असहयोग आंदोलन – कारण, उद्देश्य, परिणाम || Asahyog Andolan -1920

आज के आर्टिकल में हम असहयोग आंदोलन (Asahyog Andolan) के बारे में विस्तार से पढेंगे। इस आन्दोलन से जुड़ा हर एक तथ्य को पढेंगे।

असहयोग आंदोलन – Asahyog Andolan,1920-22 ई.

Table of Contents

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प्रारंभ सितम्बर 1920 ई.
नेतृत्वकर्तामहात्मा गांधी
लक्ष्यस्वराज की प्राप्ति।
उद्देश्य अंग्रेजी सरकार के साथ सहयोग न करके कार्रवाई में बाधा उपस्थित करना।
आंदोलन के समय वायसरायलार्ड चेम्सफोर्ड
कारणजलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, रौलेट एक्ट
चौरी-चौरा कांड की घटना5 फरवरी, 1922
आन्दोलन की वापसी12 फरवरी 1922

असहयोग आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा चलाया जाने वाला प्रथम जन आंदोलन था। इस आंदोलन का व्यापक जन आधार था। प्रारम्भ में तो गांधीजी ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने के पक्ष में थे। क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों से यह वादा किया था कि प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् उन्हें स्वराज्य दे दिया जायेगा। लेकिन युद्ध के समाप्त के पश्चात् भरतीयों को स्वराज्य देने के बजाय भारतीयों पर अत्याचार प्रारम्भ कर दिये गये, इसी कारण गांधीजी ने अंग्रेजों को सहयोग न देने अर्थात् असहयोग आन्दोलन शुरू करने का निर्णय लिया।

गांधीजी ने राॅलेट एक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में और अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ तथा खिलाफत आन्दोलन के समर्थन में 1 अगस्त, 1920 ई. को असहयोग आन्दोलन की शुरूआत की। यह अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे अन्यायपूर्ण कानूनों और कार्यों के विरोध में देशव्यापी अहिंसक आंदोलन था। इस आंदोलन का उद्देश्य स्वराज की प्राप्ति थी। महात्मा गांधी ने कहा कि ’’यदि यह आंदोलन सफल रहा तो भारत के एक वर्ष के भीतर स्वराज/स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है।”

असहयोग आंदोलन के कारण – Asahyog Andolan ke Karan

Asahyog Andolan ke Karan

(1) प्रथम विश्वयुद्ध का परिणाम –

प्रथम विश्वयुद्ध काल में मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की कि – वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए युद्ध लङ रहे हैं एवं आत्मनिर्णय के सिद्धान्त को स्वीकार करते है। युद्धोपरांत कई पराधीन राष्ट्रों में आत्मनिर्णय के आधार पर लोकतांत्रिक सरकारों का गठन किया गया। परिणामस्वरूप भारतीय जनता भी स्वाधीनता के स्वप्न देखने लगी एवं निराशा हाथ लगी। परन्तु इन घटनाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नवीन दिशा दी।

(2) युद्ध काल में भर्ती एवं छटनी –

युद्धकाल में शुरूआती दौर में जितनी तेजी से एवं जोर जबरदस्ती से सैनिक भर्ती की गयी युद्धोपरांत उतनी तीव्रता से ही छटनी का कार्य सम्पन्न किया गया जिससे बहुत से लोग बेरोजगार हो गये।

(3) युद्धोत्तर भारत में असन्तोष –

प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार को भारतीय जनता ने पूरा सहयोग दिया था। भारतीय सैनिकों के योगदान के कारण ही प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों विजय हुई थी। भारतीयों को यह विश्वास था कि युद्ध के समाप्त होेने के बाद ब्रिटेन भारत को दिये गये वचनों का पालन करेगा, उनको स्वशासन दिलायेगा। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने भारत के स्वशासन के नाम पर ’माॅण्टफोर्ड सुधार’ ही किये, जिससे भारतीयों में असन्तोष फैल गया।

(4) माॅण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों से असन्तोष –

भारतीय जनता की स्वराज्य की मांग को संतुष्ट करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ’माॅण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड’ सुधार किये, लेकिन वे विफल रहें। ब्रिटिश सरकार ने 1919 के अधिनियम द्वारा जो सुधार लागू किये वह जनकाक्षांओं के अनुकूल उत्तरदायी शासन नहीं दे सके। प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने भारत को उत्तरदायी शासन देने का वचन दिया था, परन्तु इस योजना के द्वारा तो सिक्खों को भी मुसलमानों के समान पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया गया। जिस वजह से जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति असन्तोष फैल गया।

(5) जनता में निराशा व असंतोष का माहौल –

ब्रिटिश सरकार के द्वारा युद्ध-व्यय के रूप में बलपूर्वक भारी मात्रा में धन की उगाही की गयी। मुद्रास्फीति के कारण आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में असाधारण वृद्धि के कारण जनता का प्रत्येक वर्ग आर्थिक कष्ट से गुजर रहा था और इस स्थिति के लिये ब्रिटिश सरकार को उत्तरदायी माना जा रहा था।

(6) रौलट एक्ट –

18 मार्च 1919 को एक अधिनियम पारित किया गया जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर मनमाने समय तक नजरबंद रखा जा सकता था। भारत में सभी वर्गों एवं समुदायों द्वारा इसका विरोध किया गया। मोतीलाल नेहरू के शब्दों में रौलट एक्ट ने अपील, वकील और दलील की व्यवस्था का अन्त कर दिया।

(7) जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड –

रौलट एक्ट तथा सरकार के सत्याग्रहियों के विरुद्ध चलाये जो रहे दमनचक्र के विरोध हेतु 13 अप्रेल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा हुई। इस सभा में सैनिक शासन के प्रमुख जनरल डायर के द्वारा अंधाधुंध गोली चलायी गयी। जिसमें न्यूनतम 800 व्यक्ति मारे गये तथा 2000 घायल हुये। इस काण्ड ने ऐसे असंतोष को जन्म दिया जो असहयोग आंदोलन के रूप में प्रकट हुआ।

(8) हंटर कमेटी की अन्यायपूर्ण रिपोर्ट –

जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड की जाँच हेतु बनी कमेटी ने जनरल डायर को दोषी ठहराने के बजाय ’कर्तव्य से सत्यनिष्ठ, लेकिन गलत धारणा पर आधारित’ घोषित कर अप्रत्यक्षतः इस कुकृत्य का समर्थन किया। इससे भारतीय जनमानस को असहनीय ठेस पहुँची।

(9) खिलाफत आन्दोलन –

विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने भारत के मुस्लिमों को टर्की के सुल्तान की स्थिति बनाये रखने के संबंध में कुछ आश्वासन दिये लेकिन युद्ध के बाद ब्रिटेन ने सेवर्स की संधि द्वारा टर्की सुल्तान के अधिकार छीन लिये एवं भारतीय मुसलमान टर्की के सुल्तान को इस्लाम का खलीफा मानते थे, अतः ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हो गये। तब महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया गया।

असहयोग प्रस्ताव –

1 अगस्त, 1920 के दिन जब तिलक का निधन हुआ तो तिलक फण्ड बनाया गया तथा असहयोग आंदोलन शुरु करने की औपचारिक घोषणा की। 20 अगस्त, 1920 को गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरूआत की। केसर-ए-हिन्द का पद गवर्नर जनरल के पास भिजवा दिया। सितम्बर, 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कांग्रेस कलकत्ता अधिवेशन हुआ जिसमें स्वराज एवं बहिष्कार जैसे प्रस्ताव रखे गए। लेकिन देशबन्धु चितरंजनदास व मोतीलाल नेहरू ने इसका विरोध किया, विशेषकर विधानसभा के बहिष्कार का।

सितम्बर, 1920 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन (लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में) मुख्य मुद्दा जलियांवाला काण्ड और खिलाफत था। कांग्रेस ने पहली बार भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध सीधी कार्यवाही करने, विधान परिषदों का बहिष्कार करने तथा असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया। असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव के लेखक गांधीजी थे। गांधीजी ने स्वयं असहयोग का प्रस्ताव पेश किया। इसका बङा विरोध हुआ। खासकर चितरंजन दास, विपिन चन्द्र पाल, ऐनी बेसेंट, मोहम्मद अली जिन्ना और मालवीय जी ने इसका विरोध किया। लेकिन गांधीजी ने मोतीलाल नेहरू और अली बंधुओं के समर्थन से यह प्रस्ताव पास करवा लिया।

5 नवंबर, 1920 को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू होने के एक वर्ष के भीतर ’स्वराज’ दिलाने का वायदा किया। 26 दिसम्बर, 1920 के नागपुर अधिवेशन में सी.आर.दास द्वारा असहयोग का प्रस्ताव रखा गया, जिसे स्वीकार कर लिया गया।

दिसम्बर, 1920 ई. में नागपुर में कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में सितम्बर, 1920 ई. में कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में पारित हुये असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव की पुष्टि कर दी। असहयोग का प्रस्ताव भी सी.आर.दास. ने रखा। नागपुर अधिवेशन में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया गया कि कांग्रेस ने अब ’ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन’ का लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आवेदन व अपील के अलावा कर न देने की सीधी कार्यवाही करने पर भी जोर दिया। कांग्रेस की नीति में आये परिवर्तन के विरोध में एनीबेसेन्ट, जिन्ना, विपिन चन्द्रपाल, एन. चन्द्रावकर और शंकर नायर ने कांग्रेस छोङ दी।

असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम –

असहयोग आंदोलन के प्रमुख कार्यक्रम निम्न है –

  • सरकारी स्कूलों, काॅलेजों तथा कचहरियों का बहिष्कार करना, सरकारी उपाधियों तथा मानद पदों को वापस करना।
  • विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करना और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और उसका प्रचार करना। चरखों द्वारा निर्मित स्वदेशी वस्त्रों का प्रचार करना। हाथ से कताई तथा बुनाई को प्रोत्साहित करना।
  • सरकारी दरबारों, स्वागत समारोहों व सरकारी अफसरों के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में भाग न लें।
  • इस कार्यकाल को सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने तथा सविनय अवज्ञा तक भी बढ़ाया जा सकता था।
  •  इसमें करों की अदायगी से इनकार करना। रचनात्मक कार्यक्रम पर जोर दिया गया था।
  • सरकारी अदालतों का बहिष्कार करना और झगङों को निपटाने के लिए पंचायतों की स्थापना करना, गाँवों में कांग्रेस कमेटियों की स्थापना करना।
  • सरकारी तथा सरकार के सहायता पाने वाले स्कूलों का बहिष्कार करना और राष्ट्रीय स्कूलों और काॅलेजों की स्थापना।
  • हर सप्ताह या महीने मेलों का आयोजन करना।
  • शराबबंदी तथा हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित करना।
  • अस्पृश्यता का उन्मूलन करना।

आंदोलन को अहिंसा का पालन कङाई से करना था।
गाँधीजी ने यह विश्वास दिलाया कि अगर इन सभी कार्यक्रमों को पूरी तरह लागू किया गया तो एक वर्ष के भीतर स्वराज मिल जाएगा। इस प्रकार नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस सांवधानिक सामूहिक कार्रवाई की सीमाओं से बाहर निकलकर जन कार्रवाई के कार्यक्रम के प्रति वचनबद्ध हुई।
कांग्रेस का लक्ष्य सांविधानिक तथा वैधानिक तरीकों से स्वशासन की प्राप्ति से बदलकर अब शांतिपूर्ण और वैध तरीकोें से ’स्वराज’ प्राप्त करना हो गया था।

कांग्रेस का नया संविधान गांधीजी ने तैयार किया था। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अब कांग्रेस में 15 सदस्यों की एक कार्यकारी समिति (वर्किग कमेटी) बनाई गई। इसका काम रोजमर्रा के कार्यों की देखभाल करना था। गाँधीजी यह जानते थे कि कांग्रेस किसी का गठन अब भाषा के आधार पर किया जाना था ताकि स्थानीय भाषा का प्रयोग करके वे वहां के लोगों से संपर्क रख सकें। ग्राम और मोहल्ला अथवा वार्ड समितियाँ गठित करके कांग्रेस संगठन को गाँवों-मोहल्लों तक पहुचंना था। गरीब लोग भी कांग्रेस के सदस्य बन सकें। इसलिए सदस्य शुल्क घटाकर 4 आने प्रति वर्ष का कर दिया गया। जन सामान्य की सामूहिक भागीदारी भी कांग्रेस के लिए नियमित आय का स्रोत बनी। अली बंधुओं के साथ गाँधीजी ने पूरे देश का दौरा किया।

इस आंदोलन में बहिष्कार आंदोलन सबसे लोकप्रिय एवं सफल कार्यक्रम रहा। गांधीजी ने ’केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि वापस कर दी। जमना लाल बजाज ने अपनी ’राय बहादुर’ की उपाधि वापस कर दी। बहुत से वकीलों ने अपनी वकालत छोङ दी। इसमें बंगाल के देशबन्धु चितरंजन दास, उत्तरप्रदेश के मोतीलाल नेहरू एवं जवाहर लाल नेहरू, गुजरात के विट्ठल भाई पटेल एवं बल्लभ भाई पटेल, बिहार के राजेन्द्र प्रसाद, मद्रास के चक्रवर्ती राजगोपालचारी एवं दिल्ली की अरुणा आसफ अली सम्मिलित थी।

बहिष्कार में सर्वाधिक लोकप्रिय बहिष्कार विदेशी वस्त्रों का रहा। 1921 में विजयवाङा अधिवेशन में खादी को कांग्रेस का प्रतीक बना दिया गया। मार्च, 1921 में विजयवाङा कांग्रेस सम्मेलन में ’तिलक स्वराज फंड’ के लिए करोङ रुपये का चन्दा इकट्ठा करने का लक्ष्य रखा गया। चरखे को प्रसिद्ध किया गया व खादी राष्ट्रीय आंदोलन की वेशभूषा बनाई गई। मदुरै में किसी कार्यकर्ता ने गाँधीजी से खादी के महंगी होने की शिकायत की तो गांधीजी ने कम वस्त्र पहनने की सलाह दी तथा खुद भी जीवन भर मात्र लंगोटी में रहे। 1920-21 में विदेशी वस्त्रों का आयात मूल्य 102 करोङ रु. था। लेकिन 1921-22 में यह घटकर 57 करोङ रु. रह गया।

पंजाब में लाजपत राय ने इसे सफल बनाने की कोशिश की। लेकिन मद्रास में इसे सफलता नहीं मिली। वकालत का बहिष्कार भी लोकप्रिय रहा। देशबंधु चितंरजन दास, मोतीलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सो. राजगोपालाचार्य, टी.प्रकाशम, अरूणा आसफ अली, जवाहर लाल नेहरू जैसे बङे वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार कर दिया। सबसे पहले देश बंधु चितरंजन दास व उनकी पत्नी बसंती देवी को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया।

राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार में इस बात पर बल दिया गया कि विद्यार्थी को राष्ट्रवादी विचारधारा तथा आर्थिक कार्यक्रमों के विभिन्न पहलुओं के बारे में पूरी तरह से शिक्षित किया जाए। इन कार्यक्रमों में ’चरखा तथा ’खद्दर’ का प्रचार भी शामिल था। इसके साथ-साथ सरकारी स्कूलों तथा काॅलेजों का बहिष्कार रचनात्मक कार्यक्रम के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पक्षों में से एक हो गया था। शिक्षा का बहिष्कार बंगाल में सफल रहा। स्वदेशी के तहत काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, राष्ट्रीय काॅलेज लाहौर, जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे अनेक राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की। सुभाष चन्द्र बोस कलकत्ता में नेशनल काॅलेज के प्रिंसीपल बने।

कांग्रेस का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सदस्यों की भर्ती के लिए ग्राम कांग्रेस कमेटियों की स्थापना करना था। लगभग सभी महत्त्वपूर्ण गाँव कांग्रेस में शामिल हो गए। दरअसल कांग्रेस कमेटियाँ कांग्रेस सदस्यों को राजनीतिक प्रशिक्षण देने के केंद्र थी। गहन राजनीतिक प्रशिक्षण देने के बाद स्वयंसेवकों को राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रसार का काम सौंपा जाता था। काफी बङी संख्या में प्रचारक संगठनों के माध्यम से कांग्रेस गाँवों में पहुंच गई थी।

कर अदा न करने पर बहिष्कार पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर तथा आंध्र के गुटूंर, जिले में चिराला-पिराला एवं पेङानेडीपाडू में अधिक लोकप्रिय रहा। आंध्रप्रदेश, राजस्थान व पंजाब में वन कानूनों का उल्लंघन किया गया।

स्वदेशी के सिद्धांत में चखें और खद्दर का समन्वय हो गया था। इससे प्रभावित होकर की पूंजीपति (बङे व्यापारी) तथा बुनकर भी राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम में शामिल हो गए। व्यापारी वर्ग ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया। इसके पीछे एक स्वाभाविक कारण यह था कि इस कार्यक्रम के चलते व्यापारियों के समक्ष पूँजी लगाने के लिए एक सुरक्षित आधार तैयार हो गया था। किंतु बङे व्यवसायियों के एक काफी बङे तबके का रुख अभी भी शत्रुतापूर्ण बना रहा। पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, जमनादास, द्वारकादास, कावसजी जहांगीर, फिरोज सेठना तथा सीतलवाङ आदि ने 1920 में ’असहयोग विरोधी संस्था’ की स्थापना की।

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आंदोलन का एक और कार्यक्रम देश के कई हिस्सों में काफी लोकप्रिय हुआ। यह कार्यक्रम था: ताङी की दुकानों के सामने धरना देना। यह कार्यक्रम आंदोलन की मूल योजना में शामिल नहीं था। इस कार्यक्रम के चलते ताङी से होने वाली सरकारी आय में भारी कमी आई। असहयोग के अधिकांश कार्यक्रम शहरों में ही कारगर साबित हुए।

ग्राम पंचायतों, कांग्रेस कमेटियों और खद्दर तथा चर्खा के प्रचार आदि जैसे कुछ रचनात्मक कार्यक्रमों का प्रभाव गाँवों में भी पङा। ग्रामीण किसान लगातार ’लगानबंदी’ वाला आंदोलन शुरू करने के लिए जोर डाल रहे थे। कांग्रेस ने प्रांतीय कमेटियों को इस बात की अनुमति दे रही थी कि वे अपने यहां सामूहिक सविनय अवज्ञा की मंजूरी दे सकते हैं, बशर्त वहां के लोग इसके लिए तैयार हो।

असहयोग आंदोलन के अप्रत्यक्ष परिणाम भी दिखाई पङे। संयुक्त प्रति के अवध क्षेत्र में 1918 से पहले किसान सभा और किसान आंदोलन शक्तिशाली हो रहे थे, वहीं दूसरे क्षेत्रों में जवाहरलाल नेहरू असहयोग आंदोलन चला रहे थे। अवध के दक्षिण तथा दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व में किसान विद्रोह का संबंध बाबा रामचंद्र से था। उत्तर पश्चिम में कुछ स्थानीय कांग्रेसियों ने अवध एकता आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का नेतृत्व मदारी पासी ने अपने हाथ में ले लिया। यहां मुख्य मांग थी कि लगान का भुगतान नगद हो। पुलिस ने मदारी पासी को गिरफ्तार कर लिया।

विद्रोह की प्रेरणा सबसे पहले अप्रैल 1920 में मालाबार जिले के मंजेरी में हुई कांग्रेस की काॅन्फ्रेंस से मिली। इस काॅन्फ्रेन्स ने काश्तकारों के हितों का समर्थन किया तथा जमींदारों और काश्तकारों के संबंधों को नियमित करने के लिए कानून बनाने की मांग की। खिलाफत आंदोलन के प्रभाव से भी यह आंदोलन तेज हो रहा था।

इस विद्रोह का सामाजिक आधार मुख्य रूप से मोप्पिला काश्तकार थे। 18 फरवरी को खिलाफत तथा कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके परिणामस्वरूप विद्रोह का नेतृत्व स्थानीय मोप्पिला नेताओं के हाथ में चला गया। 20 अगस्त, 1921 को पुलिस ने हथियारों की खोज के उद्देश्य से तिर्रुगदी मसजिद पर छापा मारा।

ब्रिटिश सरकार द्वारा मार्शल लाॅ घोषित कर देने पर पूरी तरह दमन शुरू हो गया। इसके बाद विद्रोह के स्वरूप में स्पष्ट रूप से एक परिवर्तन आया। कई हिंदुओं ने मजबूर किए जाने पर और कुछ ने स्वयं ही आंदोलन को दबाने में सरकारी अधिकारियों की मदद की। इसने ऐसे निरक्षर मोप्पिलाओं में पहले से ही मौजूद हिंदू-विरोधी भावनाओं को और मजबूत किया। ये मोप्पिला बहरहाल तीव्र धार्मिक भावनाओं से प्रेरित थे। सरकार तथा जमींदार विरोधी विद्रोह ने उग्र सांप्रदायिक रूप धारण कर लिया।

सबसे महत्त्वपूर्ण घटना सुर्मा घाटी के चाय-बगान में हुई। यहां मई, 1921 को चारगोला में कुलियों ने ’गांधी महाराज की जय’ के नारों के साथ वेतन में भारी वृद्धि की मांग की। इसके परिणामस्वरूप लगभग 8,000 कुलियों को निकाल दिया गया। असम में चाय बागान के मजदूरों ने हङताल करके असहयोग को बढ़ाया दिया।

असहयोग आंदोलन में गिरफ्तार होने वाले पहले प्रमुख नेता मुहम्मद अली थे। नवम्बर, 1921 ई. में ’प्रिंस ऑफ़ वेल्स’ के भारत आगमन पर उनका स्वागत काले झण्डे दिखाकर किया गया। गांधीजी ने अली बन्धुओं की रिहाई न किए जाने के कारण प्रिंस ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन का बहिष्कार किया।

इससे क्रुद्ध होकर सरकार ने कठोर दमन की नीति का सहारा लिया, परिणामस्वरूप स्थान-स्थान पर लाठी चार्ज, मार-पीट, गोलीकांड सामान्य बात हो गई और करीब 60,000 लोगों को इस अवधि में बन्दी बनाया गया। सिख बहुल केंद्रीय पंजाब के देहात वाले इलाके में यह आंदोलन व्यापक रूप से फैल गया। शुरु में अकाली आंदोलन एक स्वतंत्र, धार्मिक सुधार आंदोलन था। लेकिन कुछ समय के लिए यह असहयोग आंदोलन से घनिष्ठ रूप से जुङ गया था।

अकाली सिखों के धार्मिक स्थलों (गुरुद्वारों) पर से भ्रष्ट व्यापारियों के नियंत्रण को हटाने के लिए लङ रहे थे। 20 फरवरी, 1921 की नानकाना त्रासदी (नानकाना साहब की दुःखद घटना) के बाद तनाव बहुत बढ़ गया था। इसमें महंतों ने लगभग सौ अकालियों की हत्या कर दी। कुछ कारणों से सिखों को यह शंका थी कि महंतों को इसके लिए प्रेरणा लाहौर डिवीजन के कमिश्नर से मिली।

नवंबर, 1921 को अंग्रेजों ने स्वर्ण मंदिर के खजाने की चाभी सिखों को सौंपने सेे इनकार कर दिया। यहीं अंग्रेजों और अकालियों के बीच विरोध का प्रत्यक्ष कारण बना। संयोगवश इस समय असहयोग आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था। इसी कारण अंग्रेजों ने जनवरी, 1922 के मध्य छोङे गए कैदियों के हाथ में खजाने की चाभी सौंप दी।

अकाली आंदोलन का नेतृत्व अधिकृत तौर पर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी कर रही थी और यह पूरी तरह अहिंसक तरीकों का पालन करती थी किंतु मार्च 1921 में जालंधर तथा होशियारपुर में किशन सिंह तथा मोटा सिंह के नेतृत्व में एक भिन्न मत वाला बबर अकाली दल अस्तित्व में आया। इस दल ने लगान न अदा करने वाले आंदोलन शुरू करने और अंततः राजभक्तों तथा साहूकारों के विरुद्ध आतंकवादी तरीके अपनाने की मांग की। अकाली संघर्ष नवंबर 1925 के गुरुद्वारों और तीर्थस्थलों (मंदिरों) संबंधी अधिनियम के द्वारा गुरुद्वारों पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के नियंत्रण कायम होने तक चलता रहा।

1922 तक आते-आते आंदोलन मध्यम वर्ग से खिसक कर निम्न वर्ग तक पहुंच गया, जिन्हें गांधीवादी कार्यक्रमों की बजाय अंगे्रजी शासन की समाप्ति एवं गांधीजी के राज्य की वापसी की अधिक चिंता हो रही थीं। गांव-गांव में नारे लगाए गए कि फिरंगियों का शासन समाप्त होने वाला है और गांधीराज आने वाला है। जबकि गांधी बार-बार कह रहे थे कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला, ये लोग गांधीजी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। अर्थात् गांधी के हाथ से आंदोलन का नेतृत्व निकला जा रहा था।

दूसरी ओर गांधीजी ने 1 वर्ष के भीतर स्वराज देने की बात कही थी, लेकिन आंदोलन को एक वर्ष से अधिक का समय हो गया था। जन जीवन की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। सरकार का रवैया दमनात्मक हो गया था। धीरे-धीरे मुसलमान इस आंदोलन से हटते गए और इसने सांप्रदायिकता का रूप धारण किया। जिसकी परिणति मालाबार के मोपला विद्रोह में दिखाई दी। ऐसी परिस्थितियों में गांधीजी आंदोलन को वापस लेना चाहते थे तथा इस संदर्भ में तेजी से सोचने लगे।

कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ता से लेकर नेता तक गांधीजी पर इस बात के लिए दबाव डाल रहे थे कि आंदोलन का अगला चरण यानी सामूहिक सविनय अवज्ञा शुरू किया जाए। मध्य जनवरी, 1922 में हुए सर्वदलीय सम्मेलन और गांधीजी द्वारा वायसराय से की गई अपील पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया।

वायसराय ने इस मसले पर कोई कार्रवाई नहीं की। अतः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के अतिरिक्त गांधीजी के सामने कोई दूसरा रास्ता ही नहीं रह गया था। गांधीजी ने यह घोषणा की कि सामूहिक सविनय अवज्ञा की शुरुआत सूरत जिले के बारदोली ताल्लुके से की जाएगी। यह तय किया गया कि बारदोली में लगानबंदी वाला आंदोलन शुरू करने से पहले छह महीने तक इंतजार किया जाएगा।

चौरी-चौरा कांड

5 फरवरी, 1922 के दिन संयुक्त प्रांत के गोरखपुर जिले की चौरी-चौरा पुलिस चैकी को उग्र भीङ ने जला दिया, जिसमें 20-22 पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई। इसी बात को आधार बनाकर गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।

असहयोग वापस लेने पर नेताओं का विचार

12 फरवरी, 1922 को बारदोली में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में असहयोग आंदोलन को समाप्त करने का निर्णय लिया गया व आंदोलन समाप्त हो गया। गाँधीजी ने कांग्रेसजनों से यह आग्रह किया कि वे चरखे को लोकप्रिय बनाने, राष्ट्रीय विद्यालय चलाने, छुआछूत मिटाने तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित करने जैसे रचनात्मक कार्य करें। इस समय आंदोलन चरम पर था अतः इसे वापिस लेने के निर्णय से देश में भारी निराशा फैली।

मोतीलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, सी.आर.दास, सी. राजगोपालाचारी, अली बन्धु, जवाहर लाल आदि ने गांधीजी के निर्णय की आलोचना की। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि ’’जिस समय जनता का उत्साह अपने चरम पर था उस समय पीछे हट जाने का आदेश देना राष्ट्रीय अनर्थ से कम नहीं था।’’ गाँधीजी ने अपने निर्णय के बारे में यंग इंडिया में लिखा कि ’’आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यंत्रणा पूर्ण तिरस्कार यहां तक कि मौत भी सहने को तैयार हूँ।’’

आंदोलन की समाप्ति के बाद गांधीजी की स्थिति कमजोर हुई तथा सरकार ने 10 मार्च, 1922 ई. को गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया। न्यायाधीश ब्रूम फील्ड ने गाँधीजी को अंसतोष भङकाने के आरोप में 6 वर्ष की सजा दी। गाँधी जी को मार्च, 1922 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर जांच की कार्रवाही की अध्यक्षता करने वाले अज जस्टिस सी.एन.ब्रूमूफील्ड ने उन्हें सजा सुनाते समय एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया। जज ने टिप्पणी की कि, ’’इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैंने आज तक जिनकी जांच की है अथवा करूंगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि आपके लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं। यहां तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदर्शों और पवित्र जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। चूँकि गांधी जी ने कानून की अवहेलना की थी अतः उस न्याय पीठ के लिए गांधी जी को 6 वर्षों की जेल की सजा सुनाया जाना आवश्यक था।

लेकिन जज ब्रूमफील्ड ने कहा कि ’यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सजा के इन वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज्यादा कोई प्रसन्न नहीं होगा।’’ सरकार ने 5 फरवरी, 1924 ई. को गाँधीजी को खराब स्वास्थ्य के कारण रिहा कर दिया। गाँधीजी ने दिल्ली में मौलाना मुहम्मद अली के घर सितम्बर, 1924 में साम्प्रदायिक दंगों के प्रायश्चित के लिए 21 दिनों का उपवास किया। असहयोग आंदोलन पहला अखिल भारतीय जन आंदोलन था। पहली बार राष्ट्रीय आंदोलन गाँवों की आम जनता तक पहुँचा। असहयोग आंदोलन की मुख्य उपलब्धि यह थी कि इससे लोगों के मन से अंग्रेजों का भय निकल गया।

महात्मा गांधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फिशर ने लिखा है कि ’असहयोग भारत और गांधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किंतु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की नींव हिल गई।

असहयोग आन्दोलन के परिणाम – Asahyog Andolan ke Parinam

  • जनता में चेतना एवं निर्भाीकता का संचार हुआ।
  • इस आंदोलन में सबकी भागीदारी सुनिश्चित हुई।
  • गांधीजी की गिरफ्तारी हो गयी।
  • यह पहला ऐसा आंदोलन था जिसने भारतीय जनता को अपने पैरों पर खङा होना सिखाया।
  • खिलाफत के मुद्दा का अंत हो गया।
  • स्वदेशी को बढ़ावा दिया गया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया।
  • रचनात्मक कार्य से सामाजिक विषमता की कम हुई।
  • हिंदू-मुस्लिम एकता भंग हो गई।

असहयोग आंदोलन के सकारात्मक परिणाम –

असहयोग आंदोलन के सकारात्मक परिणाम इस प्रकार दर्शाए गए हैं –

  • नेताजी सुभाषचंद्र बोस के मतानुसार, ’’असहयोग आंदोलन ने कांग्रेस को एकमात्र प्रस्ताव पास करने वाली पार्टी से एक क्रांतिकारी संगठन बना दिया। कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का पर्याय बन गई। असहयोग आंदोलन में देश की जनता ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस आंदोलन ने भारत की आम जनता को राष्ट्रीय आंदोलन से जोङ दिया, जिसने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई ऊर्जा, गति व उत्साह प्रदान किया।
  • अंग्रेजी भाषा की महत्त्वपूर्ण जाती रही और उसके स्थान पर कांग्रेस नेे हिंदी को सारे देश के लिए लोक व्यवहार की भाषा स्वीकार किया। खादी को प्रोत्साहन मिला। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए खादी स्वीकृत पोशाक बन गई।
  • असहयोग आंदोलन से जनता का आत्मविश्वास बढ़ा, अब वह ब्रिटिश सरकार की ताकत से नहीं डरती थी। जेलों का डर जाता रहा और वे देश की मुक्ति का तीर्थ बन गई।

असहयोग आंदोलन के नकारात्मक परिणाम

असहयोग आंदोलन स्थगित करने के परिणाम हैं। किसी भी आंदोलन के सदैव दो पक्ष होते हें। असहयोग आंदोलन के भी कुछ नकारात्मक परिणाम थे, जो कि निम्न है –

  • महात्मा गांधी के एकाएक असहयोग आंदोलन स्थगित करने से देश में असंतोष उत्पन्न हो गया। गांधीजी के विरोधियों ने उन्हें असफल घोषित किया।
  • असहयोग आंदोलन स्थगित होने से हिंदू-मुस्लिम एकता भी समाप्त हो गई और देश में सांप्रदायिक दंगे प्रारंभ होने लगे।
  • आंदोलन स्थगित होने के पश्चात् गाँधीजी को जेल भेज दिया गया, जिससे देश के समक्ष नेतृत्व का संकट उत्पन्न हो गया।
  • वर्ष 1928 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय उपनिवेश की स्थितियों की जाँच करने के लिए कुछ श्वेत सदस्यों वाले साइमन कमीशन को भेजा गया, जिसका अखिल भारतीय स्तर पर विरोध किया गया। इस प्रकार के विरोध और बारदोली के किसान सत्याग्रह में गाँधीजी ने प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया।
  • दिसंबर, 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में नेहरू को अध्यक्ष बनाकर पहली बार युवा वर्ग को नेतृत्व सौंपा गया तथा पूर्ण स्वराज अथवा पूर्ण स्वतंत्रता की उद्घोषणा की गई। विभिन्न स्थानों पर 26 फरवरी, 1930 के दिन राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया तथा देशभक्ति का गीत गाकर ’स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया।

निष्कर्ष

आज के आर्टिकल में हमनें असहयोग आन्दोलन (Asahyog Andolan) के बारे में विस्तार से पढ़ा। हम आशा करतें है कि आपको यह जानकारी अच्छी लगी होगी। ..धन्यवाद

FAQ

1. किसने 1920 के नागपुर के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में असहयोग के प्रस्ताव को प्रस्तावित किया गया ?

उत्तर – सी. आर. दास ने


2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहला असहयोेग आंदोलन किस वर्ष में शुरू किया था ?

उत्तर – 1920


3. महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया प्रथम जन आंदोलन था ?

उत्तर – असहयोग आंदोलन


4. ’एक वर्ष में स्वराज’ का नारा गांधीजी ने कब दिया ?

उत्तर – असहयोग आंदोलन के समय


5. ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी को जो उपाधि दी थी और जिसे उन्होंने असहयोग आंदोलन में वापस कर दिया, वह थी ?

उत्तर – केसर-ए-हिंद


6. असहयोग आंदोलन के दौरान किसने अपनी वकालत छोङ दी थी ?

उत्तर – चितरंजन दास


7. चौरी-चौरा कांड कब हुआ था ?

उत्तर – 5 फरवरी 1922


8. किस घटना के कारण गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया था ?

उत्तर – चौरी-चौरा कांड


9. चौरी-चौरा की घटना के समय महात्मा गांधी कहां थे ?

उत्तर – बारदोली में


10. असहयोग आंदोलन के दौरान कौनसी संस्थाएं स्थापित की गई ?

उत्तर – काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, जामिया मिलिया


11. 1921-22 के असहयोग आन्दोलन का मुख्य प्रतिफल था ?

उत्तर – हिन्दू-मुस्लिम एकता


12. किस दमनकारी ब्रिटिश कानून के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया गया था ?

उत्तर – रोलेट एक्ट


13. असहयोग आंदोलन को किस वर्ष वापिस ले लिया गया था ?

उत्तर – वर्ष 1922 में

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