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बिजोलिया किसान आंदोलन – Bijoliya Kisan Andolan

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:8th May, 2022| Comments: 0

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आज के आर्टिकल में हम राजस्थान में हुए बिजोलिया किसान आंदोलन(Bijoliya Kisan Andolan) के बारे में विस्तार से पढेंगे।

बिजोलिया किसान आंदोलन

बिजोलिया किसान आंदोलन – Bijoliya Kisan Andolan

Table of Contents

  • बिजोलिया किसान आंदोलन – Bijoliya Kisan Andolan
    • बिजोलिया किसान आंदोलन के कारण – Bijoliya kisan Andolan ke karan
      • (1) जागीरदार की दमनकारी नीति
      • (2) किसानों की दयनीय दशा
      • (3) राव किशनसिंह की अत्याचारपूर्ण नीति
      • (4) किसानों पर चंवरी कर लगाना
      • (5) पृथ्वीसिंह की कठोर एवं दमनकारी नीति
      • (6) किसानों पर युद्ध-कोष का भार लादना
    • बिजोलिया आंदोलन के चरण
      • प्रथम चरण (1897-1915 ई.)
    • द्वितीय चरण – (1915-1923)
      • विजयसिंह पथिक का जुङना
      • किसान पंचायत का गठन
      • पथिक जी का वर्धा जाना -1919 ई.
      • राजस्थान सेवा संघ के नेतृत्व में आंदोलन
    • तृतीय चरण (1923-1941)
      • जमनालाल बजाज का नेतृत्व
      • माणिक्यलाल वर्मा जी का पुनः नेतृत्व
    • बिजोलिया किसान आंदोलन के महत्त्वपूर्ण प्रश्न
प्रारम्भ1897 ई.
समाप्त1941 ई.
वर्ष44 वर्ष
स्थानराजस्थान राज्य के भीलवाङा जिले में
ठिकाने का संस्थापकअशोक परमार
चरणप्रथम चरण (1897-1916 ई.)
द्वितीय चरण (1916-1923 ई.)
तृतीय चरण (1923-1941 ई.)
नेतृत्वकर्तासाधु सीताराम दास, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज

भारत में एक संगठित किसान आंदोलन की शुरुआत का श्रेय मेवाङ के बिजोलिया क्षेत्र को जाता है। बिजोलिया मेवाङ राज्य का प्रथम श्रेणी का ठिकाना था। बिजोलिया ठिकाने का संस्थापक अशोक परमार था जो अपने मूल निवास स्थान जगनेर (भरतपुर) से राणा सांगा की सेवा में चित्तौङ आ गया था। वह राणा सांगा की ओर से 1527 ई. खानवा के युद्ध में लङा था। राणा ने उसे ’ऊपरमाल’ की जागीर प्रदान की। बिजोलिया उक्त जागीर का सदर मुकाम था।

बिजोलिया किसान आंदोलन के कारण – Bijoliya kisan Andolan ke karan

(1) जागीरदार की दमनकारी नीति

बिजोलिया के जागीरदार की दमनकारी नीति के कारण किसानों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। किसानों से मनमाने ढंग से लगान वसूल किया जाता था। जागीरदार और उसके कर्मचारी किसानों का शोषण करते थे। जागीर में कोई लिखित नियम नहीं थे। जागीरदार का आदेश ही कानून था। कृषकों को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे।

(2) किसानों की दयनीय दशा

बिजोलिया ठिकाने का क्षेत्रफल 100 वर्ग मील था जो 25 गाँवों में संगठित था। सन् 1921 में संपूर्ण ठिकाने की जनसंख्या 12 हजार थी। सन् 1931 में यहाँ की जनसंख्या 15 हजार थी, जिसमें 10 हजार किसान थे। किसानों की कुल जनसंख्या में से ’धाकङ जाति’ के किसानों की जनसंख्या 6 हजार थी, जो कुल किसान जनसंख्या का 60 प्रतिशत थी।

लाग-बागों की संख्या निश्चित नहीं थी। बिजोलिया के किसानों की दशा बङी दयनीय थी। किसानों से मनमाने ढंग से लगान वसूल किया जाता था। किसानों को अपनी उपज का आधा भाग लगान के रूप में चुकाना पङता था। लगान के अतिरिक्त उनसे विभिन्न प्रकार की लगानें वसूल की जाती थीं।

बिजोलिया के राव सवाई कृष्णसिंह के समय बिजोलिया की जनता से 84 प्रकार की लागतें ली जाती थी। सन् 1922 में लाग-बागों की संख्या 74 थी। भारी लगान और अनेक लागतों के भार के अलावा वहाँ की जनता से बैठ-बेगार भी ली जाती थी। बिजोलिया की जनता ठिकाने के अत्याचारों से तिलमिला उठी थी।

(3) राव किशनसिंह की अत्याचारपूर्ण नीति

1894 में राव किशनसिंह नया जागीरदार बना। उसकी दमनकारी एवं अत्याचारपूर्ण नीति से किसानों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। उसकी दमनकारी एवं अत्याचारपूर्ण नीति से किसानों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। उसने किसानों से उपज का आधा भाग तथा अनेक प्रकार की लागतें वसूल करना शुरू कर दिया। बढ़े हुए लगान तथा लागों को चुकाने के बाद किसानों के पास कुछ नहीं बचता था।

फलतः 1895 में किसानों ने जागीरदार द्वारा लगाई गई अतिरिक्त लगानों का विरोध किया। सन् 1897 में ऊपरमाल के धाकङ किसान ’गंगाराम धाकङ’ के मृत्युभोज के अवसर पर ’गिरधारीपुरा नामक ग्राम’ में एकत्रित हुए।

इस मौके पर किसानों ने निर्णय किया कि किसानों की ओर से बेरीसाल के नानजी पटेल और गोपाल निवास के ठाकरी पटेल उदयपुर जाकर ठिकाने के जुल्मों के विरुद्ध महाराणा से शिकायत करें। तदनुसार दोनों पटेल उदयपुर पहुँचे। छः माह बाद महाराणा ने उनकी सुनवाई की और राजस्व अधिकारी हामिद हुसैन को शिकायतों की जाँच के लिये बिजोलिया भेजा।

अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में किसानों की शिकायतों को सही बताया, पर राज्य सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की। इससे राव कृष्णसिंह के हौसले बढ़ गए। उसने उदयपुर जाने वाली नानजी और ठाकरी पटेल को ऊपरमाल से निर्वासित कर दिया। किसानों का पहला प्रयत्न असफल रहा।

(4) किसानों पर चंवरी कर लगाना

1903 में राव किशनसिंह ने बिजोलिया की जनता पर ’चँवरी’ नामक एक नया कर लगा दिया। इस लागत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी कन्या के विवाह के अवसर पर 5 रुपए चँवरी कर के रूप में जागीरदार को देने पङते थे। इस प्रकार किसानों पर ’चंवरी कर’ लगाकर अत्याचार किये गये थे।

(5) पृथ्वीसिंह की कठोर एवं दमनकारी नीति

पृथ्वीसिंह ने ’तलवार बंधाई’ के रूप में मेवाङ के महाराणा को एक बङी धनराशि दी थी, अतः उसने यह भार किसानों पर डाल दिया। उसने एक ओर लगान में वृद्धि कर दी एवं दूसरी ओर ’तलवार बन्दी’ की लागत लगा दी।

(6) किसानों पर युद्ध-कोष का भार लादना

1914 ई. में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया। युद्ध-कोष में धन जमा कराना जागीरदारों के लिए भी आवश्यक था। जागीरदारों ने युद्ध-कोष का भार किसानों पर लाद दिया। प्रत्येक किसान से प्रति हल 14 रुपए के हिसाब से युद्ध का चन्दा वसूल किया जाने लगा।

इससे किसानों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। इन परिस्थितियों में एक व्यापक आंदोलन अवश्यम्भावी हो गया। आवश्यकता कुशल नेतृत्व की थी। सौभाग्य से बिजोलिया के किसानों को विजयसिंह पथिक का कुशल नेतृत्व प्राप्त हो गया। विजयसिंह पथिक को ही बिजोलिया के किसानों को प्रारम्भिक सफलता दिलाने का श्रेय प्राप्त था।

बिजोलिया आंदोलन के चरण

प्रथम चरण (1897-1915 ई.)

’चंवरी कर’

सन् 1903 में राव कृष्णसिंह ने ऊपरमाल की जनता पर चंवरी की लागत लगाई। इस लागत के अनुसार पट्टे के हर व्यक्ति को अपनी लङकी की शादी के अवसर पर 5 (रामप्रसाद व्यास के अनुसार 13 रुपये) रुपये चंवरी-कर के रूप में ठिकाने को देना पङता था। विरोध स्वरूप किसानों ने लङकियों की शादी करना स्थगित कर दिया, पर राव के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। किसानों ने निश्चय किया कि जब तक चंवरी की लागत समाप्त नहीं की जाती और लगान में कमी नहीं की जाती, वे ठिकाने की भूमि पर खेती नहीं करेंगे और ठिकाने को लगान या लाग-बाग नहीं देंगे।

अन्ततः ठाकुर ने चंवरी की लागत आधी कर दी एवं लगान उपज के आधे हिस्से के स्थान पर 2/5 ही लेने की घोषणा की। उस जमाने में किसानों की यह एक अप्रत्याशित विजय थी। इस सफलता ने किसानों के भावी असहयोग एवं अहिंसापरक आंदोलन की आधारशिला रखी।

’तलवार बंधाई’

सन् 1906 में राव कृष्णसिंह की मृत्यु हो गयी। उसके स्थान पर पृथ्वीसिंह बिजोलिया का स्वामी बना। मेवाङ राज्य के नियमों के अनुसार पृथ्वीसिंह को बिजोलिया का उत्तराधिकारी स्वीकार करने के पूर्व उसे ’तलवार बंधाई’ के रूप में महाराणा को एक बङी धनराशि देनी थी। पृथ्वीसिंह ने यह भार जनता पर डाल दिया। उसने एक ओर लगान में वृद्धि कर दी एवं दूसरी ओर ’तलवार बन्दी’ की लागत लगा दी।

किसानों ने साधु सीतारामदास, फतहकरण चारण और ब्रह्मदेव के नेतृत्व में राव की इस कार्यवाही का विरोध किया। सन् 1913 में ठिकाने को भूमि-कर नहीं दिया। ठाकुर ने कई किसान कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया। इसी बीच 1914 ई. में पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गयी।

उसका पुत्र केसरसिंह नाबालिग था। अतः मेवाङ सरकार ने ठिकाने पर ’मुरसमात’ कायम कर दी। राज्य सरकार की तरफ से अमरसिंह राणावत को बिजोलिया ठिकाने का प्रशासक नियुक्त किया गया। बिजोलिया के किसान-आंदोलन में गुर्जर क्रांतिकारी श्री विजयसिंह पथिक ने सन् 1916 में प्रवेश किया।  भूपसिंह 1907 ई. में प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल और रासबिहारी बोस के सम्पर्क में आये तभी से वे क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लग गए।

बोस ने उन्हें राजस्थान में क्रान्ति का आयोजन करने के लिये खरवा ठाकुर गोपालसिंह के पास भेजा। उन्होंने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली और नाम भूपसिंह से बदल कर विजयसिंह पथिक रख लिया। तभी से जीवनभर वे इसी नाम से जाने जाते रहे।

द्वितीय चरण – (1915-1923)

विजयसिंह पथिक का जुङना

पथिकजी भाणा से मोही और मोही से चित्तौङ पहुंच गये। वहाँ उन्होंने हरिभाई किंकर द्वारा संचालित ’विद्या-प्रचारिणी सभा’ से नाता जोङ लिया। इसी संस्था की एक शाखा साधु सीतारामदास ने बिजोलिया में स्थापित की थी। यह संस्था उन्होंने डूंगरसिंह भाटी तथा ईश्वरदान आसिया के सहयोग से 1915 ई. में स्थापित की। विद्या-प्रचारिणी सभा के वार्षिक जलसे में भाग लेने के लिये साधुजी चित्तौङ आये।

साधुजी ने पथिक जी को बिजोलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व संभालने के लिये आमंत्रित किया। पथिक जी तत्काल बिजोलिया पहुंच गये और उन्होंने उसे अपनी कर्मभूमि बना लिया। तभी माणिक्यलाल वर्मा, पथिक जी के सम्पर्क में आये। उन्होंने पथिक जी से प्रभावित होकर ठिकाने की सेवा से इस्तीफा दे दिया और विद्या-प्रचारिणी सभा के मंत्री बन गये।

किसान पंचायत का गठन

पथिकजी ने सन् 1917 में हरियाली अमावस्या के दिन बारीसल गांव में ’ऊपरमाल पंच बोर्ड’ (किसान पंचायत बोर्ड) नाम से एक जबरदस्त संगठन स्थापित कर क्रांति का बिगुल बजाया। ’श्री मन्ना पटेल’ इस पंचायत का सरपंच बना। इस समय बिजोलिया के किसान रूस की अक्टूबर, 1917 की क्रांति से भी प्रेरित थे। पथिक, माणिक्यलाल वर्मा, साधु सीतारामदास, भंवरलाल सुनार, प्रेमचंद भील इत्यादि नेता रूस में किसान एवं मजदूर सत्ता की स्थापना का समाचार बिजोलिया के किसानों में प्रसारित कर रहे थे।

ब्रिटिश सरकार के गुप्तचरों को पथिक की गतिविधियों का पता चल गया। अंग्रेजों के इशारे पर राज्य सरकार ने पथिक की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया। इसकी सूचना पथिक को मिल गई थी, इसलिए वह बिजोलिया छोङकर भूमिगत होकर ऊमाजी के खेङे में एक वीरान मकान में रहने लगा।

ऊमाजी का खेङा किसान क्रांति का मुख्य केन्द्र बन गया। पथिक भूमिगत होते हुए भी गांव-गांव घूमकर किसानों के संगठन को सुदृढ़ करने में गतिशील था। किसानों से प्रथम विश्व युद्ध के लिए चंदे के नाम पर धन ऐंठा जा रहा था। पथिकजी ने अब युद्ध के चन्दे के विरोध में आवाज बुलन्द की। सारा ऊपरमाल सत्याग्रह सम्बन्धी गीतों से गूंजने लगा। गोविन्द निवास गांव के नारायणजी पटेल ने ठिकाने में बेगार करने से इंकार कर दिया।

इस पर ठिकाने के कर्मचारियों ने उसे पकङ लिया और कैद में डाल दिया। किसान पंचायत के आदेशानुसार किसानों के प्रचार की सुव्यवस्था की। यह सूचना कानपुर से निकलने वाले ’प्रताप’ के सम्पादक श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के पास भेजी। इसके साथ ही बिजोलिया के किसानों की ओर से उन्हें राखी भेजी।

विद्यार्थी जी ने आंदोलन का समर्थन करने का आश्वासन दिया। उन्होंने अपने इस पवित्र आश्वासन को अन्त तक निभाया। उन्होंने बिजोलिया किसान आंदोलन के समर्थन में क्रान्तिकारी लेखों की शृंखला प्रकाशित की। पथिकजी कांग्रेस के सन् 1918 के अधिवेशन में शामिल होने के लिये दिल्ली गये। पथिकजी के आदेशानुसार वर्माजी और साधुजी अन्य प्रतिनिििधयों को लेकर दिल्ली पहुंचे।

वहाँ उन सबकी विद्यार्थियों से मुलाकात हुई। उनके लौटते ही ठिकाने का दमन चक्र शुरू हुआ। पथिकजी ने स्मृति पत्रों द्वारा भारत सरकार और मेवाङ सरकार को ठिकाने के अत्याचारों से अवगत कराया।

उदयपुर राज्य सरकार ने अप्रैल, 1919 ई. में बिजोलिया किसान आंदोलनकारियों की शिकायतों की सुनवाई करने के लिए एक आयोग गठित कर बिजोलिया भेजा। इस आयोग में ठाकुर अमरसिंह (मुंसरिम बिजोलिया), अफजलअली (न्यायाधीश) और बिन्दुलाल भट्टाचार्य (मांडलगढ़ का हाकिम) सदस्य थे।

आयोग ने सिफारिश की कि किसान कार्यकर्ताओं को जेल से छोङ दिया जाये, अनावश्यक लागतें समाप्त कर दी जायें एवं बेगार प्रथा बन्द कर दी जाये। मेवाङ सरकार ने आयोग की सिफारिशों पर कोई निर्णय नहीं लिया। ठिकाने ने दो सौ प्रमुख किसानों को जेल में डाल दिया। इस संदर्भ में मदनमोहन मालवीयजी महाराणा से मिले, पर उन्हें भी सफलता नहीं मिली।

पथिक जी का वर्धा जाना -1919 ई.

पथिक जी महात्मा गांधी से मिलने के लिये सन् 1919 में बम्बई गये। महात्मा गांधी ने अपने सचिव महादेव देसाई को पथिक जी के साथ बिजोलिया भेजा। महात्मा गांधी ने किसानों की शिकायतें दूर करने के लिये महाराणा फतेहसिंह को एक पत्र भी लिखा पर कोई फल नहीं निकला। पथिक जी की बम्बई यात्रा के समय यह निश्चय किया गया था कि पथिक जी के सम्पादकत्व में वर्धा से राजस्थान केसरी नामक पत्र निकाला जाये। सन् 1919 में वर्धा से राजस्थान केसरी का प्रकाशन शुरू कर दिया।

पत्र के सहसम्पादक श्री रामनारायण चौधरी और ईश्वरदानजी आसिया एवं व्यवस्थापक श्री हरिभाई किंकर तथा श्री कन्हैयालाल कलयंत्री नियुक्त किये गये। पत्र की आर्थिक जिम्मेदारी सेठ जमनालाल बजाज ने उठाई। उन्होंने पत्र का बङी खूबी से संचालन किया। इस बीच बिजोलिया आंदोलन का संचालन वर्माजी ने किया। पथिकजी के प्रयत्नों से वर्धा में 1919 में ’राजस्थान-सेवा-संघ’ की स्थापना की गई जिसे सन् 1920 में अजमेर स्थानांतरित कर दिया गया।

सन् 1920 में राजस्थान केसरी को अजमेर स्थानांतरित किया। पथिकजी ने अब अजमेर को अपनी प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया। वहाँ से उन्होंने एक नया पत्र ’नवीन राजस्थान’ प्रकाशित किया। इधर वर्माजी किसान आंदोलन को तीव्र बनाने में जुट गए।

’’राजपूताना मध्य भारत सभा’’ के अधिवेशन में पथिक ने बिजोलिया का प्रश्न उठाया। सभा ने भवानीदयाल की अध्यक्षता में एक आयोग नियुक्त किया और बिजोलिया के किसानों के कष्टों की जांच का कार्य इसे सुपुर्द किया। महाराणा नहीं चाहते थे कि कोई बाहर की एजेन्सी बिजोलिया के मामले में हस्तक्षेप करे। महाराणा ने उत्तर में लिखा कि वह स्वयं एक कमीशन की नियुक्ति कर रहे हैं। महाराणा ने तुरन्त एक जांच आयोग की घोषणा कर दी।

इस आयोग में ठाकुर राजसिंह (बेदला), रामाकांत मालवीय (प्रधान महंद्राज सभा) और तख्तसिंह मेहता को सदस्य रखा।

यह आयोग बिजोलिया नहीं गया। माणिक्यलाल की अध्यक्षता में 15 सदस्यों का एक प्रतिनिधि मंडल उदयपुर पहुंचा। माणिक्यलाल ने किसानों की कठिनाइयों और उन पर किये जा रहे अत्याचारों का विस्तृत विवरण आयोग के सदस्यों के समक्ष प्रस्तुत किया। जांच आयोग ने कृषकों की शिकायतों को सही माना और राज्य सरकार से सिफारिश की कि किसानों से अवैधानिक रूप से ली जा रही लागतें व बेगारें समाप्त करवाई जायें।

महाराणा ने आयोग की सिफारिशों की ओर ध्यान नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार बिजोलिया किसान पंचायतों को बोल्शेविक रूस के कम्यूनों का प्रतिरूप मानती थी। वह आंदोलन को शक्ति से कुचलने के पक्ष में थी। बिजोलिया के लोग एक-दूसरे को साथी (काॅमरेड) कहकर सम्बोधित करते थे।

राजस्थान सेवा संघ के नेतृत्व में आंदोलन

8 अक्टूबर, 1921 को बिना कूंता किसानों ने फसल काट ली। अब बिजोलिया के आंदोलन का असर मेवाङ के अन्य किसानों तथा सीमावर्ती राज्यों पर भी पङने लगा। इससे भारत सरकार भयभीत हो गई। ब्रिटिश सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जिसमें ए.जी.जी. राॅबर्ट हाॅलैंड, उसके सचिव आगल्वी, मेवाङ के ब्रिटिश रेजीडेन्ट विल्किसन, मेवाङ राज्य के दीवान प्रभाषचन्द्र चटर्जी और राज्य के सायर हाकिम बिहारीलाल को रखा।

4 फरवरी, 1922 ई. को यह समिति का गठन किया जिसमें ए.जी.जी. राॅबर्ट हाॅलैंड, उसके सचिव आगल्वी, मेवाङ के ब्रिटिश रेजीडेन्ट विल्किसन, मेवाङ राज्य के दीवान प्रभाषचन्द्र चटर्जी और राज्य के सायर हाकिम बिहारीलाल को रखा।

4 फरवरी, 1922 ई. को यह समिति बिजोलिया पहुंची। किसान पंचायत बोर्ड की ओर से सरंपच मोतीचन्द, मंत्री नारायण पटेल, राजस्थान सेवा संघ के सचिव रामनारायण, चौधरी तथा आंदोलन के प्रणेता माणिक्यलाल ने प्रतिनिधित्व किया। हालैण्ड के प्रयत्नों से ठिकाने और किसानों पर चलाये गये मुकदमे उठा लिये गये। जिन किसानों की जमीन दूसरों के कब्जे में थी, वह उन्हें पुनः सौंप दी गयी। दुर्भाग्य से समझौता ठिकाने की बदनियती के कारण टिकाऊ नहीं रह पाया।

सन् 1923 में बिजोलिया के राव का विवाह हुआ। इस विवाह में ठिकाना किसानों से बेगार लेना चाहता था। अतः ठिकाने और किसानों में फिर ठन गई। सन् 1926 में ठिकाने में बन्दोबस्त हुआ। उसमें लगान की दरें ऊँची नियत की गई। जनवरी, 1927 में मेवाङ के ’बन्दोबस्त अधिकारी श्री ट्रेन्च’ बिजोलिया आये। ट्रेन्च ने किसी प्रकार पंचायत और ठिकाने में समझौता तो करा दिया, पर इसके थोङे समय बाद ही मार्च, 1927 में वर्माजी को जेल में डाल दिया।

बिजोलिया के किसान नये बन्दोबस्त में निर्धारित लगान की ऊँची दरों से क्षुब्ध थे। लगान की ऊँची दरें निर्धारित करने के विरोध में किसानों ने मई, 1927 में अपनी-अपनी जमीनों से इस्तीफे दे दिये। ठिकाने ने इन जमीनों को नीलाम किया। दुर्भाग्य से जमीनों को उठाने वाले भी मिल गये। किसान मात खा गये।

तृतीय चरण (1923-1941)

जमनालाल बजाज का नेतृत्व

इस समय पथिक जी, वर्मा जी और रामनारायण चौधरी के बीच भी गहरा मतभेद हो गया था। परिणाम यह हुआ कि राजस्थान सेवा संघ छिन्न-भिन्न हो गया। अब जमनालाल बजाज इस आंदोलन के सर्वेसर्वा बना दिये गये। अक्षय तृतीया 1931 ई. को चार हजार किसानों ने अपनी इस्तीफाशुदा जमीनों पर हल चलाना शांति के साथ मार सहन की। राज्य ने किसानों के सत्याग्रह का मुकाबला करने के लिए बिजोलिया में सेना और पुलिस नियुक्त कर दी।

बिजोलिया का मसला अब अखिल भारतीय रूप धारण कर चुका था। सेठजी जुलाई, 1931 को उदयपुर पहुंचे और महाराणा तथा सर सुखदेव प्रसाद से मिले। इस भेंट के फलस्वरूप एक समझौता हुआ जिसके अनुसार सरकार ने आश्वासन दिया कि माल की जमीन धीरे-धीरे पुराने बापीदारों को लौटा दी जाएगी, सत्याग्रही रिहा कर दिये जायेंगे और 1922 के समझौते का पालन किया जाएगा।

मेवाङ सरकार ने डेढ़ वर्ष बाद नवम्बर, 1933 में वर्माजी को रिहा कर दिया, पर साथ ही उन्हें मेवाङ से निर्वासित कर दिया।

माणिक्यलाल वर्मा जी का पुनः नेतृत्व

बिजोलिया आंदोलन का पटाक्षेप 44 वर्ष (1897-1941 ई.) बाद सन् 1941 में हुआ जब मेवाङ में सर टी. विजय राघवाचार्य प्रधानमंत्री बने। उस समय मेवाङ प्रजामण्डल से पाबन्दी उठायी जा चुकी थी और वर्माजी आदि प्रजामण्डल के नेता मुक्त किये जा चुके थे। राघवाचार्य के आदेश से तत्कालीन राजस्वमंत्री डाॅ. मोहनसिंह मेहता बिजोलिया गए और वर्माजी और अन्य किसान नेताओं से बातचीत कर किसानों की समस्या का समाधान करवाया।

किसानों को अपनी जमीनें वापिस मिल गयी। वर्मा जी के जीवन की यह प्रथम बङी सफलता थी। देश के इतिहास में यह अपने ढंग का अनूठा किसान आंदोलन था जो राज्य की सीमायें लांघकर पङौसी राज्यों में भी फैला। इस आंदोलन ने राजस्थान की रियासतों को एक नयी चेतना प्रदान की।

इन किसान आंदोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि अहिंसात्मक तरीके से भी शोषण एवं जुल्मों से सफल संघर्ष किया जा सकता है। उन आंदोलनों की सफलता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि सामन्तशाही को उनकी मांगों के सामने घुटने टेकने पङे। इन आंदोलनों ने न केवल राजस्थान की जनता में वरन् सम्पूर्ण देश की जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने में असाधारण भूमिका निभाई। ये जागृत किसान ही आगे जाकर सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन के अभिन्न अंग बने।

बिजोलिया किसान आंदोलन के महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्र. 1 भारत में एक संगठित किसान आंदोलन की शुरुआत का श्रेय किस क्षेत्र को जाता है ?

उत्तर – भारत में एक संगठित किसान आंदोलन की शुरुआत का श्रेय मेवाङ के बिजोलिया क्षेत्र को जाता है।

प्र. 2 बिजोलिया मेवाङ राज्य किस श्रेणी का ठिकाना था ?

उत्तर – बिजोलिया मेवाङ राज्य का प्रथम श्रेणी का ठिकाना था।

प्र. 3 बिजोलिया ठिकाने का संस्थापक कौन था ?

उत्तर – अशोक परमार

प्र. 4 बिजोलिया किसान आंदोलन की शुरू कब हुआ था ?

उत्तर – 1897 ई.

प्र. 5 विजयसिंह पथिक का मूल नाम क्या था ?

उत्तर – भूपसिंह

प्र. 6 बिजोलिया किसान आंदोलन में किस जाति के किसान सर्वाधिक संख्या में थे ?

उत्तर – धाकङ जाति

प्र. 7 ’ऊपरमाल किसान पंचबोर्ड’ की स्थापना की गई ?

उत्तर – 1917 ई.

प्र. 8 ’ऊपरमाल पंच बोर्ड’ की स्थापना किसने की ?

उत्तर – विजयसिंह पथिक जी ने सन् 1917 में हरियाली अमावस्या के दिन बारीसल गांव में ’ऊपरमाल पंच बोर्ड’ (किसान पंचायत बोर्ड) नाम से एक जबरदस्त संगठन स्थापित कर क्रांति का बिगुल बजाया। ’श्री मन्ना पटेल’ इस पंचायत का सरपंच बना।

प्र. 9 बिजोलिया किसान आंदोलन कितने समय तक चला ?

उत्तर – 1897-1941 ई.

प्र. 10 बिजोलिया किसान आंदोलन के प्रणेता कौन-कौन थे ?

उत्तर – साधु सीताराम दास, विजय सिंह पथिक, जमनालाल बजाज

प्र. 11 बिजोलिया किसान आंदोलन के चरण कौन-कौन से है ?

उत्तर – प्रथम चरण (1897-1916 ई.) द्वितीय चरण (1916-1923 ई.) तृतीय चरण (1923-1941 ई.)

प्र. 12 बिजोलिया कहाँ स्थित है ?

उत्तर – राजस्थान राज्य के भीलवाङा जिले में

प्र. 13 बिजोलिया के राव सवाई कृष्णसिंह के समय बिजोलिया की जनता पर कितनी प्रकार की लागतें थी ?

उत्तर – 84 प्रकार की लागतें

प्र. 14 बिजोलिया के किस शासक ने चंवरी कर लगाया था ?

उत्तर – सन् 1903 में राव कृष्णसिंह ने ऊपरमाल की जनता पर चंवरी की लागत लगाई। इस लागत के अनुसार पट्टे के हर व्यक्ति को अपनी लङकी की शादी के अवसर पर 5 (रामप्रसाद व्यास के अनुसार 13 रुपये) रुपये चंवरी-कर के रूप में ठिकाने को देना पङता था।

प्र. 15 ’तलवार बन्दी’ की लागत बिजोलिया के किस शासक ने लगाई थी ?

उत्तर – राव पृथ्वीसिंह ने

प्र. 16 ’राजस्थान सेवा-संघ’ की स्थापना कब की गई ?

उत्तर – विजय सिंह पथिक जी के प्रयत्नों से वर्धा में 1919 में ’राजस्थान-सेवा-संघ’ की स्थापना की गई जिसे सन् 1920 में अजमेर स्थानांतरित कर दिया गया।

प्र. 17 बिजोलिया किसान आंदोलन कितने वर्ष तक चला था ?

उत्तर – 44 वर्ष

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