व्यक्तित्व: अर्थ , परिभाषा, मापन विधियाँ

आज के आर्टिकल में हम मनोविज्ञान के अंतर्गत व्यक्तित्व (What is Personality) के बारे में विस्तार से जानेंगे ,इसके प्रकार ,गुण व मापन की विधियों की भी बात करेंगे ।

व्यक्तित्व: अर्थ व परिभाषा – Personality: Meaning and Definition

’व्यक्तित्व’ अंगे्रजी के पर्सनेल्टी (Personality) का पर्याय है। पर्सनेल्टी शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के पर्सोना शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है – मुखौटा (Mask)। उस समय व्यक्तित्व का तात्पर्य बाह्य गुणों से लगाया जाता था। यह धारणा व्यक्तित्व के पूर्ण अर्थ की व्याख्या नहीं करती।

व्यक्तित्व की कुछ आधुनिक परिभाषाएँ निम्न हैं –

1. गिलफोर्ड – ’’व्यक्तित्व गुणों का समन्वित रूप है।’’
2. वुडवर्थ – ’’व्यक्ति के व्यवहार की एक समग्र विशेषता ही व्यक्तित्व है।’’
3. मार्टन – ’’व्यक्तित्व व्यक्ति के जन्मजात तथा अर्जित स्वभाव, मूल प्रवृत्तियों, भावनाओं तथा इच्छाओं आदि का समुदाय है।’’
4. बिग एवं हण्ट – ’’व्यक्तित्व व्यवहार प्रवृत्तियों का एक समग्र रूप है, जो व्यक्ति के सामाजिक समायोजन में अभिव्यक्त होता है।’’
5. ऑलपोर्ट – ’’व्यक्तित्व का सम्बन्ध मनुष्य की उन शारीरिक तथा आन्तरिक वृत्तियों से है, जिनके आधार पर व्यक्ति अपने वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करता है।’’

इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं, कि व्यक्तित्व एक व्यक्ति के समस्त मानसिक एवं शारीरिक गुणों का ऐसा गतिशील संगठन है, जो वातावरण के साथ उस व्यक्ति का समायोजन निर्धारित करता है।

व्यक्तित्व के सिद्धान्त – Vyaktitv ke siddhant

व्यक्तित्व की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है।

व्यक्तित्व मापन के सिद्धान्त

  • मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त – सिंगमंड फ्रायड
  • शरीर रचना सिद्धान्त –  शैल्डन
  • विशेषक सिद्धान्त –  कैटल
  • माँग सिद्धान्त –  हेनरी मुरे
  • हार्मिक सिद्धान्त –  मैक्डूगल
  • आत्मज्ञान का सिद्धान्त –  मास्लो
  • जीव सिद्धान्त –  गोल्डस्टीन

व्यक्तित्व के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार है –

1. मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त –

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन फ्रायड ने किया था। उनके अनुसार व्यक्तित्व के तीन अंग हैं –

(1) इदम् (Id),

(2) अहम् (Ego),

(3) परम अहम (Super Ego)

ये तीनों घटक सुसंगठित कार्य करते हैं, तो व्यक्ति ’समायोजित’ कहा जाता है। इनमें संघर्ष की स्थिति होने पर व्यक्ति असमायोजित हो जाता है।

(1) इद्म (Id) – यह जन्मजात प्रकृति है। इसमें वासनाएँ और दमित इच्छाएँ होती हैं। यह तत्काल सुख व संतुष्टि पाना चाहता है। यह पूर्णतः अचेतन में कार्य करता है। यह ’पाश्विकता का प्रतीक’ है।

(2) परम अहम् (Super Ego)- यह सामाजिक मान्यताओं व परम्पराओं के अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा देता है। इस संस्कार, आदर्श, त्याग और बलिदान के लिए तैयार करता है। यह ’देवत्व का प्रतीक’ है।

(3) अहम् (Ego) – यह इदम् और परम अहम् के बीच संघर्ष में मध्यस्थता करते हुए इन्हें जीवन की वास्तविकता से जोङता है। अहम् मानवता का प्रतीक है, जिसका सम्बन्ध वास्तविक जगत से है। जिसमें अहम् दृढ़ व क्रियाशील होता है, वह व्यक्ति समायोजन में सफल रहता है। इस प्रकार व्यक्तित्व इन तीनों घटकों के मध्य ’समायोजन का परिणाम’ है।

2. शरीर रचना सिद्धात –

इस सिद्धान्त के प्रवर्तक शैल्डन थे। इन्होंने शारीरिक गठन व शरीर रचना के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करने का प्रयास किया। यह शरीर रचना व व्यक्तित्व के गुणों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध मानते है। इन्होंने शारीरिक गठन के आधार पर व्यक्तियों को तीन भागों- गोलाकृति, आयताकृति और लम्बाकृति में विभक्त किया। गोलाकृति वाले प्रायः भोजन प्रिय, आराम पसन्द, शौकीन मिजाज, परम्परावादी, सहनशील, सामाजिक तथा हँसमुख प्रकृति के होते हैं। आयताकृति वाले प्रायः रोमांचप्रिय, प्रभुत्ववादी, जोशीले, उद्देश्य केन्द्रित तथा क्रोधी प्रकृति के होते हैं। लम्बाकृति वाले प्रायः गुमसुम, एकान्तप्रिय, अल्पनिद्रा वाले, एकांकी, जल्दी थक जाने वाले तथा निष्ठुर प्रकृति के होते हैं।

3. विशेषक सिद्धान्त –

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कैटल ने किया था। उसके कारक विश्लेषण नाम की सांख्यिकीय प्रविधि का उपयोग करके व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने वाले कुछ सामान्य गुण खोजे, जिन्हें ’व्यक्तित्व विशेषक’ नाम दिया। इसके कुछ कारक हैं – धनात्मक चरित्र, संवेगात्मक स्थिरता, सामाजिकता, बुद्धि आदि।
कैटल के अनुसार व्यक्तित्व वह विशेषता है, जिसके आधार पर विशेष परिस्थिति में व्यक्ति के व्यवहार का अनुमान लगाया जाता है। व्यक्तित्व विशेषक मानसिक रचनाएँ हैं। इन्हें व्यक्ति के व्यवहार प्रक्रिया की निरन्तरता व नियमितता के द्वारा जाना जा सकता है।

4. माँग सिद्धान्त –

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक हेनरी मुरे मानते हैं, कि मानव एक प्रेरित जीव है, जो अपने अन्तर्निहित आवश्यकताओं तथा दबावों के कारण जीवन में उत्पन्न तनाव को कम करने का निरन्तर प्रयास करता रहता है। वातावरण व्यक्ति के अन्दर कुछ माँगों को उत्पन्न करता है। ये माँगे ही व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले व्यवहार को निर्धारित करती है। मुरे ने व्यक्तित्व माँग की 40 माँगे ज्ञात की।

व्यक्तित्व के प्रकार – Vyaktitva ke Prakar

1. कैचमर का शरीर रचना पर आधारित वर्गीकरण –

  • शक्तिहीन (एस्थेनिक)
  • खिलाङी (एथलेटिक)
  • नाटा (पिकनिक)

2. कपिल मुनि का स्वभाव पर आधारित वर्गीकरण –

  • सत्व प्रधान व्यक्ति
  • रजस प्रधान व्यक्ति
  • तमस प्रधान व्यक्ति

3. थार्नडाइक का चिन्तन पर आधारित वर्गीकरण –

  • सूक्ष्म विचारक
  • प्रत्यक्ष विचारक
  • स्थूल विचारक

4. स्प्रेन्गर द्वारा का समाज सम्बन्धित वर्गीकरण –

  • वैचारिक
  • आर्थिक
  • सौन्दर्यात्मक
  • राजनैतिक
  • धार्मिक
  • सामाजिक

5. जुंग द्वारा किया गया मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण –
वर्तमान में जुंग का वर्गीकरण सर्वोत्तम माना जाता है। इन्होंने मनोवैज्ञानिक लक्षणों के आधार पर व्यक्तित्व के तीन भेद माने जाते हैं –

(क) अन्तर्मुखी – अन्तर्मुखी झेंपने वाले, आदर्शवादी और संकोची स्वभाव वाले होते हैं। इसी स्वभाव के कारण वे अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में असफल रहते हैं। ये बोलना और मिलना कम पसन्द करते हैं। पढ़ने में अधिक रुचि लेते हैं। इनकी कार्य क्षमता भी अधिक होती है।
(ख) बहिर्मुखी – बहिर्मुखी व्यक्ति भौतिक और सामाजिक कार्यों में विशेष रुचि लेते हैं। ये मेलजोल बढ़ाने वाले और वाचाल होते हैं। ये अपने विचारों और भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकते हैं। इनमें आत्मविश्वास चरम सीमा पर होता है और बाह्य सामंजस्य के प्रति सचेत रहते हैं।
(ग) उभयमुखी – इस प्रकार के व्यक्ति कुछ परिस्थितियों में बहिर्मुखी तथा कुछ में अन्तर्मुखी होते हैं। जैसे एक व्यक्ति अच्छा बोलने वाला और लिखने वाला है, किन्तु एकान्त में कार्य करना चाहता है।

व्यक्तित्व निर्माण के लिए उत्तरदायी कारक – Factors responsible for building personality

1. वंशानुक्रम का प्रभाव – व्यक्तित्व के विकास पर वंशानुक्रम का प्रभाव सर्वाधिक और अनिवार्यतः पङता है। स्किनर व हैरीमैन का मत है कि- ’’मनुष्य का व्यक्तित्व स्वाभाविक विकास का परिणाम नहीं है। उसे अपने माता-पिता से कुछ निश्चित शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और व्यावसायिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।’’

2. सामाजिक वातावरण का प्रभाव – बालक जन्म के समय मानव-पशु होता है। उसमें सामाजिक वातावरण के सम्पर्क से परिवर्तन होता है। वह भाषा, रहन-सहन का ढंग, खान-पान का तरीका, व्यवहार, धार्मिक व नैतिक विचार आदि समाज से प्राप्त करता है। समाज उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। अतः बालकों को आदर्श नागरिक बनाने का उत्तरदायित्व समाज का होता है।

3. परिवार का प्रभाव – व्यक्तित्व के निर्माण का कार्य परिवार में आरम्भ होता है, जो समाज द्वारा पूरा किया जाता है। परिवार में प्रेम, सुरक्षा और स्वतंत्रता के वातावरण से बालक में साहस, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आदि गुणों का विकास होता है। कठोर व्यवहार से वह कायर और असत्यभाषी बन जाता है।

4. सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव – समाज व्यक्ति का निर्माण करता है, तो संस्कृति उसके स्वरूप को निश्चित करती है। मनुष्य जिस संस्कृति में जन्म लेता है, उसी के अनुरूप उसका व्यक्तित्व बनता है।

5. विद्यालय का प्रभाव – पाठ्यक्रम, अनुशासन, खेलकूद, शिक्षक का व्यवहार, सहपाठी आदि का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव व्यक्तित्व के विकास पर पङता है। विद्यालय में प्रतिकूल वातावरण मिलने पर बालक कुण्ठित और विकृत हो जाता है।

6. संवेगात्मक विकास – अनुकूल वातावरण में रहकर बालक संवेगों पर नियंत्रण रखना सीखता है। संवेगात्मक असंतुलन की स्थिति में बालक का व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है। इसलिए वांछित व्यक्तित्व के लिए संवेगात्मक स्थिरता को पहली प्राथमिकता दी जाती है।

7. मानसिक योग्यता व रुचि का प्रभाव – व्यक्ति की जिस क्षेत्र में रुचि होती है, वह उसी में सफलता पा सकता है और सफलता के अनुपात में ही व्यक्तित्व का विकास होता है। अधिक मानसिक योग्यता वाला बालक सहज ही अपने व्यवहारों को समाज के आदर्शों के अनुकूल बना देता है।

8. शारीरिक प्रभाव – अन्तःस्त्रावी ग्रंथियाँ, नलिका विहीन ग्रंथियाँ, शारीरिक रसायन, शारीरिक रचना आदि व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। शरीर की दैहिक दशा, मस्तिष्क के कार्य पर प्रभाव डालने के कारण व्यक्ति के व्यवहार और व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। इनके अलावा बालक की मित्र-मण्डली और पङौस भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।

व्यक्तित्व मापन – Vyaktitv mapan

व्यक्तित्व को अनेक गुणों या लक्षणों का संगठन माना जाता है। व्यक्तित्व मापन की सहायता से इन गुणों का ज्ञान प्राप्त करके चार लाभप्रद कार्य कर सकते हैं –
1. व्यक्तित्व के विकास सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करना।
2. व्यक्ति को अपनी कठिनाइयों का निवारण करने का उपाय बताना।
3. व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप में सामंजस्य करने में सहायता देना।
4. विभिन्न पदों के लिए उपयुक्त व्यक्तियों का चुनाव करना।

Tyeps of Personality
Tyeps of Personality

व्यक्तित्व मापन की विधियाँ – vyaktitv mapan ke vidhiyan

 

(अ) अप्रेक्षण विधियाँ (Non-Projective Methods)

1. आत्मनिष्ठ विधियाँ

(1) आत्मकथा लेखन (Autobiography) इस विधि में व्यक्ति को कुछ निर्धारित शीर्षकों के अंतर्गत अपने जीवन की घटनाओं व संस्मरणों का वर्णन लिखने को कहा जाता है। इसके आधार पर व्यक्ति के गुण-दोषों का पता लगाया जाता है। इसमें व्यक्ति तथ्य छिपाकर अधूरी जानकारी भी दे सकता है।

(2) प्रश्नावली (Questionaire) – इस विधि में व्यक्ति के गुणों के परीक्षण हेतु प्रश्नों की एक सूची तैयार की जाती है, जिसमें व्यक्ति हाँ या ना में उत्तर देता है। कुछ प्रश्नों के पूरे उत्तर देने पङते हैं। प्रश्नावली चार प्रकार की होती है –
(अ) बंद प्रश्नावली – इस प्रश्नावली में हाँ या ना में उत्तर देना पङता है।
(ब) खुली प्रश्नावली – इसमें प्रश्न का पूरा उत्तर लिखना पङता है।
(स) सचित्र प्रश्नावली – इसमें चित्रों पर निशान लगाकर प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं।
(द) मिश्रित प्रश्नावली – इसमें उपर्युक्त तीनों का मिश्रण होता है।

(3) व्यक्ति इतिहास (Case history) – इस विधि में परीक्षक व्यक्ति के माता-पिता, पङौसी, रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, मित्र आदि के सम्बन्ध में उससे अनेक प्रश्न पूछता है। इस प्रकार प्राप्त सामग्री से परीक्षक इस निष्कर्ष को खोजने का प्रयास करता है, कि इस व्यक्ति की किन-किन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हुई, वह वातावरण में कहाँ तक समायोजित हो पाता है, उसके अवांछित व्यवहार का क्या कारण है? इस प्रकार इस विधि का प्रयोग अपराधी बालक या व्यक्ति के उपचार में किया जाता है।

(4) परिसूचियाँ (Inventories) – इस विधि का सर्वप्रथम प्रयोग वुडवर्थ ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मानसिक रोगी सैनिकों पर किया। इस विधि में व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों के अंतर्गत प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित प्रश्नावलियाँ होती हैं, जिनका उत्तर हाँ या ना में देना पङता है। इस विधि का प्रयोग बालक या व्यक्ति के कुसमायोजन को जानने के लिए किया जाता है। इसे स्व-मूल्यांकन विधि भी कहते हैं।

(5) साक्षात्कार (Interview) – इस मौखिक विधि का प्रयोग शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के अध्ययन में किया जाता है। इस विधि के दो रूप हैं – (अ) औपचारिक – इसमें साक्षात्कारकर्ता व्यक्ति से अनेक प्रश्न पूछता है। इसका प्रयोग कई उम्मीदवारों में से एक या कुछ को चुनने के लिए करते हैं। (ब) अनौपचारिक – इसमें साक्षात्कारकर्ता कम से कम प्रश्न पूछता है और व्यक्ति को अपने बारे में अधिक बताने के लिए अवसर देता है। इस विधि का प्रयोग व्यक्ति को समस्या समाधान के उपाय बताने के लिए किया जाता है।

2. वस्तुनिष्ठ विधियाँ

(1) निरीक्षण विधि (Observation Methods) – इस विधि में शिक्षक द्वारा बालक का विभिन्न परिस्थितियों में सतत् निरीक्षण किया जाता है, जिसके आधार पर व्यक्तित्व के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाले जाते हैं। निरीक्षण नियंत्रित होता है।

(2) समाजमिति (Sociogram) – अध्यापक इस विधि का प्रयोग छात्रों के विभिन्न सामाजिक गुणों के मापन के लिए कर सकता है। इस विधि का प्रवत्र्तक जेकाब मोरेनो को माना जाता है। इस विधि में किसी समूह के प्रत्येक व्यक्ति को एक या दो प्रश्न देकर उनकी प्रतिक्रियाएँ ज्ञात कर उनके आधार पर समाजमिति का निर्माण किया जाता है। इससे उस समूह में परस्पर सम्बन्धों को स्पष्ट किया जाता है। बालक के सामाजिक गुणों के विकास के लिए यह सर्वोत्तम विधि है।

(3) निर्धारण मापनी (Rating Scale) – इस विधि में व्यक्ति के किसी विशेष गुण या कार्यकुशलता का मूल्यांकन उसके सम्पर्क में रहने वाले लोगों से करवाया जाता है। उसे गुण को पाँच या अधिक कोटियों में विभाजित करके, मतदाताओं से उस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करने का अनुरोध किया जाता है। जिस कोटि को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, व्यक्ति को उसी प्रकार का समझा जाता है।

(4) निष्पादन परीक्षण (Perjormance Test) – इस विधि का प्रयोग हार्टशोर्न (भ्वतजेीवतदम) एवं मेय (डंल) ने ईमानदारी का गुण मापने हेतु किया है। यह व्यक्तित्व विभिन्नताओं के मापन हेतु एक व्यावहारिक विधि है। इस विधि द्वारा यह परीक्षण किया जाता है, कि व्यक्ति जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में किस प्रकार का कार्य या व्यवहार करता है। इस विधि को ’व्यवहार परीक्षण विधि’ भी कहते हैं।

(5) परिस्थिति परीक्षण (Situation Test) – यह विधि निष्पादन विधि के समान ही है, अंतर केवल इतना है कि इसमें किसी कृत्रिम परिस्थिति में व्यक्ति या बालक को रखकर उसका परीक्षण किया जाता है। इसकी कृत्रिमता का उसे पता नहीं चलने दिया जाता है।

3. मनोविश्लेषणात्मक विधियाँ

(1) मुक्त साहचर्य परीक्षण (Free Association Test) – इस विधि के प्रवत्र्तक फ्रायड थे। इस विधि का प्रयोग सामान्यतः मानसिक रोगियों के लिए किया जाता है। इसमें मनोचिकित्सक व्यक्ति को सम्मोहित कर अर्द्धचेतन अवस्था में लाकर प्रश्न पूछता है, जिससे अन्तर्मन में छिपी इच्छाएँ व भावना ग्रंथियाँ प्रकट होती है। इसके आधार पर उसके मनोरोगों का पता लगाया जाता है।

(2) स्वप्न विश्लेषण (Dream Analysis) – इस विधि में व्यक्ति को अपनो स्वप्नों का वर्णन करने के लिए कहा जाता है। स्वप्न-विश्लेषण के आधार पर अतृप्त इच्छाओं अथवा इच्छापूर्ति में बाधक तत्त्वों का पता लगाकर उनका निराकरण किया जाता है। इस विधि से उसके कुसमायोजन को भी सही दिशा दी जा सकती है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य –

  • प्रतिकारक (विशेषक) सिद्धान्त के प्रतिपादक R.B. कैटल थे।
  • अपराधी बालकों के उपचार की सर्वोत्तम विधि – व्यक्ति इतिहास विधि है।
  • व्यवहार परीक्षण विधि के प्रतिपादक मे (May) एवं हार्टशार्न थे।
  • फ्रायड ने मन की तीन दशाएँ बताई हैं- चेतन, अर्द्धचेतन, और अचेतन।
  • कैटल ने भावुक और विचारों की स्पष्टता वाले व्यक्ति को ’चक्रविक्षिप्त’ कहा है।
  • सांवेेगिक स्थिरतायुक्त व्यक्तित्व सर्वोत्तम माना जाता है।

(ब) प्रक्षेपण विधियाँ (Projective Methods) –

जिस विधि में छात्र के समक्ष ऐसी उत्तेजक परिस्थिति पैदा की जाती है, जिसमें वह स्वयं के विचारों, भावनाओं, अनुभूतियों और संवेगों को दूसरों में देखता है और अपने अचेतन में इकट्ठी हुई बातों को बताता है, प्रक्षेपण विधि कही जाती है। प्रमुख प्रक्षेपण विधियाँ निम्नलिखित हैं-

1. रोर्शा स्याही-धब्बा परीक्षण (Rorschach Ink-Blot Method) –

यह सर्वाधिक प्रयोग किया जाने वाला व्यक्तित्व-परीक्षण है। इसका प्रवत्र्तन स्विट्जरलैण्ड के मनोरोग चिकित्सक हरमन रोर्शा ने 1921 में किया। इसमें स्याही के धब्बों वाले 10 कार्डों का प्रयोग किया जाता है। इनमें से 5 काले, 2 काले व लाल और 3 अनेक रंगों के होते हैं। एक-एक करके ये कार्ड परीक्षार्थी को दिखाए जाते हैं। परीक्षार्थी इन धब्बों को देखकर जो प्रतिक्रिया करता है, परीक्षक उन्हें चाटों पर अंकित कर लेता है, फिर चार्टों की सहायता से विश्लेषण किया जाता है।

2. प्रासंगिक अन्तर्बोध परीक्षण (Thematic Apperc-eptionmTest) –

इस परीक्षण का निर्माण मोर्गन एवं मुरे ने 1925 में किया था। इसमें स्त्री-पुरुषों के 30 चित्र होते हैं। इनमें 10 चित्र पुरुषों के लिए, 10 स्त्रियों के लिए और 10 दोनों के लिए है। परीक्षार्थी को एक-एक करके 10 कार्ड दिखाकर, चित्र के सम्बन्ध में कोई कहानी सुनाने को कहा जाता है। वह स्वयं को पात्र मानकर अपनी ही समस्याओं, विचारों, भावनाओं को व्यक्त कर देता है। इससे उसकी समस्याओं का पता लगाकर, निर्देशन दिया जाता है। यह वयस्कों के लिए उपयोगी है। इसे T.A.T परीक्षण भी कहते हैं।

3. बाल अन्तर्बोध परीक्षण (Children Apperception Test) –

इस परीक्षण का निर्माण लियोपोल्ड बैलक ने 1948 में किया। यह 3 से 11 वर्ष के बच्चों के लिए है। यह परीक्षण T.A.T जैसा ही है। इसमें चित्र मानवों के न होकर जानवरों के होते हैं। इनके माध्यम से बच्चों के परिवार, सफाई, प्रशिक्षण आदि से सम्बन्धित समस्याओं एवं आदतों का पता लगता है। भारत में इस परीक्षण का संशोधन कोलकाता की उमा चौधरी ने किया।

4. वाक्य या कहानी पूर्ति परीक्षण Sentence or story Completion Test) –

इस विधि के प्रवत्र्तक पाइने व टेण्टलर है। इस विधि में छात्र को कुछ अधूरे वाक्य पूरे करने के लिए दिए जाते हैं। इससे उसके व्यक्तित्व का पता लगाया जाता है। यह लिखित विधि केवल शिक्षित लोगों के लिए उपयोगी है।

5. खेल व नाटक विधि (Play & Drama Method) –

 

इस विधि में बालकों को पूर्व नियोजित खेल व नाटकों में स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेने के लिए कहा जाता है। खेल व नाटक के पात्रों की भूमिका करते समय बालकों के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण प्रकट होते हैं।

  • प्रसंगात्मक बोध परीक्षण ( T.A.T ) के निर्माणकर्ता माॅगर्न व मुरे थे।
  • व्यक्तित्व के निर्माण की शुरूआत परिवार से होती है।
  • समाज बालक के व्यक्तित्व का निर्माण पूर्ण करता है।
  • फ्रायड ने व्यक्तित्व के तीन अंग माने हैं – इदम्, अहम्, सुपर अहम्।
  • प्रश्नावली विधि के प्रथम प्रयोगकर्ता वुडवर्थ थे।

अधिगम क्या है 

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