्ता माॅडल को आक्रामक व्यवहार के लिए पुरस्कृत होता हुआ देखता है तो माॅडल के ऐसे आक्रामक व्यवहार को अनुकरण के आधार पर सीख लेता है। उस आक्रामक व्यवहार का अधिगम शीघ्र किया जाता है जिससे इच्छित फल या लाभ प्राप्त होता है।

दूसरों के व्यवहार का निरीक्षण कर उनके अनुरूप व्यवहार करने के कारण अथवा दूसरों के व्यवहारों को अपने जीवन मे उतारने तथा समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहारों को धारण करने तथा अमान्य व्यवहारों को त्यागने के कारण ही यह सामाजिक अधिगम कहलाता है तथा यही बन्डुरा का माॅडल द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाने का सिद्धान्त कहलाता है। सामाजिक जीवन में अनुकरण द्वारा सीखने की अधिकता है अतः किसी प्रतिमान द्वारा किए गए विशिष्ट व्यवहार के अवलोकन से अर्जित नवीन प्रक्रियाओं को ग्रहण करना ही अनुकरणात्मक सीखना कहलाता है।

सामाजिक अधिगम की विभिन्न अवस्थाएँ

(1) धारणात्मक – जब बालकों का ध्यान माॅडल की ओर आकर्षित हो जाए तो उस समय माॅडल को वही व्यवहार करना चाहिए जैसा वह निरीक्षणकर्ता से अनुसरण करवाना चाहता है। बालक व्यवहारों को अपने मस्तिष्क में प्रतिमाओं के रूप में या शाब्दिक वर्णन के रूप में संग्रहित कर लेते हैं। संग्रहण के पश्चात् उस शाब्दिक विवरण या प्रतिमाओं का प्रत्यास्मरण कर उन्हें पुनः उसी रूप में अपने व्यवहार के साथ प्रस्तुत करता है।

(2) अवधानात्मक – सामाजिक अधिगम में प्रतिमान का महत्व पूर्ण स्थान है। किसी भी कार्य को सीखने के लिए व्यक्ति को प्रतिरूपित व्यवहार की विशेषताओं का निरीक्षण करना पङता है किन्तु यदि निरीक्षककर्ता माॅडल की ओर ध्यान नहीं देगा तो वह उसके गुणों की ओर सचेत नहीं होगा। अतः निरीक्षणकर्ता का उस माॅडल के प्रति उद्दीपन होना चाहिए। अर्थात् यह आवश्यक है कि निरीक्षणकर्ता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए माॅडल को आकर्षक, लोकप्रिय, रोचक या सफल होना चाहिए।

अन्य अवस्थाएँ

(3) अभिप्रेरणा – किसी भी व्यवहार के अनुकरण के लिए बालक के पास कोई न कोई अभिप्रेरणा प्रदान करने वाला तत्त्व अवश्य होना चाहिए। अभिप्रेरक व्यक्ति के लिए सकारात्मक व नकारात्मक पुनर्बलन का कार्य करते हैं।

(4) पुनरुत्पादन – पुनरुत्पादन या पुनः प्रस्तुतीकरण से तात्पर्य प्रतीकों व संकेतों को उपयुक्त क्रियाओं में परिवर्तित करना है। व्यवहार का पुनः प्रस्तुतीकरण माॅडल प्रतिमान के अनुसार अपने व्यवहार को संगठित करके किया जाता है। व्यक्ति के व्यवहार का पुनः प्रस्तुतीकरण अभ्यास के साथ संशोधित हो जाता है।

सामाजिक अधिगम के शैक्षिक निहितार्थ

बान्डुरा द्वारा प्रतिपादित सामाजिक सिद्धान्त शिक्षा प्रक्रिया में अधिक उपयोगी हो सकता है। कक्षा-शिक्षण के लिए इस सिद्धान्त की कुछ उपयोगिताएँ निम्नलिखित हैं –

(1) शैक्षिक-दृष्टि से यह महत्व पूर्ण सिद्धान्त है कि व्यवहार के लक्ष्य निर्धारित किए जाएँ और विद्यालय में शैक्षिक कार्यक्रमों को लक्ष्य के अनुरूप चलाया जाये।

(2) विद्यार्थी अन्य व्यक्तियों के निरीक्षण द्वारा बहुत कुछ सीख सकते है।

(3) शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों के समक्ष विविध प्रकार के माॅडल्स प्रस्तुत करने की तकनीक से परम्परागत ढाँचे में ढलने से मुक्त होने की प्रेरणा मिलेगी।

(4) विद्यार्थियों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए स्व-नियंत्रण जैसी प्रभावी विधि का प्रयोग करना चाहिए।

(5) प्रभावी माॅडलिंग हेतु चार आवश्यक दशाओं अवधान, धारण, पुनरुत्पादन एवं अभिप्रेरणा को शिक्षक सुनिश्चित करें।

(6) विभिन्न व्यवहारों के परिणामों का वर्णन करने से विद्यार्थी उपयुक्त व्यवहारों का अधिक चयन करेंगे व अनुपयुक्त व्यवहारों को कम कर देंगे।

अन्य जानकारी

(7) यह सिद्धान्त अधिगम के व्यवहारवादी व संज्ञानात्मक विचारधाराओं को समाहित किए हुए हैं। अतः संभवतः हिलगार्ड ने इसे ’संज्ञानात्मक व्यवहारवाद’ की संज्ञा दी है।

(8) शिक्षण के द्वारा नवीन व्यवहारों को सिखाने के लिए शिक्षकों के लिए प्रतिरूपण एक विकल्प है। क्रिया प्रसूत अनुसंधान के द्वारा व्यवहार को सिखाने की अपेक्षा माॅडलिंग एक प्रभावी व तीव्रता से कार्य करने वाला साधन है।

(9) विद्यार्थियों द्वारा शैक्षिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने में वास्तविक व सही प्रत्याशाओं को स्थापित करने में शिक्षकों को सहायता करनी चाहिए लेकिन यह भी ध्यान रखा जाए कि प्रत्याशाओं का स्तर निम्न न हो।

(10) स्मृति एक संज्ञानात्मक प्रकार्य है। बान्डुरा ने भी यह माना है कि पशु जगत की उद्दीपन अनुक्रिया के परे मनुष्य संकेतों व प्रतीकों का विश्लेषण व व्याख्या कर सकता है जो उसे पशु जगत से उच्चतर प्राणी बनाती है।

(11) सीखने की प्रभावी विधियाँ निर्धारित करने के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सीखने की निर्देशिकाएँ उपलब्ध हुई हैं।

स्मरणीय बिन्दु

✔️ गुथरी ने सामीप्य सम्बन्धवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
☑️ गेस्टाल्ट जर्मन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है – पूर्णाकार या समग्राकृति।
✔️ अलबर्ट बान्डुरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
☑️ जब सीखने की क्रिया में कोई उन्नति नहीं होती, उस अवधि को ’सीखने का पठार’ कहा जाता है।
✔️ रोजर्स अधिगम के मानवतावादी सिद्धान्त के प्रवर्तक हैं।

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Comments

  1. KUNDAN KUMAR says

    December 25, 2020 at 12:22 PM

    For Ctet Preparation

    Reply
  2. KUNDAN KUMAR says

    December 25, 2020 at 12:23 PM

    Sir,
    Important questions send me

    Reply

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