भारतीय संविधान की विशेषताएं – Bhartiya Samvidhan ki Visheshta

आज की इस पोस्ट में भारतीय संविधान की विशेषताएं(Features of Indian Constitution) व विभिन्न प्रणालियों को विभिन्न बिन्दुओं के माध्यम से विस्तार से बताया गया है

भारतीय संविधान की विशेषताएं

भारतीय संविधान की विशेषताएं – Bhartiya Samvidhan ki Visheshta

भारत का संविधान अनेक दृष्टियों से एक अनूठा संविधान है। उसकी अनेक विशेषताएं है, जो विश्व के अन्य संविधानों से अलग उसकी पहचान बनाती है।

Bhartiya Sanvidhan ki Visheshta

विस्तृत संविधान

भारत का संविधान विश्व को सबसे बङा लिखित संविधान है। इसकी विशालता का सबसे प्रमुख कारण केन्द्रीय तथा प्रान्तीय दोनों सरकारों के गठन तथा उनकी शक्तियों का विस्तृत वर्णन है।

भारत के मूल संविधान में कुल 395 अनुच्छेद, 8 अनुसूचियाँ तथा 22 भाग थे। वर्तमान में अनुसूचियों की संख्या 12 है। 9 वीं अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन (1951), 10 वीं अनुसूची 52 वें संशोधन (1985), 11 वीं अनुसूची 73 वें संशोधन (1992) तथा 12 वीं अनुसूची 74 वें संशोधन (1993) द्वारा संविधान में जोङी गयी है।

किन्तु संविधान के भागों और अनुच्छेदों में संशोधन मूल संख्याओं में कोई परिवर्तन न करते हुए किया गया है। अतः आज भी अन्तिम अनुच्छेद मूलतः 395 तथा भाग-22 ही है; किन्तु गणना की दृष्टि से वर्तमान में अनुच्छेदों की संख्या 463 एवं भाग 26 है।

अमेरिका के संविधान के केवल 7 (विश्व का सबसे छोटा लिखित संविधान), कनाडा के संविधान में 147, ऑस्ट्रेलिया के संविधान में 128 तथा अफ्रीका के संविधान में 253 अनुच्छेद है।

सर आइवर जेंनिग्स ने भारतीय संविधान को विश्व का सबसे बङा एवं विस्तृत संविधान कहा है।

मिश्रित संविधान

जिस संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया कई जटिल कई सरल को मिश्रित संविधान कहलाता है। विश्व का मिश्रित संविधान भारत का है। भारत विकास के लिए लचीला परन्तु संघ, एकता व अखण्डता के लिए कठोर है।

मिश्रित संविधान

न्यायिक पुनरावलोकन लिखित

न्यायाल के इस अधिकार के साथ ही संसद को यह अधिकार भी है कि वह न्यायालय की शक्तियों को आवश्यकतानुसार सीमित कर सकती है। इस प्रकार न तो ब्रिटेन के समान संसदीय प्रभुसत्ता को स्वीकार किया गया है और न ही अमेरीका की भाँति न्यायपालिका की सर्वोच्चता।
विभिन्न संविधानों के संचित अनुभवों का समावेश

✅ संविधान के रचयियताओं ने यह प्रयत्न किया कि सभी ज्ञात संविधानों के कार्यकरण से प्राप्त संचित अनुभवों को इसमें समाहित कर लिया जाए और उन संविधानों के प्रकाश में जिन दोषों और कमियों का पूर्वाभास हो सकता है उन्हें दूर किया जाए। दूसरी ओर हमारे संविधान में अन्य संविधानों की अपेक्षा शब्दों की भरमार है क्योंकि इससे मिलते-जुलते उपबन्धों के निर्वाचन में अन्यत्र दिए गए न्यायिक निर्णयों के परिणाम को उपान्तरित करते हुए इसमें सम्मिलित किया गया है जिससे अनिश्चितता और मुकदमेबाजी कम से कम हो।

लिखित संविधान

🔷संविधान लिखित या अलिखित हो सकता है। भारत का संविधान एक लिखित संविधान है; यद्यपि इसमें परम्पराओं एवं प्रथाओं का भी स्थान है, यदि वह संवैधानिक उपबन्धों के अनुरूप है। ब्रिटेन का संविधान परम्पराओं एवं प्रथाओं पर आधारित एक अलिखित संविधान है। ध्यातव्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A) का संविधान विश्व का प्रथम लिखित संविधान है।

पंडित नेहरू के अनुसार- ’’हम इस संविधान को अधिक से अधिक ठोस और स्थायी बनाना चाहते है। किन्तु संविधान स्थायी नहीं होत। इसमें कुछ लचीलापन भी होना चाहिए। यदि इसे कठोर और स्थयी बनाएंगे तो आप राष्ट्र का विकास अवरुद्ध कर देंगे, एक जीवन प्राणवान विकासमान जनता का विकास।……….हम इस संविधान को इतना कठोर नहीं बना सकते कि परिवर्तित दशाओं में उसे अनुकूलित न किया जा सके। जब सम्पूर्ण विश्व परिवर्तन परिवर्तन से गुजर रहा है और हम एक तीव्र गति से होने वाले संक्रमण का अनुभव कर रहे हैं तो हम जो आज कर रहे हैं वह कल के लिए अनुपयुक्त हो सकता है।’’

Features of Indian Constitution

उद्देशिका की शब्दावली

संविधान की प्रस्तावना भारत को एक सम्प्रभुत्ता सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य घोषित करती है। इन शब्दों का अर्थ ’संविधान की उद्देशिका’ नामक अध्याय में दिया गया है।

संसदीय शासन प्रणाली

संघात्मक संविधान के अन्तर्गत देा प्रकार की शासन प्रणाली स्थापित की जा सकती है-

(1) अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली

(2) संसदीय शासन प्रणाली

🔷अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में राष्ट्रपति कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान होता है, उसका निर्वाचन सीधे जनता द्वारा किया जाता है तथा वह नियत अवधि तक कार्य करता है। अमेरिका में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली है।

संसदीय शासन प्रणाली सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में विकसित हुई थी। भारतीय संविधान द्वारा इंग्लैण्ड के समान संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की गयी है। यह प्रणाली केन्द्र तथा राज्य दोनों के समान है। भारत का राष्ट्रपति इंग्लैण्ड के सम्राट के समान कार्यपालिका का नाममात्र का प्रधान होता है। वास्तविक कार्यपालिका शक्ति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों में गठित ’मंत्रिपरिषद्’ की सलाह से करता है। इसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से ’लोकसभा’ के प्रति उत्तरदायी होती है। यह प्रावधान भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली की सरकार की आधारशिला है।

मूल अधिकार – Mul Adhikar

भारतीय संविधान का भाग तीन (3) अपने नागरिकों के लिए कुल 6 मूल अधिकारों की घोषणा करता है। यह अमेरिका संविधान से लिया गया है। यह राज्य की विधायी और कार्यपालिका शक्ति पर निर्बन्धन के रूप में है। राज्य द्वारा मूलाधिकारों के प्रतिकूल बनायी गयी विधि न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित की जा सकती है। इस प्रकार न्यायालय मूलाधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है। किन्तु मूलअधिकार अतयान्तिक (absolute) नहीं है, राज्य द्वारा लोकहित में उन पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि संविधान द्वारा नागरिकों को 7 मूल अधिकार प्रदान किये गये थे, लेकिन 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार को भाग-3 से हटाकर अनुच्छेद 300 क के अन्तर्गत विधिक अधिकार के रूप में अन्तर्विष्ट किया गया है।

राज्य के नीति निदेशक तत्व – Rajya ke Niti Nirdeshak Tatva

संविधान का भाग-4, अनु. 36 से 51 राज्यों की नीति निर्धारण में मार्गदर्शक कुछ पवित्र कत्र्तव्यों का उल्लेख करता है। इसे आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। इन कर्तव्यों का पालन कर राज्य एक ’कल्याकारी राज्य’ की अनुधारणा को साकार रूप प्रदान कर सकते है। ऑष्टिन ने इन सिद्धान्तों को ’राज्य की आत्मा’ कहा है। इसे न्यायालय लागू नहीं कराया जा सकता है। परन्तु 42 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों पर प्राथमिकता प्रदान किया गया है।

नागरिकों के मूल कर्तव्य

मौलिक कर्तव्य का समावेश मूल संविधान में नहीं था। सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा संविधान में भाग-4क और अनुच्छेद 51 (क) को जोङकर कुल 10 मौलिक कत्र्तव्यों को शामिल किया गया। इसे रूस के संविधान से लिया गया था। 86 वें संशोान अधिनियम 2002 द्वारा 11 वें कत्र्तव्यों के रूप में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा को अवसर प्रदान करने को कर्तव्य बच्चों के माता-पिता या संरक्षक पर आरोपित किया गया है।

स्वतंत्र न्यायापालिका

संघात्मक संविधान में संघ और राज्यों के मध्य विवाद के समाधान और संविधान के निर्वाचन का दायित्व न्यायपालिका पर होता है। उस पर संविधान और मूल अधिकारों के संरक्षण का भी दायित्व होता है। इसके लिए न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है। भारतीय संविधान द्वारा एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना उसकी एक महती विशिष्टता है। इसके लिए संविधान में न्यायधीशों की नियुक्ति, वेतन, भत्ता तथा पद से हटाये जाने के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रवधान किये गये है जिससे उन पर सरकार द्वारा किसी प्रकार का दबाव न डाला जा सके।

भारतीय संविधान की विशेषता

नम्यता और अनम्यता का अनोखा मिश्रण

संशोधन की दृष्टि से संविधान नम्य (Flexible) तथा अनम्य (Rigid) दो प्रकार का होता है। वे संविधान जिनमें संशोधन की प्रक्रिया जटिल होती है अनम्य (कठोर) संविधान तथा वे संविधान जिसमें संशोधन सरलता से किया जा सकता है नम्य संविधान कहलाते है। भारतीय संविधान में संशोधन संसद द्वारा साधारण बहुमत, विशेष बहुमत तथा विशेष बहुमत और आधे राज्यों के अनुसमर्थन द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार कुछ उपबन्ध तो आसानी से किन्तु कुद उपबन्ध कठिनाई से संशोधित किये जाते है, जिसके कारण इसे नम्यता व अनम्यता का अनोखा मिश्रण कहा जाता है।

सर आइवर जेंनिग्स ने भारतीय संविधान को आवश्यकता से अधिक कठोर संविधान कहा है जबकि के.सी. हीयर के अनुसार भारतीय संविधान अधिक कठोर तथा अधिक लचीलें के मध्य एक अच्छा संतुलन स्थापति करता है।

संविधान की प्रकृति

केन्द्राभिमुख संविधान

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 के अनुसार, भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का एक संघ होगा (”India that is Bharat, Shall be a Union of States.”)। परन्तु प्रो. के.सी. हेयर के अनुसार भारतीय संविधान एक अर्द्धसंघीय (Quasi-federal) संविधान है जबकि सर आइवर जेनिंग्स ने कहा है कि- वह यह ऐसा संघ है जिसमें केन्द्रीयकरण की सशक्त प्रवृति है।

भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान के सभी प्रमुख लक्षण यथा- शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, अपरिवर्तन शीलता तथा स्वतंत्र न्यायपालिका विद्यमान है। किन्तु उसमें एकात्मक संविधान की प्रवृत्ति यथा- इकहरी नागरिकता, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा किया जाना, आपात कालीन उपबन्ध, नये राज्यों के निर्माण की संसद की शक्ति, अखिल भारतीय सेवायें, राज्य सभा में असमान प्रतिनिधित्व और राज्य सूची पर केन्द्र की विधि बनाने की शक्ति, आदि भी पायी जाती है, जिसके आधार पर जेनिंग्स जैसे कुछ विद्वानों ने भारतीय संविधान को केन्द्राभिमुख संविधान कहा है। अतः भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी एकात्मकता की प्रवृत्ति को भी धारण करता है।

डा. अम्बेडकर ने कहा भी है कि, ’’संविधान को संघात्मकता के तंग ढांचे में नहीं ढाला गया है।’’ ध्यातव्य है कि जी. ऑस्टिन ने भारतीय संघवाद को ’सहकारी संघवाद’ (Co-operative Federalism) कहा है।

एकल नागरिकता – Ekal Nagrikta

संघात्मक संविधान द्वारा सामान्यतः दोहरी नागरिकता (प्रथम संघ की तथा द्वितीय राज्य की) का प्रावधान किया जाता है, जैसे अमेरिका में। किन्तु भारतीय द्वारा भारत की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उसकी संघीय संरचना के बावजूद एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है, कोई व्यक्ति सिर्फ भारत का नागरिक होता है, किसी राज्य का नहीं।

वयस्क मताधिकार – Vyask Matadhikar

भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनायी गयी है। संसदीय प्रणाली में सरकार का गठन जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से किया जाता है। भारत में प्रतिनिधियों के निर्वाचन हेतु वयस्क मताधिकार प्रणाली को अपनाया गया है। वयस्क मताधिकार को अपनाया जाना नये संविधान की महान् और क्रान्तिकारी विशेषता है।

मूल संविधान में मताधिकार की न्यूनतम आयु 21 वर्ष नियत थी। 61 वें संविधान संशोधन 1989 द्वारा अनुच्छेद 326 में संशोधन कर मताधिकार की न्यूनतम आयु 18 वर्ष कर दी गयी। अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक, जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर लिया है, को बिना किसी भेदभाव के मतदान का समान अधिकार प्राप्त है, किन्तु अनिवास, चित्तविकृति, अपराध या भ्रष्ट अथवा अवैध आचरण के आधार पर कोई व्यक्ति अपने मताधिकार से वंचित किया जा सकता है।

साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के बिना सार्वजनिक मताधिकार

🔷 लिंग, सम्पति, कराधान आदि की किसी अर्हता के बिना सार्वजनिक मताधिकार को स्वीकार करना भारत के लिए कए साहसिक प्रयोग है (अनुच्छेद 326)। विशेषकर इस बात को देखते हुए कि हमारा देश विशाल है, इसकी जनसंख्या बहुत अधिक है और अधिकतर लोग निरक्षर है। इसके पीछे यह संकल्पना है कि जनता प्रभुत्वसम्पन्न है। आधुनिक लोकतंत्र में मताधिकार ही ऐसा प्रभावी माध्यम है जिससे यह प्रकट होता है कि प्रभुत जनता के हाथ में है।

✅ संविधान के अधीन 1952 में जब भारत में साधारण निर्वाचन हुए थे उनसे सम्बन्धित आंकङों से यह बात प्रकट होती है कि कुछ बङी-बङी कठिनाइयों के होते हुए भी यह साहसिक प्रयोग सफल हुआ। निर्वाचक नामावली में प्रविष्ट 50 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने वास्तव में मताधिकार का प्रयोग किया। जितने व्यवस्थापूर्ण ढंग से चैदह साधारण निर्वाचन हुए उन्हें देखकर सभी उनके इस विशाल उपमहाद्वीप की जनता की राजनैतिक सूझबूझ की प्रशंसा करते हैं यद्यपि अधिकांश जनता निरक्षर है।

🔷संविधान (61 वां संशोधन) अधिनियम, 1988 के द्वारा चुनाव में मतदान का न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की गई। संविधान के रचयिताओं की इस बात के लिए भी प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को समाप्त कर दिया। नए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों और आंग्ल-भारतीय समुदाय के लिए कुछ स्थानों के सिवाय आरक्षण नहीं किया गया था। यह आरक्षण भी अस्थायी अवधि के लिए थ।

संविधान की सर्वोच्चता

हमारा संविधान सर्वोपरि है। क्योंकि सरकार के अभी अंग (कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका) इसी से अपनी शक्तियाँ प्राप्त करते है। ब्रिटेन में संसद की सवौच्चता स्थापित की गयी है। संसद द्वारा निर्मित विधि को न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। अमेरिकी संविधान में न्याय पालिका सर्वोच्च है। वह संसद द्वारा बनायी गयी विधि को संविधान के अनुरूप न होने पर असंवैधानिक घोषित कर सकती है। किन्तु भारत में संविधान को सवौच्च स्थान प्रदान किया गया है। भारत में शक्ति के स्रोत के रूप में संविधान सर्वोच्च है।

आपातकालीन उपबन्ध

संकटकाल के सम्बन्ध में विशेष प्रावधान हमारे संविधान की एक अन्य विशेषता है जिसके अनुसार संकटकाल में हमारी राज-व्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हो जाते है। संविधान में तीन प्रकार के संकटकाल का उल्लेख किया गाय है; यथा-
(1) यद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति उत्पन्न होने पर (अनुच्छेद 352)।
(2) राज्यों में संवैधानिक व्यवस्था में भंग हो जाने पर (अनुच्छेद 356)।
(3) वित्तीय संकट के उत्पन्न होने पर (अनुच्छेद 360)।
संकटकालीन घोषणा का सबसे प्रमुख प्रभाव यह होता है कि हमारा संघात्मक शासन एकात्मक हो जाता है। ये संकटकालीन प्रावधान संविधान को लचीलापन प्रदान करते है जो कि भारत देश की परिस्थितियों में नितान्त आवश्यक है।

ग्राम पंचायतों की स्थापना

संविधान-निर्माताओं ने जहां एक ओर बीसवीं सदी की शासन व्यवस्था को अपनाया है, वहीं दूसरी ओर इस बात को नहीं भुलाया है कि भारतीय व्यवस्था के आधार ’ग्राम’ है, जिनका प्रबन्ध ग्राम पंचायतों के आधार पर ही भली-भांति सम्भव है। नीति निदेशक तत्वों में कहा गया है कि ’’ग्राम पंचायतों की स्थापना कर उन्हें स्थानीय शासन की प्राथमिक इकाई बनाया जायेगा।’’

इसके अनुसार 1959 में लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था को अपनाया गया और ग्रामीण क्षेत्र में पंचयतों, पंचायत समितियों व जिला परिषदों की स्थापना की गयी है। 73 वें संवैधानिक संशोधन और 74 वें संवैधानिक संशोधन (1993) के आधार पर पंचायती राजव्यवस्था और शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है।

🔷संक्षेप में भारत का नवीन संविधान जनता की प्रभुसत्ता के मूल सिद्धान्त पर आधारित है तथा भारतीय जनता की वास्तविक एकता का प्रतीक है। भारतीय संविधान के स्वरूप और विशेषताओं से स्पष्ट है कि भारत का संविधान एक ऐसा आदर्श प्रलेख है जिसमें सिद्धान्त और व्यवहारिकता का श्रेष्ठ समन्वय है।

 

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