राजस्थान के रीति-रिवाज – Rajasthan ke Reeti rivaj

आज की इस पोस्ट में हम राजस्थान के रीति-रिवाज और प्रथाओं(Rajasthan ke Reeti rivaj) के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे, जिससे हमें किसी भी तरह के प्रश्न में कठिनाई न हो।

राजस्थान के रीति-रिवाज – Rajasthan ke Reeti rivaj

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Rajasthan ke Reeti-rivaj
Rajasthan Ke Reeti-Rivaj

दोस्तो  प्रत्येक देश व जाति की उन्नति व अवनति बहुत कुछ उसके रीति-रिवाजों व उसकी प्रथाओं पर निर्भर करती है। रीति-रिवाजों से तात्पर्य उन कर्तव्यों और कार्यों से है, जिन्हें विशेष अवसरों पर परम्परा की दृष्टि से आवश्यक समझा जाता है। राजस्थान के रीति-रिवाजों में राजस्थानी संस्कृति का झांकी देखने को मिलती है। सैकङों वर्ष पुराने अच्छे व बुरे रीति-रिवाज राजस्थान को काफी हद तक राजस्थान ने ही बनाए रखा है। राजस्थान के रीति-रिवाज कमोवेश पूरे राज्य में आज भी प्रचलित है।

ग्रामीण अंचलो में अभी भी रीति-रिवाज पारम्परिक उत्साह एवं जोश से मनाये जाते है, जबकि शहरी क्षेत्रों में परिवर्तित भौतिक परिस्थितियों ने इन्हें काफी प्रभावित किया है। मुख्यतः राजस्थान के रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं को तीन रूपों में माना जाता है- जन्म सम्बन्धी रीति-रिवाज, वैवाहिक रस्में व रीति-रिवाज तथा गमी की रस्में।

जन्म सम्बन्धी रीति-रिवाज – Riti Riwaz

जन्म सम्बन्धी रीति-रिवाजों में मुख्यतः हिन्दू विधि से मनाये जाते वाले संस्कार निम्न है-

गर्भाधान – Grbhadhaan

नव विवाहिता स्त्री जब पहली बार गर्भवती होती है तो उसे परिवार के लिए शुभ माना जाता है। इस अवसर पर उत्सवों का आयोजन किया जाता है तथा स्त्रियाँ मांगलिक गीत गाती है। इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतोें में गर्भवती के शरीर में होने वाले (नौ महीनों) परिवर्तनों, उसके प्रत्येक मास में होने वाली इच्छाओं का बङा रोचक वर्णन होता है।

आठवां पूजन – Athvan pujan

गर्भवती के गर्भ के जब सात माह हो जाते है तो आठवें मास में बङा उत्सव मनाया जाता है, जिसे आठवां पूजन महोत्सव कहा जाता है। इस अवसर पर प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है तथा देवताओं की मनौती के लिए इष्ट देवी-देवता का मांगलिक पूजन किया जाता है।

जन्म – Janm

बच्चे के जन्म पर जन्म-घुट्टी परिवार की किसी बङी-बूढ़ी स्त्री से दिलाते है। यदि शिशु लङका होता है तो घर की बङी औरत काँसी की थाली बजाती है। ब्राह्मण से जन्म का ठीक समय मालूम कर उसके शुभ-अशुभ लक्षणों को ज्ञात किया जाता है। लङका होने पर उत्सव मनाया जाता है एवं मिठाई बाँटी जाती है तथा मंगलगीत गाये जाते है। पुत्र जन्मोत्सव को अत्यन्त हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है। बच्चे होने के बाद भी कई दिन तक गीत गाये जाते है।

नामकरण – Namkaran

बच्चे के जन्म के 11वें या 101वें दिन या दूसरे वर्ष के शुरू में जिस दिन हुआ हो, नाम रखते है। नामकरण संस्कार ज्यादातर पण्डित द्वारा ही करवाये जाने का ही रिवाज है। इस अवसर पर बच्चे के प्रति शुभकामनाएँ की जाती है तथा पारिवारिक इष्ट देवी-देवताओं का शुभ स्मरण किया जाता है।

पनघट पूजन – Panghat pujan

बच्चे के जन्म के कुछ दिनों पश्चात् पनघट पूजन या कुआँ पूजन की रस्म मनाई जाती है। इस अवसर पर घर-परिवार व मोहल्ले की औरतें एकत्रित होकर देवी-देवताओं के गीत गाती हुई जच्चा को पनघट की ओर पूजा कराने के लिए कुएं पर ले जाती है, जहाँ पर जल का पूजन किया जाता है। इस प्रथा को जलवा पूजन भी कहते है।

जडूला – Jadula

जब बालक दो या तीन वर्ष का हो जाता है तो उसके बाल उतरवाये जाते है, जिसे मुंडन संस्कार के नाम से जाना जाता है। इन बालों को परिवार के कुलदेव या कुलदेवी के स्थान पर बच्चे को ले जाकर उतराये जाने का रिवाज है। राजस्थान के कुछ स्थानों पर इस अवसर पर कर्ण-छेदन भी किया जाता है।

गोद लेना – God lena

राजस्थान में गोद लेने की प्रथा भी प्रचलित है। जब कसी दम्पत्ति के बच्चा पैदा नहीं होता है तो वह अपने परिवार के किसी लङके को या ही रक्त सम्बन्ध के निकटतम बालक को अपना लेते है, जिसे गोद लेने की रस्म से जाना जाता है। गोद लेने का मुख्य उद्देश्य वंश को चलाना होता है। गोद लेने वाले का हक पेट के बेटे के बराबर होता है।

विवाह संबंधी रीति-रिवाज – Riti Riwaz

राजस्थान में विवाह के अवसर पर रीति-रिवाजों तथा आडम्बरों की धूम-धाम होती है। विवाह के अवसर पर अनेक नेगचार सम्पन्न किये जाते है। ज्यादातर नेगचार आर्थिक और सामाजिक होते है। वैवाहिक रस्में मुख्यतः अग्र हैंः-

सगाई – Sagai

राजस्थान में आदिवासियों, जनजातियों को छोङकर सामान्यतः युवावस्था में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जाते है। ग्रामीण अंचलों में कम आयु में ही शादी कर डालते है। लङका व लङकी के परिजन किसी भाट, पुरोहित, चारण अथवा और किसी को बीच में रखकर सगाई या मंगनी तय करते है। इस प्रकार किसी को बीच में रखकर सगाई या मंगनी तय करते है। इस प्रकार किसी लङकी के लिए लङका रोकने की रस्म को सगाई के नाम से जाना जाता है। जब सगाई तय हो जाती है तो कन्या पक्ष अपनी सामथ्र्य के अनुसार लङके के घर रूपया व नारियल शगुन के रूप में भेजता है।

टीका – Teeka

शुभ घङी और शुभ मुहूर्त पर वर का पिता अपने परिजनों, सजातियों, पङोसियों को आमन्त्रित करता है। इस अवसर पर वधू पक्ष के लोग, वर के घर जाकर वर को चैकी पर बिठाकर वर तिलक करते है तथा अपनी सामथ्र्य के अनुसार नकदी, मिठाइयाँ और वस्त्र-आभूषण देते है।

लग्न पत्रिका – Lagan patrika

वर-वधू पक्ष द्वारा तय शुभ मुहूत्र्त पर कन्या पक्ष की ओर से रंग-बिरंगे कागज में पण्डित द्वारा लिखवाकर लग्न पत्रिका भिजवाई जाती है, जिसमें विवाह के शुभ मुहूत्र्त का उल्लेख होता है तथा श्रीफल होता है एवं तदनुसरा ही वर पक्ष वाले बारात बनाकर वधू के घर ब्याहने जाते है।

कुंकुम पत्रिका – Kumkum patrika

विवाह के लगभग एक सप्ताह या कुछ दिन पूर्व वर और कन्या के माता-पिता अपने सगे-सम्बन्धियों, मित्रों को विवाह के अवसर पर पधारने के लिए केसर और कुंकुम से सुसज्जित निमन्त्रण पत्र भेजते है, जिसमें वैवाहिक कार्यक्रम का तिथिवार उल्लेख होता है। सर्वप्रथम कुंकुम पत्रिका गणेशजी को न्योता देने हेतु दी जाती है।

बान बैठना – Baan baithna

लग्न पत्र पहुँचने के पश्चात् दोनों अपने-अपने घरों में वर व वधू को चैकी पर बिठाकर गेहूँ का आटा तथा घी और हल्दी घोलकर इसको बदन में मलते है, जिसको पीठी करना कहते है। सुहागिन स्त्रियाँ मांगलिक गीत गाती है। इस शुभ क्रिया को बान बैठना कहते है। इस दिन से वर-वधू के लाङ-चाव किये जाते है। बान बैठने के पश्चात् वर या वधू को मेहमान अपनी हैसियत के अनुसार रूपये देते है, जिसे बान देना कहते है। भाई-बन्धु व इष्ट मित्र वर या वधू को अपने घर निमन्त्रित कर उत्तमोत्तम भोजन भी कराते है और वापस बङे ही ठाट-बाट से उनके घर पहुँचा देते है, जिसे बनौरा (बिनौरी) भी कहते है।

विनायक पूजन – Vinaayak pujan

विवाह के एक या दो दिन पूर्व वर के घर गणेशजी का पूजन किया जाता है और जाकर सम्बन्धियों और पङोसियों को भोजन पर आमन्त्रित किया जाता है।

बरी पडला – Bari padla

वर के घर से वधू के घर को कपङा-आभूषण आदि तैयार कर ले जाने को बरी तथा मिष्ठान्न-मेवा आदि ले जाने को पङला कहते है। यह बरी व पङला विवाह तिथि को बारात के साथ ले जाता है। बरी में लाये गए वस्त्राभूषणों का वधू विवाह के समय धारण करती है।

कांकन-डोरडा – kaankn dorda

विवाह के दो दिन पूर्व तेल पूजन कर वर के दाहिने हाथ में कांकन-डोरा बांधते है। यह मोली को बाँट कर बनाया जाता है। एक सूखे फल में छेद कर वह मोली में पिरोया जाता है और एक मोरफली और लाख व लोहे के छल्ले मोली में बांध दिये जाते है। इस समय एक कांकन-डोरा वधू के लिए भेजा जाता है, जिसे वधू के हाथ में बांधा जाता है।

बिन्दोरी – Bindori

विवाह के पहले दिन वर की बिन्दोरी निकाली जाती है। उसे गाज-बाजे के साथ गाँव में घुमाया जाता है। वर के साथ मित्र एवं परिचित भी निकासी में सम्मिलित होते है। वह मंदिर जाकर देवताओं की पूजा करता है। इसके बाद उसे किसी मित्र या रिश्तेदार के यहाँ ठहराया जाता है। निकासी के बाद वर-वधू को लेकर ही वापस आने पर घर लौटता है। थाल में दीपक सजाकर वर-वधू की पूजा की जाती है।

मोड बांधना – Mod bandhna

विवाह के दिन सुहागिन स्त्रियाँ वर को नहला-धुलाकर वस्त्रादि से सुसज्जित कर कुलदेव के समक्ष चैकी पर बैठाकर पूजन कराती है तथा वर के सिर पर सुन्दर पगङी पर मुकुट बाँधा जाता है। इसी समय वर को उसकी माँ या घर की बङी-बूढ़ी औरत अपना दूध पिलाती है कि तूने मेरा दूध पिया है, अब तू पराये घर जाकर और वहाँ से वधू को लाकर मुझे भूल मत जाना।

बारात – Barat

पूर्व निर्धारित तिथि को सज-धज कर वर पक्ष्ज्ञ के लोग बारात बनाकर वधू पक्ष के घर जाते है। दूल्हा घोङी पर सवार होता है। बारात में हाथी, घोङे, बैण्ड, रथ, ऊँट आदि जाते है जो सजे हुए होते है। रोशनी व आतिशबाजी का भी आयोजन होता है।

सामेला – Samela

जब बारात दुल्हन के गाँव पहुँचती है तो वर पक्ष की तरफ से नाई या ब्राह्मण आगे जाकर कन्या पक्ष वालों का बारात के आगमन की सूचना देता है। सूचितकर्ता को पुरस्कारस्वरूप कन्या पक्ष की हैसियत के अनुसार नारियल व दक्षिणा देते है। तत्पश्चात् कन्या पक्ष वाले बन्धुओं व सम्बन्धियों सहित बारात ही अगवानी करते है जिसे सामेला या ठुकाव कहते है। वहाँ से बरी पङला में से आवश्यक सामान जो बाराती साथ में लाते है, वधू के घर पहुँचा देते है।

तोरण – Toran

कन्यागृह पर जब वर प्रथम बार पहुँचता है तो घर के दरवाजे पर बँधे तोरण को घोङी पर चढ़ा हुआ ही छङी तलवार से छूता है। तोरण मांगलिक चिन्ह होता है। तोरण विवाह की अनिवार्य रस्म में होता है।

वधू के तेल चढ़ाना – Vadhu ke tail chadhana

वधू के तेल उबटने लगाने का रिवाज बारात के घर आने पर भी होता है। तेल चढ़ाने की रस्म से आधा विवाह मान लिया जाता है। तेल चढ़ाये जाने के पश्चात् यदि मुहूत्र्त पर वर न पहुँच सके तो ऐसे वक्त में बङी कठिनाई पैदा हो जाती है और विवशता की स्थिति में उसका विवाह स्वजातीय अन्य युवक से करना पङता है। राजस्थान में इस अवसर पर प्रचलित कहावत है-तिरिया तेल हमीर हठ चढ़े न दूजी बार। इसलिए वर के आने के पश्चात् ही तेल चढ़ाया जाता है।

फेरे (सप्तपदी)

विवाह में यह प्रथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसी व्यवस्था द्वारा दो अनजान युवक-युवती आजन्म एक सूत्र में बँध कर जीवन-साथी बन जाते है। वर अपनी वधू का हाथ अपने हाथ में लेकर अग्नि के समक्ष सात प्रदक्षिणा कर जीवन-पर्यन्त साथ निभाने की प्रतिज्ञा करता है। फेरे पङने के बाद वर-वधू, पति-पत्नी का रूप धारण कर गृहस्थ बन जाते है।

कन्यादान – Kanyadaan

कन्यादान के दो रूप है- विवाह में वर को कन्या देेने की रसम तथा इस अवसर पर कन्या को दिया जाने वाला दान, फेरों की रस्म की समाप्ति पर कन्या के माता-पिता वेद-मन्त्रादि से कन्यादान कर संकल्प करते है। वर कन्या की जिम्मेदारी निभाने का वचन देता है तथा दो-तीन घंटे की इस रस्म के साथ विवाह की मुख्य क्रियायें समाप्त हो जाती है।

पहरावणी – Pahraavani

विवाह के पश्चात् दूसरे दिन बाराजत विादा की जाती है। विदा में वर सहित प्रत्येक बाराती को यथाशक्ति नकद राशि दी जाती है, जिसे पहरावणी या रंगबरी की रस्म कहा जाता है। आजकल बारात उसी दिन विदा होने लगी है।

कुलदेवता की पूजा – Kuldevta ki puja

वर-वधू के विवाह बंधन में बंध कर आने के उपरान्त सर्वप्रथम वर पक्ष के कुलदेवता की पूजा की जाती है तथा बारात के वापस लौटने से हार रुकाई की रस्म भी अदा की जाती है। वर-वधू की आरती उतारी जाती है। तत्पश्चात्वर अपनी बहिन को दक्षिणा के रूप में कुछ देकर ही घर में प्रवेश करता है। इस अवसर पर मांगलिक गीत गाये जाते है। कुलदेवता की पूजा करने के बाद पति-पत्नी के कांकन-डोरे खोले जाते है। इन क्रियाओं के बाद कन्या के भाई आदि कन्या को विदा करा कर पुनः पीहर ले जाते है।

गौना (आणा, मुकाबला)-

यदि वधू वयस्क होती है तो यह रस्म विवाह के अवसर पर ही सम्पन्न कर दी जाती है, अन्यथा उसके सयानी होने पर यह रस्म अदा की जाती है। इस रस्म के साथ ही पति-पत्नी के रूप में उनका सामाजिक जीवन प्रारम्भ होता है।

कोथला – Kothla

पुत्री के प्रथम जापा होने पर जवाई एवं उनके परिवार वालों को बुलाकर भेंट देना।

गमी (शोक) की रस्में

धार्मिक व सामाजिक परम्पराओं के अनुसार गमी की रस्में को भी पूर्ण सम्मान के साथ महत्व दिया जाकर दिवंगत की आत्मा के प्रति निष्ठा प्रकट की जाती है। गमी की मुख्य रस्में निम्न हैं-

बैकुण्ठी – Bekunthi

जब कोई मरता है तो उसे या तो साधारण काष्ठ शैय्या पर लिटाकर या छतरीदार सिंह जैसी लकङी का ढाँचा जिसे बैकुण्ठी के नाम से जाना जाता है, पर बैठाकर गाजे-बाजे के साथ चिराग जलाकर शमशान की भूमि में ले जाते है। वहाँ चिता बनाकर अन्त्येष्टि क्रिया नारियल, घी व चन्दन आदि वस्तुओं को जलाकर करते हैं। अग्नि की आहूति बेटा या नजदीकी भाई देता है जिसको लौपा कहते है।

बखेर – Bakher

राजस्थानी प्रथा के अनुसार किसी धनी या सम्पन्न व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर कोङियाँ, पैसे, रूपये आदि कलश के आगे चलने वाले मेहतर व भिखारियों को शमशान तक लुटाये जातेे है। इसी रस्म को बखेर करना कहते है।

दण्डोत – dandot

कहीं-कहीं पर बैकुण्ठी के आगे मृत व्यक्ति के पोते आदि साष्टांग दण्डवत् करते हुए आगे बढ़ते जाते है।

आधेटा – Aadheta

घर से शमशान तक के बीच में चैराहे पर बैकुण्ठी का दिशा-परिवर्तन किया जाता है। इस क्रिया को आधेटा कहते है। बैकुण्ठी ले जाने वाले व्यक्ति निकटतम संबंधी होते है, जिन्हें कांधिया कहते है। इसी समय जौ के आटे से बनाया हुआ पिण्ड गाय को खिलाया जाता है, इसे पिंडदान भी कहा जाता है। मृत व्यक्ति की अर्थी के आगे लोग भजन गाते हैं- श्रीराम नाम सत्य है, सत्य बोल गत्य (गति) है।

सांतरवाङा – Santrvada

अन्तिम संस्कार होने के बाद अन्त्येष्टि में गये व्यक्ति कुएँ या तालाब पर स्नान कर व्यक्ति के घर जाते है, जहाँ घर का मुखिया उन लोगों के प्रति आभार प्रदर्शित करता है एवं आगंतुक लोग उसे व उसके परिवार को धैर्य बंधाकर सान्त्वना देते है। जब तक मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया नहीं हो जाती है तब तक घर व पङोस में चूल्हें नहीं जलाये जाते है। इन रस्मों को सांतरवाङा कहते है।

फूल चयन – Fool chayan

मृत्यु के तीसरे दिन मृतक की हड्डियाँ, जो बिना जली होती है, दांत आदि को मृतक के सम्बन्धी शमशान से चुनकर एक कपङे की थैली में लपेटकर सुरक्षित रखते है। इसे फूल चुगना कहते है। उसी दिन उन हड्डियों को परिवार का कोई व्यक्ति सौरोंजी, हरिद्वार या पुष्कर आदि तीर्थ या नदी में बहाये जाने के लिए लेकर जाता है।

तीया – Teeya

मृत्यु के तीसरे दिन मूंग व चावल आदि पकाकर व घी-खाँड मिलाकर आस-पङोस के बच्चों को खिलाया जाता है। इसी दिन उठावने की बैठक अर्थात् सांतरवाङा भी किया जाता है। शमशान भूमि में घी खाँड में मले मूँग चावल को कौटों को खिलाने, परिजन को नंगे भी भेजा जाता है। इसे तीया की रस्म भी कहते है।

मौसर – Mosar

मृतक के बारहवें दिन ब्राह्मण से हवन कराकर गृह-शुद्धि कराई जाती है। इसी दिन या एक वर्ष पश्चात् मृतक की याद में स्वजातीय भाई-बन्धुओं को भोज दिया जाता है, जिसे मौसर या नुक्ता भी कहते है। भोजन के पश्चात् सभी घर वाले मन्दिर जाकर देव-दर्शन करते है।
पगङी- मौसर के दिन की मृत व्यक्ति के बङे पुत्र को उसके उत्तराधिकारी के प्रमाणस्वरूप पगङी बँधाई जाती है। पहली पगङी तो घर की तरफ से बाँधी जाती है, फिर भाई-बंधुओं, रिश्तेदारों की तरफ से बँधाई जाती है। पगङी की रस्म में रिश्तेदार नगद राशि भी देेते है।

राजस्थान के प्रमुख रीति-रिवाज व प्रथाएँ

सोलह संस्कार-

मानव शरीर को स्वस्थ तथा दीर्घायु और मन को शुद्ध और अच्छे संस्कारों वाला बनाने के लिए गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक निम्न सोलह संस्कार अनिवार्य माने गए है-

1. गर्भाधान- गर्भाधान के पूर्व उचित काल और आवश्यक धार्मिक क्रियाएँ।
2. पुंसवन- गर्भ में स्थित शिशु को पुत्र का रूप देेने के लिए देवताओं की स्तुति कर पुत्र प्राप्ति की याचना करना पुंसवन संस्कार कहलाता है।
3. सीमन्तोन्नयन- गर्भवती स्त्री को अमंगलकारी शक्तियों से बचाने के लिए किया गया संस्कार।
4. जातकर्म- बालक के जन्म पर किया जाने वाला संस्कार।
5. नामकरण- शिशु का नाम रखने के लिए जन्म के दसवें अथवा 12 वें दिन किया जाने वाला संस्कार।
6. निष्क्रमण- जन्म के चैथे मास में बालक को पहली बार घर से निकालकर सूर्य और चन्द्र दर्शन करना।

7. अन्नप्राशन-

जन्म के छठे मास में बालक को पहली बार अन्न का आहार देने की क्रिया।
8. चूङाकर्म या जङूला- शिशु के पहले या तीसरे वर्ष में सिर के बाल पहली बारी मुण्डवाने पर किया जाने वाला संस्कार। इसे जङूला उतारना भी कहते है।

9. कर्णवेध- शिशु के तीसरे एवं पाँचवें वर्ष में किया जाने वाला संस्कार, जिसमें शिशु के कान बींधे जाते है।
10. विद्यारम्भ- देवताओं की स्तुति कर गुरु के समक्ष बैठकर अक्षर ज्ञान कराने हेतु किया जाने वाला संस्कार।
11. उपनयन- इस संस्कार द्वारा बालक को शिक्षा के लिए गुरु के पास ले जाया जाता था। ब्रह्मचर्याश्रम इसी संस्कार से प्रारंभ होता है।
12. वेदारम्भ- वेदों को पठन-पाठन का अधिकार लेने हेतु किया गया संस्कार।

13. केशाना या गोदान-

सामान्यतः 15 वर्ष की आयु में किया जाने वाला संस्कार, जिसमें ब्रह्मचारी को अपने बाल कटवाने पङते थे। अब यह संस्कार विलुप्त हो चुका है।
14. समावर्तन- शिक्षा समाप्ति पर किया जाने वाला संस्कार, जिसमें विद्यार्थी अपने आचार्य को गुरु दक्षिणा देकर उसका आशीर्वाद ग्रहण करता था।
15. विवाह संस्कार- गृहस्थाश्रम में प्रवेश के अवसर पर किया जाने वाला संस्कार।
16. अंत्येष्टि- यह मृत्यु पर किया जाने वाला दाह संस्कार है।

राजस्थान की प्रमुख प्रथाएँ

बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, विधवा-विवाह निषेध होने की कुरीतियाँ राजस्थानी समाज में इतनी गहरी पैठ गई थी कि उनके शिंकजे से महिलाओं का निकलाना असम्भव था। विधवा विवाह आज भी कम संख्या में होते है। कई जातियों में तो स्त्रियाँ पति के मरने पर देवर के साथ शादी कर लेती है। बाल-विवाह की प्रथा शहरों में कम हो गई है किन्तु ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रचलित है। हिन्दू मुसलमानों में प्रतिवर्ष हजारोें की संख्या में बाल-विवाह होते है। पर्दा-प्रथा के प्रसार के साथ कम हो रही है। प्रमुख कुरीतियाँ निम्न है-

पर्दा प्रथा

राजस्थान में पर्दा-प्रथा का ज्यादा प्रचलन है। हिन्दुओं में उच्च वर्गों में ज्यादा है। राजपूतों में पर्दा-प्रथा अभी भी प्रचलित है। यह माना जाता है कि भारत में मुस्लिम शासन के पदार्पण के उपरान्त ही पर्दे का प्रचलन हुआ। राजस्थान में चूँकि मुस्लिम शासन का अत्यधिक प्रभाव रहा, अतः इस प्रथा का समावेश होना जरूरी था। स्त्रियाँ सामान्यतः ससुराल में ही अपने से बङे स्त्री-पुरुषों से पर्दा करती है।

वैधव्य प्रथा

पर्दा-प्रथा की स्थिति ने पति-भक्ति या पति-पूजा के रूप में समाज में जिस भयानक परम्परा का प्रतिपादन किया, वह था- अपने पति की मृत्यु के बाद उम्र भर वैधव्य जीवन व्यतीत करना। ऐसी औरत का पति की मृत्यु के बाद सामाजिक महत्व भी कम हो जाता था। विधवा-विवाह किसी विधवा का पुनर्विवाह होता है, जिसमें पति की मृत्यु के बाद वह किसी अन्य योग्य पुरुष से विधिवत् शादी कर उसके साथ जीवन निर्वाह करती है।

जबकि नाता जाने में यह आवश्यक नहीं कि पुनर्विवाह करने वाली विधवा ही हो। राजस्थान में विधवा को घर में बङी अपमानजनक परिस्थितियों में जीवन बिताना पङता है। घर में किस भी जन्म, विवाह आदि शुभ कार्यों पर उसकी उपस्थिति अच्छी नहीं समझी जाती है। उसको गहने पहनने या शृंगार करने की मनाही होती है। उसे काले या सफेद कपङे पहनने पङते है।

सती प्रथा(sati partha)

राजस्थान में सती-प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन राजपूत जाति में था। सती प्रथा की परम्परा मुस्लिम आक्रमणों के कारण आरम्भ हुई और राजपूत स्त्रियों ने अपनी मर्यादा, पवित्रता, पति-परायणता की रक्षा करने के लिए सती या जौहर करना आरम्भ कर दिया जो राजपूत स्त्रियों के पतिव्रत धर्म का अनिवार्य अंग बन गया। ब्रिटिश शासन के दौरान कानून बनाये जाने से सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगने से सती प्रथा समाप्त हुई। राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूँदी में सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। बाद में राजा मनमोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सरकारी अध्यादेश से इस प्रथा पर रोक लगाई। मोहम्मद तुगलक पहला शासक था जिसने सती प्रथा पर रोक हेतु आदेश जारी किए थे।

कन्या वध(kanya vadh)-

लार्ड विलियम बैटिंग ने 1829 ई. में कन्या वध पर कानून प्रतिबन्ध लगाया था। हाङौती के पाॅलिटिकल एजेंट विलकिंसन के प्रयासों से लार्ड विलियम बैंटिक के समय में राजस्थान में सर्वप्रथम कोटा राज्य में सन् 1833 में तथा बूँदी राज्य में 1834 में कन्या वध करने को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया।

डाकन प्रथा(dakan partha)-

राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों पर डाकन होने का आरोप लगाकर उन्हें डालने की कुप्रथा प्रचलित थी। इस प्रथा के कारण सैकङों स्त्रियों का डाकन होने का आरोप लगाकर निर्दयातापूर्वक मार डाला जाता था। सोलहवीं शताब्दी में राजपूत रियासतों ने कानून बनाकर इस कुप्रथा को समाप्त कर दिया। सर्वप्रथम अप्रैल, 1853 ई. में मेवाङ में महाराणा स्वरूप सिंह के समय में खैरवाङा (उदयपुर) में इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।

स्त्री क्रय-विक्रय तथा घरेलू दास-प्रथा-

उन्नीसवीं शताब्दी तक राजस्थान में स्त्रियों के क्रय-विक्रय की कुरीति प्रचलित थी। राजपूत जाति अपनी लङकी के विवाह में गोला-गोली दहेज में देते थे, इसलिए गोला-गोली की खरीद की जाती थी। साथ ही सामन्तगण, सम्पन्न लोग कन्याओं को अपने पास रखैल के रूप में रखने के लिए भी खरीदते थे। इसी प्रकार राजपूतों में घरेलू दास-प्रथा का बहुत प्रचलन था जो उन्नीसवीं सदी के अन्त तक जारी रहा। इस प्रकार के घरेलू दासों को गोला, दरोगा, चाकर, चेला, दास आदि नामों सम्बोधित किया जाता था, जबकि इनकी स्त्रियों को गोली, डांवरी, बाई आदि नामों से पुकारा जाता था। विलियम बैंटिक ने 1832 ई. में दास प्रथा पर रोक लगाई। राजस्थान में कोटा व बूंदी में भी 1832 ई. में इस प्रथा पर रोक लगाई गई।

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