राजस्थान के लोक नाट्य – Rajasthan ke Loknatay -GK

आज की पोस्ट में हम राजस्थान सामान्य ज्ञान के अंतर्गत राजस्थान के प्रमुख  लोक नाट्य (Rajasthan ke Loknatay)को विस्तार से पढेंगे ।

राजस्थान के लोक नाट्य (Rajasthan ke Loknatay)

⇒ राजस्थान में लोक नाट्यों की समृद्ध परम्परा रही है। यहाँ के ख्याल, तमाशे, नौटंकी, फङ, रम्मत, लीला, भवाई, गवरी आदि प्रमुख लोक नाट्य हैं। राजस्थान में आदिवासी संस्कृति ने लोक कलाओं तथा लोक नाट्यों की परम्परा के संरक्षण एवं संवर्धन में बहुत योगदान दिया है। राजस्थान के प्रमुख लोक नाट्य निम्न हैं-

(1) ख्याल

⇒ ख्याल राजस्थान के लोक नाट्य की सबसे लोकप्रिय विधा है, इसका प्रचलन 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हो चुका था।
⇔ ख्यालों की विषय-वस्तु किसी पौराणिक कथा या पुराख्यान से जुङी होती है।
⇒ राजस्थान के प्रमुख ख्यालों में कुचामनी ख्याल, शेखावाटी ख्याल, जयपुरी ख्याल, अली-बक्शी ख्याल, तुर्रा-कलंगी ख्याल, किशनगढ़ी ख्याल, नौटंकी ख्याल, मांची ख्याल तथा हाथरसी ख्याल प्रमुख हैं।

तुर्रा-कलंगी ख्याल का निर्माण शाहअली और तुकनगीर नामक व्यक्तियों द्वारा किया गया था।
कुचामणी ख्याल – इनके ख्याल हास्य एवं विनोद प्रधान थे। कुचामनी ख्याल की रचना लच्छीराम ने की है।
शेखावाटी ख्याल – चिङावा के नानूराम शेखावाटी ख्याल के प्रसिद्ध नाट्यकार थे। इन्होंने हीर-रांझा, हरिश्चन्द्र, भर्तृहरि आदि ख्याल की रचना की।
जयपुरी ख्याल – इसमें स्त्री पात्रों की भूमिकाएं स्त्रियां ही निभाती है। इनमें गुणीजन खाने के कलाकार भी भाग लेते रहे हैं।

(2) रम्मत

⇔ इस खेल नाटक का उद्भव 140 वर्ष पूर्व बीकानेर क्षेत्र में होली एवं सावन आदि के अवसर पर होने वाली लोक काव्य प्रतियोगिता से हुआ।
⇒ इस संगीत नाट्य को खेलने वाले पात्र खेलार कहलाते हैं।
⇔ रम्मत प्रारम्भ होने से पूर्व रम्मत के मुख्य कलाकार मंच पर आकर बैठ जाते हैं ताकि दर्शक उन्हें उनकी वेशभूषा और मेकअप में देख सकें।
⇒ रम्मत के संवाद विशेष गायकों द्वारा गाये जाते हैं जो मंच पर बैठे जाते हैं, और मुख्य चरित्र उन गायकों द्वारा गाये जाने वाले संवादों को नृत्य और अभिनय करते हुए स्वयं भी बोलते हैं।

⇔ रम्मत के मुख्य वाद्य नगाङा और ढोलक होते हैं। कोई रंगमंचीय साज-सज्जा नहीं होती, मंच का धरातल थोङा सा ऊँचा बनाया जाता है।
⇒ रम्मत के शुरू होने से पूर्व रामदेव जी का भजन गाया जाता है तथा इसके मुख्य गीतों का सम्बन्ध चैमासा, वर्षा ऋतु का वर्णन, लावणी एवं गणपति वन्दना से है।
⇔ हिङाऊ मेरी, अमरसिंह राठौङ, गोपीचन्द, भर्तृहरि, सतीसावित्री, हरिश्चन्द्र, पूरण भगत आदि की रम्मतें मुख्य रूप से खेली जाती हैं।
रम्मत – बीकानेर, जैसलमेर (डूंग जी तथा ज्वार जी की) फलौदी क्षेत्रों में रम्मत होती है।
⇔ मनीराम व्यास, तुलसीराम, फागू महाराज, सूआ महाराज आदि मुख्य रम्मत लेखक थे।

(3) तमाशा

⇒ राजस्थान में तमाशा लोक नाट्य सर्वप्रथम जयपुर राज्य में महाराजा प्रताप सिंह  के काल में शुरू हुआ।
⇔ जयपुर के भट्ट परिवारे के लोगों ने तमाशा थियेटर के रूप में जयपुरी ख्याल और ध्रुवपद गायकी का समावेश किया।
⇒ वासुदेव भट्ट ने गोपीचन्द तथा हीर रांझा तमाशा प्रारम्भ किया।
⇔ तमाशे के संवाद काव्यमय होते हैं तथा इसमें संगीत, नृत्य और गायन तीनों की प्रधानता है।
⇒ तमाशा खुले मंच पर होता है जिसे अखाङा कहते हैं।

(4) स्वाँग

⇒ स्वाँग राजस्थानी लोक नाट्य की महत्त्वपूर्ण विधा है जिसमें किसी लोकनायक, देवी-देवता, पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथानक की नकल में मेकअप कर वेशभूषा पहनी जाती है।
⇔ स्वाँग को रचने वाले व्यक्ति को बहरूपिया कहा जाता है।
⇒ मारवाङ की रावल जाति द्वारा चाचा-बोहरा, मियाँ-बीवी, जोगी-जोगन, बीकाजी आदि के स्वाँग रचे जाते हैं।
⇔ राजस्थान के जानकीलाल भांड बहरूपिया कला के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके है।

(5) फङ

⇒ फङ 30 फीट या 24 फीट लम्बे और 5 फीट चैङे कपङे पर अंकित किसी लोकदेवता अथवा लोकनायक का जीवन चरित्र होता है।
⇔ भोपा फङ को पढ़ते समय जन्तर अथवा रावण हत्था वाद्य बजाता है।
⇒ भीलवाङा के श्रीलाल जोशी ने मेघराज मुकुल की कविता ’सेनानी’ पर फङ बनायी है।

(6) नौटंकी

⇒ नौटंकी खेल का प्रदर्शन विवाह समारोह, मांगलिक अवसरों, मेलों और सामाजिक उत्सवों पर भरतपुर, करौली, धौलपुर, अलवर और गंगापुर क्षेत्र में किया जाता है।
⇔ इसमें मुख्यतया नक्कारे का प्रयोग होता है। साथ ही सारंगी, ढोलक, शहनाई का भी प्रयोग होता है।
⇒ भरतपुर तथा धौलपुर में नत्थाराम की मण्डली द्वारा नौटंकी का खेल दिखाया जाता है।
⇔ नौटंकी के नाटकों में रूप बसन्त, नकाबपोश, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, राजा भरथरी, लैला-मजनूं तथा भक्त पूरणमल प्रसिद्ध हैं।
⇒ नौटंकी व रामलीला राजस्थान के पूर्वी भाग में अधिक लोकप्रिय है।

(7) गवरी

⇒ गवरी मेवाङ में अरावली क्षेत्र के भीलों की एक नाट्य शैली है।
⇔ मानसून की अवधि समाप्ति के बाद अरावली क्षेत्रों में रहने वाले भील, प्रत्येक वर्ष 40 दिनों का गवरी समारोह उदयपुर शहर के आसपास के क्षेत्र में आकर सम्पन्न करते हैं।
⇒ जुलाई-अगस्त के महीनों में बुढ़िया देन की पूजा के अवसर पर गवरी सम्पन्न किया जाता है। यह सुबह से शाम तक प्रतिदिन चलता रहता है।
⇔ गवरी के मुख्य प्रसंगों में देवी अम्बङ, बादशाह की सवारी, भिन्यावङ, बनजारा, खाडलिया भूत तथा शेर-सूअर की लङाई प्रमुख है।
⇒ गवरी नृत्य का महानायक एक वृद्ध व्यक्ति होता है जिसे शिव का अवतार माना जाता है।

(8) भवाई

⇒ राजस्थान में भवाई के जन्मदाता बाघाजी थे। इसमें ढोलक, झांझ, सारंगी, के साथ मशाल का भी प्रयोग होता है।
⇔ राजस्थान में गुजरात की सीमा से सटे क्षेत्रों में भवाई नाटिका सगोजी और सगीजी के रूप में भोपा-भोपी द्वारा प्रस्तुत की जाती है।
⇒ भवाई करने वाले अपने यजमानों या संरक्षकों के पास प्रतिवर्ष जाते हैं, वहाँ उनका हार्दिक स्वागत होता है।
⇔ भवाई शैलीपर शान्ता गाँधी द्वारा लिखा गाया प्रमुख नाटक जस्मा ओडन है।

राजस्थान के प्रमुख संगीत ग्रंथ

संगीत ग्रन्थ रचयिता
1. शृंगार हारमहाराजा हम्मीर
2. राग कल्पद्रुमकृष्णानन्द व्यास
3. संगीत राजमहाराणा कुम्भा
4. अनूप संगीत विलास, अनूप संगीत रत्नाकर, अनूप संगीतांकुश, अनुराग सागर व मुरली प्रकाशभाव भट्ट
5. संगीत शास्त्रनत्थूराम सुन्दर जी शुक्ल
6. सुधा कलशयंति दयानन्द
7. राग रत्नाकरराधाकृष्ण
8. राधागोविन्द संगीतसारदेवर्षि भट्ट व्रजपाल
9. संगीत रत्नाकर व संगीतराग कल्पद्रुमहीरानन्द व्यास
10. स्वर सागरचाँद खाँ

(9) लीला

⇒ लीला की कथा पुराण या पौराणिक आख्यानों से ली जाती है। इसमें लोक-तत्त्व की प्रधानता होती है।

(10) गंधर्व नाट्य

⇔ गंधर्व पेशेवर नृत्यकार हैं। ये मारवाङ के निवासी है। इनके द्वारा संगीत नाट्य अंजन सुंदरी और मैना सुंदरी का प्रदर्शन किया जाता है। इनके विषय जैन धर्म से संबंधित होते हैं।

(11) रासलीला

⇒ इसका मंचन पौराणिक लोक कथाओं के आधार पर किया जाता है। रामलीला में पात्र को रासधारी कहा जाता है। इसमें कृष्ण की लीलाओं का मंचन होता है।

(12) दंगल नाट्य

⇒ इस नाट्य में दो दल होते हैं। लेकिन दल में लोगों की संख्या सैकङों में होती है। दल के लोग आमने-सामने खङे हो जाते हैं और किसी कथा या समसामयिक घटना को काव्य शैली में प्रस्तुत करते हैं।

(13) नुक्कङ नाटक

⇒ जब गांव या नगर के नुक्कङ या चैराहे पर नाट्य खेल तमाशा प्रस्तुत किए जाए उसे नुक्कङ नाटक कहते हैं। इन खेलों में कानागुजारी, बोहरी, सूरदास आदि की प्रमुखता रहती है। नुक्कङों पर बहुरूपियों के स्वांग, नटों के करतब, गबरी नाट्य आदि प्रदर्शित किया जाते हैं।

(14) सवारी नाटक

⇒ इसका प्रदर्शन धार्मिक व पौराणिक कथाओं पर आधारित होता है। इनमें काला गोरा, देव सांगोद का न्हाण, नृसिंह अवतार अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।

⇒ गलालैंग (राजस्थानी लोक गाथा) – बागङ का वीरकाव्य ’गलालैंग’ चौहान राजपूत गुलाल सिंह  के शौर्य का चित्रण करके लिखा गया है। गुलालसिंह को महाराणा राजसिंह के पुत्र महाराणा जयसिंह ने (शासनकाल 1680-98 ई. या 1737-1755 वि.) पच्चीस हजार का पट्टा और दो जागीरें दी थीं। चौहान वीर की बहन का विवाह डूंगरपुर महारावल रामसिंह (शासनकाल 1702-1730 ई.) के साथ हुआ था। महाराणा ने सरदारों के कहने से एक बार उसे देश निकाला दे दिया। तब यह स्वाभिमानी वीर डूंगरपुर आकर रहा।

बहनोई ने ससम्मान 12 हजार की जागीर दी। एक बार जब सभी सामंत डूंगरपुर आए हुए थे, कडाणा के परमार ने इनके बहनोई के पीठ ग्राम को लूट लिया। रावल ने परमार पर चढ़ाई करने की सोची। पांच-पान का बीङा फेरा, गुलालसिंह ने ही सर्वप्रथम बीङा उठाया। इसी समय चांदरवाङा ग्राम से गुलालसिंह चौहान के लिए टीका आ गया। रावल की आज्ञा से 9 दिन का अवकाश लेकर विवाहार्थ गया, किन्तु 15 दिन लग गए। अतः रावल रामसिंह उससे रुष्ट हो गए। युद्ध का नगाङा सुनकर यह वीर भी युद्ध में जा पहुंचा और विजय प्राप्ति की, किन्तु रणक्षेत्र में ही खेत रहा। गुलालसिंह की दोनों रानियां सती हो गई। ’वीरविनोद’ और डूंगरपुर की ख्यातों में भी इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख है।

⇒ बगङावत –

बगङावत लोकगाथा को ’राजस्थान का महाभारत’ कहा गया है। शृंगार और वीररस से ओतप्रोत यह एक विशाल लोक महाकाव्य है। भोपा लोग जन्तर वाद्ययंत्र पर जब इसे गाते हैं तो सुनने वाला अपना आपा भूल जाता है। इस कथा महाकाव्य की मुख्य नायिका जेल (जयमति) है। उसी के कारण महाभारत के युद्ध की यह लघु पुनरावृत्ति हुई। इस लोक गाथा में चैबीस बगङावत बंधुओं की वीरता, दान्यता एवं ऐश्वर्य का वर्णन है। चैपङ-पासा खेलना और मोहरें लुटाना इनका मुख्य कार्य था। प्रस्तुत लोकगाथा में कल्पना और इतिहास का अद्भुत सम्मिश्रण है।

अजमेर के राजा बीसलदेव चौहान के शासनकाल के समकालीन बगङावतों का समय 13 वीं सदी ही ठहरता है। बगङावत लोककाव्य भोपों की मान्यता के अनुसार 5-6 महीने गाए जाने पर पूर्ण होता है। भाषा, भाव आदि काव्य सौंदर्य के प्रत्येक लक्षण की दृष्टि से यह काव्य उत्तम कोटि का है।

राजस्थान को नक़्शे से पढ़ें 

⇔राजस्थान के लोकगीत 

राजस्थान के रीति-रिवाज

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Scroll to Top