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राजस्थान के लोक वाद्य – Rajasthan G.K.

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:16th Aug, 2020| Comments: 0

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आज के आर्टिकल में हम राजस्थान सामान्य ज्ञान के अंतर्गत राजस्थान के लोक वाद्य का टॉपिक अच्छे से तैयार करेंगे ।

राजस्थान के लोक वाद्य

Table of Contents

  • राजस्थान के लोक वाद्य
    • (अ) तत् वाद्य
    • (ब) सुषिर वाद्य
    • (स) अवनद्ध वाद्य-
    • (द) घन वाद्य
    • आदिवासियों के लोक वाद्य

लोक वाद्य, लोक संगीत के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में प्रयुक्त होकर लोकगीतों व नृत्यों के माधुर्य में वृद्धि करते हैं, फलस्वरूप भाव अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया जाना सम्भव होता है।

राजस्थान में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख लोक वाद्य निम्न हैं-

(अ) तत् वाद्य

⇒ इस श्रेणी में वे सभी वाद्य यंत्र शामिल हैं, जिनमें तार लगे होते हैं-

(1) रावण हत्था

ravanhtth

⇒ इस वाद्य यंत्र को आधे कटे नारियल की कटोरी पर खाल मढ़ कर बनाया जाता है।
⇔ इसकी डांड बांस की होती है, जिसमें खूंटिया लगा दी जाती हैं और नौ तार बाँध दिये जाते हैं। इन बालों से बने तारों पर गज चलाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
⇒ रावण हत्थे की गज धनुष के समान होती है तथा इस पर घोङे के बाल व घुंघरु बंधे होते हैं।
⇔ इस वाद्य का प्रयोग पाबूजी, डूँगजी-जँवार जी के भोपे कथाएँ गाते समय करते हैं।
⇒ भीलों के भोपे पाबूजी की फङ बाँचते समय रावण हत्थे का प्रयोग करते हैं।

(2) सारंगी

sarngi

⇔ सारंगी तून, सागवान, कैर या रोहिङे की लकङी से बनाई जाती है। इसमें कुल 27 तार होते हैं तथा ऊपर की तांते बकरे की आँतों से बनाई जाती हैं।
⇒ इसका वादन घोङे की पूँछ के बालों से निर्मित गज से किया जाता है।
⇔ राजस्थान में दो तरह की सांरगियाँ प्रचलित हैं- सिन्धी सारंगी व गुजरातण सारंगी।
⇒ सारंगी जैसलमेर और बाङमेर के लंगा जाति के गायकों तथा मारवाङ के जोगियों द्वारा गोपीचन्द, भरथरी, निहालदे आदि के ख्याल गाते समय प्रयुक्त की जाती है।

(3) इकतारा

EKtara

⇔ इकतारा, छोटे से गोल तुम्बे में बाँस की डंडी फँसाकर बनाया जाता है। तुम्बे का छोटा-सा हिस्सा काटकर उसे बकरे के चमङे से मढ़ दिया जाता है। तुम्बे पर बाँस की दो खूँटियाँ लगी होती हैं और ऊपर-नीचे दो तार बंधे होते हैं।
⇒ इकतारा एक ही हाथ से पकङ कर बजाया जाता है और दूसरे हाथ से करताल बजाई जाती है।
⇔ इकतारा नाथ, कालबेलियों और साधु-संन्यासियों द्वारा बजाया जाता है।

(4) जन्तर

⇒ वीणा की आकृति से मिलते इस वाद्य यंत्र में दो तुम्बे होते हैं।
⇔ इसकी डाँड बाँस की होती है जिस पर मगर की खाल से बने 22 पर्दे मोम से चिपकाये जाते हैं। परदों के ऊपर पाँच या छः तार लगे होते हैं।
⇒ इस वाद्य यंत्र का प्रयोग बगङावतों की कथा गाते समय गूजरों के भोपे गले में लटकाकर करते हैं।

(5) भपंग

⇔ यह लम्बी आल के तुम्बे से बना वाद्य है, जिसकी लम्बाई डेढ़ बालिश्त और चैङाई दस अँगुल होती है।
⇒ तुम्बे के नीचे का भाग खाल से मढ़ दिया जाता है जबकि ऊपर का हिस्सा खाली छोङ दिया जाता है।
⇔ भपंग अलवर क्षेत्र के जोगी प्रमुखतया बजाते हैं।

(6) कामायचा

⇒ यह सारंगी के समान वाद्य है जिसकी तबली गोल व लगभग डेढ़ फुट चैङी होती है। तबली पर चमङा मढ़ा रहता है।
⇔ कामायचा को बजाने की गज में 27 तार लगे होते हैं।
⇒ कामायचा जैसलमेर, बाङमेर क्षेत्र में माँगणियार जाति के लोग बजाते है।

(7) रवाज

⇒ यह सारंगी के सदृश वाद्य है जिसे नखों से बजाया जाता है। इसमें तारों की संख्या 12 होती है।
⇔ रवाज वाद्य मेवाङ के राव व भाट जाति के लोग बजाते हैं।
⇒ अन्य तत् वाद्य हैं तंदूरा, चिकारा, गूजरी, सुरिंदा, दुकाको व सुरमंडल।

(ब) सुषिर वाद्य

⇔ इस श्रेणी में वे वाद्य यंत्र शामिल हैं जो फूंक से बजाये जाते हैं। प्रमुख सुषिर वाद्य निम्न हैं-

(1) अलगोजा-
⇒ यह बाँसुरी के समान बाँस की नली से बना वाद्य होता है। इसमें नली के ऊपरी मुख को छीलकर उस पर लकङी का गट्टा चिपका दिया जाता है जिससे आवाज निकलती है।
⇔ वादक प्रायः दो अलगोजे एक साथ मुँह में रखकर बजाता है।
⇒ राजस्थान में अलगोजा आदिवासी भील व कालबेलिया जाति का प्रिय वाद्य है।

(2) पूंगी

pungi

⇔ घीया या तुम्बे से बने इस वाद्य की तुम्बी का पतला भाग लगभग डेढ़ बालित लम्बा होता है तथा नीचे का हिस्सा गोलकार होता है।
⇒ पूंगी प्रायः सपेरा जाति यथा कालबेलिया व जोगी बजाते हैं।

(3) सतारा
⇔ यह अलगोजे, बाँसुरी और शहनाई का समन्वित रूप है। इसमें अलगोजे के समान दो लम्बी नलियाँ तथा बांसुरी के समान छः छेद होते हैं।
⇒ इस वाद्य की सबसे बङी विशेषता यह है कि किसी भी इच्छित छेद को बन्द कराके आवश्यकतानुसार सप्तक में परिवर्तन किया जा सकता है।
⇔ सतारा जैसलमेर व बाङमेर क्षेत्र में गडरिया, मेघवाल और मुस्लिम जाति के गायक बजाते हैं।

(4) मोरचंग

morchang

⇔ लोहे से बने इस वाद्य को होठों के बीच में रखकर बजाया जाता है।
⇒ मोरचंग में एक गोलाकार हैण्डिल से दो छोटी और लम्बी छङें निकली होती हैं, इनके बीच में पतले लोहे की लम्बी राॅड रहती है जिसके मुँह पर थोङा-सा घुमाव दे दिया जाता है।
⇔ अन्य सुषिर वाद्य हैं बांसुरी, शहनाई, सुरनाई, सींगी, करणा, तुरही, नङ, भूँगल, बांकिया व मशक।

(स) अवनद्ध वाद्य-

⇒ इस श्रेणी में चमङे से मङे हुये ताल वाद्य होते हैं-

(1) चंग
⇔ यह होली पर बजाया जाने वाले प्रमुख ताल वाद्य है।
⇒ चंग का गोला छोटा लकङी से बना हुआ होता है और इसके एक तरफ बकरे की खाल मढ़ दी जाती है।
⇔ इसे वादक कन्धे पर रखकर बजाता है। इसका दूसरा नाम ढप भी है।

(2) खंजरी
⇒ खंजरी आम की लकङी से बना वाद्य है जिसे एक ओर खाल से मढ़ा जाता है।
⇔ खंजरी को दाहिने हाथ में पकङकर बायें हाथ से बजाया जाता है।
⇒ राजस्थान में कामङ, बलाई, भील, नाथ और कालबेलिया जाति के लोग खंजरी बजाते हैं।

(3) डैरूं
⇒ यह आम की लकङी से बना वाद्य है जिसके दोनों तरफ चमङा मढ़ दिया जाता है।
⇔ इसके बीच के हिस्से को दाहिने हाथ से पकङते हैं और रस्सी को खींचने पर आवाज उत्पन्न होती है।
⇒ भोपे, भील और गोगाजी के पुजारी इसे बजाते समय इसके साथ काँसे का कटोरा भी बजाते हैं।

(4) मांदल
⇒ यह मृदंग के सदृश होता है तथा मिट्टी से बनाया जाता है।
⇔ इसका एक मुँह छोटा व दूसरा बङा होता है। इस को मढ़ी हुई खाल पर जौ का आटा चिपकाकर बनाया जाता है। इसके साथ थाली भी बजाई जाती है।
⇒ इसे शिव-गौरी का वाद्य यन्त्र माना जाता है।
⇔ अन्य अवनद्य वाद्य हैं धौंसा, माठ, कमर, कुंडी, ढाक, डफ, घेरा, दमामा (टामक), ढोल, नौबत, नगाङा व मृदंग (पखावज)।

(द) घन वाद्य

⇒ इस श्रेणी में वे सभी वाद्य शामिल होते हैं जो धातु के बने होते हैं:

(1) मंजीरा

mnjira

⇔ यह पीतल और काँसे की मिश्रित धातु का गोलाकार वाद्य होता है। इनके मध्य भाग में छेद कर दो मंजीरों को रस्सी से बाँध दिया जाता है।
⇒ तेरहताली नृत्य में मंजीरें प्रमुख वाद्य यंत्र हैं।

(2) खङताल
⇔इस वाद्य यंत्र में दो लकङी के टुकङों के बीच में पीतल की छोटी-छोटी गोल तश्तरियाँ लगी रहती हैं जो कि लकङी के टुकङों को परस्पर टकराने से बजती हैं।
⇒ खङताल को इकतारे के साथ बजाया जाता है।

(3) झांझ
⇔ यह मंजीरे का विशाल रूप है, इसका व्यास लगभग एक फुट होता है।
⇒ शेखावाटी क्षेत्र के कच्छी घोङी नृत्य में झांझ को ताशें के साथ बजाया जाता है।
⇔ राजस्थान में ’खङताल के जादूगर’ के रूप में सद्दीक खाँ प्रसिद्ध है।

आदिवासियों के लोक वाद्य

तारपी-
⇒ तारपी वाद्ययंत्र का निर्माण बङे आकार की लौकी से किया जाता है। सूखी लौकी के नीचे के भाग में छेद कर अन्दर का गूदा निकाल कर उसे साफ किया जाता है। उसके बाद लौकी के मध्य भाग में छेद किया जाता है। लौकी के नीचे के छेद में बांस से निर्मित दो नलियां, जिनमें बांसुरी की तरह छेद होते हैं। मोम से चिपका दिए जाते हैं। इन दोनों स्वर नलियों के अग्रभाग पर मोम से गाय का एक सींग चिपका दिया जाता है जो अंदर से खोखला होता है। इसके मध्य वाले छेद में मोम की सहायता से ही प्लास्टिक या लोहे से बनी एक और नलकी लगाई जाती है। इस नलकी में जब फूंक मारी जाती है तो सुरीले स्वर निकलने लगते हैं।
⇒ यह वाद्य यंत्र विवाह के अवसर पर बजाये जाते हैं।

पावरी-
⇒ पावरी वाद्य लगभग साढ़े तीन फीट लम्बे बांस से बना होता है। नवरात्रि एवं मालविया नृत्य के अवसर पर बजाये जाने वाले इस यंत्र में कुल सोलह छेद होते हैं। बीच के दो छेदों को मोम लगा कर बंद कर दिया जाता है। इसके बीच में चिपकी एक नलकी से फूंक मार कर उसे बजाया जाता है तो बांसुरी से मिलते-जुलते मधुर स्वर हवा में लहरने लगते हैं।

थालीसर-
⇒ पीतल की थाली से बनाया गया लोक वाद्य थालीसर कहलाता है। इसे बनाने के लिए थाली के बीचों-बीच मोम लगाकर उसमें बांस की एक छङ खङी की जाती है। इस छङ को वे अपने अंगूठे, तर्जनी और मध्य अंगलियों से ऊपर-नीचे की ओर संूतते हैं। इससे एक मधुर कंपन पैदा होता है।
⇔ आदिवासी लोग नवरात्रि में अपनी कुलदेवियों खान माता, कालिका माता, अम्बा माता, चतरसिंह भवानी तथा अन्य देवियों की प्रतिष्ठा कर यह वाद्य बजाते हुए प्रार्थना के रूप में भजन गाते हैं।
⇒ इसे मृतक के अन्तिम संस्कार के बाद भक्ति गीत के साथ बजाते हैं।

टापरा-
⇒ इस वाद्य यंत्र को बनाने के लिए एक ढाई फीट लंबे बांस की बीच में से चीर कर दो टुकङे कर लिए जाते हैं। एक टुकङे पर चिरे हुए हिस्से की ओर समान दूरी पर चाकू या आरी से कंगूरेनूमा निशान कर लिए जाते हैं। दूसरे टुकङे की झाङूनुमा चिराई कर दी जाती है। इसे बायङी कहते हैं। इस बायङी को कंगूरेदार बांस पर रगङने अलग-अलग तरह की आवाज निकलती है।
⇔ इस वाद्ययंत्र को सामान्यतया प्रेतबाधा निवारण और नवरात्रि के अवसर पर देवी स्तुति समय बजाया जाता है।

खोखरा और गोरिया –
⇒ खोखरा और गोरिया वाद्य यंत्र भी बांस की सहायता से बनाये जाते हैं। खोखरा वाद्य दो-ढाई फीट के टुकङे के बीच से एक दूसरे तक छोटी-छोटी फङ कर ली जाती है। इसे एक हाथ में पकङ कर जब दूसरे हाथ की हथेली से टकराते हैं। तो ध्वनि निकलती है।

 

राजस्थान के लोकगीत 

राजस्थान के रीति-रिवाज

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