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Jain Dharm – जैन धर्म के बारे में पूरी जानकारी पढ़ें

Author: K.K.SIR | On:18th Oct, 2021| Comments: 0

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Table of Contents

  • ⇒ जैन धर्म क्या है ?
  • जैन धर्म के प्रमुख तीर्थंकर
  • जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर – ऋषभदेव/आदिनाथ
  • प्रमुख तीर्थंकर –
  • पार्श्वनाथ – 23 वें तीर्थंकर
  • महावीर स्वामी का जीवन परिचय
  • महावीर स्वामी की सत्यज्ञान की खोज प्रारम्भ
  • महावीर स्वामी को केवल्य (ज्ञान) कहाँ प्राप्त हुआ ?
  • वर्धमान को केवल्य प्राप्ति के बाद प्राप्त नाम –
  • ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी की यात्रा –
  • जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम एवं उनके प्रतीक चिह्न
  • जैन धर्म के सिद्धांत –
  • जैन धर्म के त्रिरत्न कौनसे थे ?
  • जैन धर्म में दर्शन –
  • जैन धर्म के पंचमहाव्रत कौनसे थे ?
  • जैन धर्म के तीन गुणव्रत –
  • जैन धर्म के दस लक्षण –
  • जैन धर्म के सात शीलव्रत –
  • जैन धर्म की प्रमुख संगीतियाँ कौनसी थी ?
  • 1. प्रथम जैन संगीति कब हुई  ?
  • 2. द्वितीय जैन संगीति कब हुई  ?
  • 3. तृतीय जैन संगीति कब हुई  ?
  • 4. चतुर्थ जैन संगीति कब हुई  ?
  • 5. पंचम जैन संगीति कब हुई  ?
  • जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ कौनसी है ?
  • जैन धर्म का प्रचार-प्रसार कैसे हुआ ?
  • प्रारंभिक जैन-साहित्य किस भाषा में लिखा गया ?
  • जैन धर्म की प्रमुख विशेषताएँ –
  • सल्लेखना परम्परा क्या है ?
  • संथारा प्रथा क्या है ?

आज के आर्टिकल में हम जैन धर्म क्या है,जैन धर्म के प्रमुख तीर्थंकर,जैन धर्म के सिद्धांत,जैन धर्म के त्रिरत्न,जैन धर्म के पंचमहाव्रत,Jain Dharm in Hindi,जैन धर्म की प्रमुख संगीतियाँ को विस्तार से पढेंगे।

जैन धर्म

⇒ जैन धर्म क्या है ?

  • जैन दार्शनिक परम्परा वैदिक परम्परा के ही समकालीन एक आंदोलन माना जाता है।
  • भद्रबाहु के कल्पसूत्र से जैन धर्म के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • जैन शब्द ’जिन’ शब्द से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ ’विजेता’ होता है। संसार की मोह-माया व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना ही जैन धर्म (Jain Dharm) का एकमात्र उद्देश्य है।
  • जिन – जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली, उसे जिन कहते है।
  • जिन के अनुयायी जैन कहलाते है।
  • इन जिनो को जैन धर्म में तीर्थंकर कहते है।
  • तीर्थंकर का अर्थ – तीर्थंकर ’तीर्थ’ शब्द से बना है। तीर्थ का अर्थ – ‘घाट’।
  • तीर्थंकार का अर्थ – संसार सागर को पार करने के लिए ‘घाटो का निर्माता’।
  • जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने जाते है।

जैन धर्म के प्रमुख तीर्थंकर

जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर – ऋषभदेव/आदिनाथ

  • जैन अनुश्रुतियों और धार्मिक साहित्य के अनुसार जैनियों का प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को माना गया है।
  • ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश में माना जाता है।
  • ऋषभदेव का उल्लेख – ऋग्वेद, यजुर्वेद, विष्णुपुराण एवं भगवत पुराण में भी मिलता है। ऋग्वेद में दो जैन तीर्थकरों- ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमी का उल्लेख मिलता है।
  • इन्हें इतिहास में आदिनाथ के नाम से जाना जाता है राजस्थान में केसरियानाथ भी कहते हैं।
  • जैन ग्रन्थों में इन्हें ‘मानव सभ्यता का जनक’ कहा जाता है। भागवत पुराण में ’नारायण का अवतार’ कहा जाता है।
  • इन्हें निर्वाण कैलाश पर्वत पर प्राप्त हुआ।
  • ऋषभदेव के 100 पुत्रों में से दो प्रसिद्ध हुए – भरत और बाहुबलि।
  • भरत चक्रवर्ती शासक और बाहुबलि तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध हुए।
  • बाहुबलि (गोमतेश्वर) की मूर्ति कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में है। यह भारत की सबसे ऊँची मूर्ति है।

प्रमुख तीर्थंकर –

  • दूसरे तीर्थंकर – अजितनाथ है, अजितनाथ का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है।
  • आठवें तीर्थंकर – चन्द्रप्रभु का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है।
  • नवें तीर्थंकर – पुष्पदत्त का उल्लेख भी अभिलेखों में मिलता है।
  • 19 वें तीर्थंकर – मल्लिनाथ है, श्वेताम्बर परम्परा मल्लिनाथ को स्त्री मानती है।
  • 22 वें तीर्थंकर – अरिष्टनेमि है, इसे श्रीकृष्ण का सम्बन्धी माना जाता है। शौर्यपुर (शौरसेन उत्तर प्रदेश) का राजकुमार बताया है।

पार्श्वनाथ – 23 वें तीर्थंकर

  • पार्श्वनाथ को जैन धर्म का ऐतिहासिक संस्थापक माना जाता है।
  • इनका जन्म वाराणसी (काशी, उत्तरप्रदेश) में हुआ था। इनकी माता का नाम – वामा और पिता का नाम – अश्वसेन था।
  • ये काशी के इक्ष्वाकु वंशीय अश्वसेन के पुत्र माने जाते हैं।
  • पार्श्वनाथ का काल महावीर से 250 ई. पूर्व माना जाता है।
  • 82 दिन कठोर तपस्या करने के बाद 83 वें दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इनका ज्ञान प्राप्ति के बारे में वर्णन बिजौलिया अभिलेख (भीलवाङा) में मिलता है। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में झारखण्ड में गिरिडेह जिले के ’सम्मेद पर्वत’ पर निर्वाण प्राप्त हुआ।
  • इनका प्रतीक चिह्न साँप था।
  • इनका अन्य नाम ’निगठनाथ’ है। बौद्ध साहित्य में इसे ’निगठनाथ’ कहते है।
  • पार्श्वनाथ के अनुयायी निगठ (निर्ग्रन्थ) कहलाते हैं। त्रिर्ग्रन्थ का अर्थ – बन्धन रहित होता है।
  • पार्श्वनाथ के चार मुख्य उपदेश थे – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह।

महावीर स्वामी का जीवन परिचय

 जन्म – 599 ई. पू. , 544 ई. पू.
 जन्मस्थान – वैशाली के समीप कुण्डग्राम
 जाति – क्षत्रिय
 कुल – ज्ञातृक कुल
 बचपन का नाम – वर्धमान
 पिता – सिद्धार्थ
 माता – त्रिशला
 पत्नी – यशोदा
 बङे भाई – नंदीवर्धन
 पुत्री – अणोज्या प्रियदर्शना
 दामाद – जामालि (प्रथम शिष्य)
 अन्य नाम – सन्मति, वीर, अतिवीर, निगठनाथपुत्त
 तपस्या – 12 वर्ष
 ज्ञान प्राप्ति स्थान – ऋजुपालिक
 ज्ञान प्राप्ति का वृक्ष – साल का वृक्ष
 मोक्ष (मृत्यु) – पावापुरी

महावीर स्वामी – जैनियों के 24 वें तीर्थंकर एवं जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक (Jain Dharm ke sansthapak) माने जाते हैं। इन्होंने छठी शताब्दी ई.पू. के जैन आंदोलन का प्रवर्तन किया। महावीर स्वामी जैन तीर्थकरों के अंतिम तीर्थंकर थे।

इनकी पत्नी यशोदा से जन्म लेने वाली महावीर की पुत्री ’प्रियदर्शना’ का विवाह जामालि नामक क्षत्रिय से हुआ, जामालि महावीर स्वामी का प्रथम शिष्य था। जो इनका दामाद भी था। जामालि ने ही भगवान महावीर के विरुद्ध पहला विद्रोह किया और दूसरा विद्रोह तिस्सगुप्त ने किया।

महावीर स्वामी की सत्यज्ञान की खोज प्रारम्भ

  • वर्धमान का मन संसार में नहीं लगता था। उनके मन में विरक्ति के भाव पैदा हो गए थे। इसलिए 30 वर्ष की उम्र में, उनके माता-पिता के निधन के बाद इन्होंने सत्यज्ञान की खोज के लिए अपने बङे भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर घर छोङ दिया और तपस्या करने लगे।
  • प्रारम्भ में उन्होंने वस्त्र धारण किये लेकिन बाद में भद्रबाहु के कल्पसूत्र के अनुसार भगवान महावीर ने गृहत्याग के 13 माह पश्चात वस्त्र त्याग दिए।
  • जैन ग्रंथ – आचारांग सूत्र, कल्प सूत्र में ही इसका रोचक व विस्तार से वर्णन किया गया है।
  • लोगों ने उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किये उन्हें पीटा गया। पत्थर फेंक गए। किन्तु उन्होंने कभी धैर्य नहीं छोङा।
  • इसी प्रकार भ्रमण करते हुए वे राजगृह पहुँचे जहाँ लोगों ने उनका सम्मान किया। दिगम्बर के मतानुसार महावीर स्वामी का प्रथम उपदेश राजगृह के वितुलाचल पर्वत बराकर नदी के तट पर हुआ।
  • वे नालंदा गये जहाँ उनकी भेंट – मक्खलि गोसाल नामक संन्यासी से हुई। वह महावीर स्वामी का शिष्य बन गया।
  • किन्तु छः वर्ष पश्चात महावीर की शिष्यता त्यागकर ’आजीवक’ नामक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की। यह संप्रदाय लगभग 1002 ई. तक बना रहा। इनका मत नियतिवाद कहा जाता है।

महावीर स्वामी को केवल्य (ज्ञान) कहाँ प्राप्त हुआ ?

बारह वर्ष की कठोर तपस्या एवं साधना के बाद 42 वर्ष की अवस्था में महावीर को जृम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे साल के वृक्ष नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ।

वर्धमान को केवल्य प्राप्ति के बाद प्राप्त नाम –

  • महावीर (महान है जो वीर)
  • कैवलिन (ज्ञानी पुरुष)
  • जितेन्द्रिय (जीत लिया)
  • जिन (जीतने वाला)
  • अहर्त (पूज्य)
  • निर्ग्रन्थ (बन्धनों से मुक्त)।

ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी की यात्रा –

  • वे आठ महीने तक भ्रमण करते रहे तथा वर्षाऋतु के शेष चार माह में पूर्वी भारत के विभिन्न नगरों में विश्राम किया।
  • जैन ग्रंथों में ऐसे नगर चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती, शामिल थे। वे कई बार बिम्बिसार तथा अजातशत्रु से मिले तथा सम्मान प्राप्त किया।
  • वैशाली का लिच्छवी सरदार चेटक उसका मामा था। जैन धर्म के प्रचार में उसका योगदान था। 30 वर्ष तक उन्होंने जैन धर्म का प्रचार किया।
  • भगवान महावीर ने सर्वप्रथम 11 ब्राह्मणों को उपदेश दिए जो ’गण’ कहलाते हैं।

महावीर ने अपने जीवन काल में ही एक संघ की स्थापना की जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये ‘गणधर’ कहलाए।

ग्यारह अन्य प्रधान शिष्य जिन्हें गणधर कहा जाता है –

  1. इंन्द्रभूति
  2. अग्निभूति
  3. वायुभूत और तीनों भाई
  4. व्यक्त
  5. सुधर्मन
  6. मंडित
  7. मोरियपुत्र
  8. अंकपित
  9. अचलभ्रता
  10. मेतार्थ
  11. प्रभास।

इनमें ’सुधर्मन गणधर’ सबसे प्रमुख था।

  • महावीर के जीवन काल में ही 10 गणधर की मृत्यु हो गई, महावीर के बाद केवल सुधर्मण जीवित था। जो संघ का अध्यक्ष बना।
  • महावीर स्वामी की मृत्यु 527 ईसा पूर्व लगभग 72 वर्ष की उम्र में राजगृह के समीप स्थित पावा (पावापुरी) राजा हस्तिपाल के यहाँ हुई।
  • उन्हें राजा सृष्टिपाल के राज प्रासाद में निर्वाण प्राप्त हुआ।
  • बौद्ध साहित्य में महावीर को ‘निगण्ठ-नाथपुत्त’ कहा गया है।
  • जैन दर्शन – जैन ग्रन्थ अचारांग सूत्र में महावीर की तपश्चर्या तथा कायाक्लेश का बङा ही रोचक वर्णन मिलता है।
  • महावीर स्वामी के पिता – सिद्धार्थ और माता – त्रिशला पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। इसीलिए महावीर स्वामी को ‘निगठनाथपुत’ कहते है।
  • लिच्छवी का दूसरा नाम – वज्जी है।

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम एवं उनके प्रतीक चिह्न

जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए और उनके प्रतीक चिन्ह निम्नलिखित है –

  24 तीर्थंकरों के नाम  प्रतीक चिह्न
(1) ऋषभदेवसांड
(2) अजितनाथहाथी
(3) सम्भवनाथघोङा
(4) अभिनन्दन नाथकणी
(5) सुमतिनाथसारस
(6) पदमप्रभुकमल
(7) सुपार्श्वनाथस्वास्तिक (महत्त्वपूर्ण)
(8) चन्द्रप्रभुचन्द्र
(9) सुविधिनाथमकर
(10) शीतल नाथश्रीवत्स
(11) श्रेयांसनाथगैंडा
(12) वासुपूज्य नाथभैंस
(13) विमलनाथसूकर
(14) अनंतनाथबाज
(15) धर्मनाथवज्र
(16) शान्तिनाथहिरन
(17) कुंथुनाथबकरा
(18) अरनाथनन्धावर्त
(19) मल्लिनाथपिचर कलश
(20) मुनिसुव्रतकच्छप
(21) नेमिनाथनीलकमल
(22) अरिष्टनेमिशंख
(23) पार्श्वनाथसर्प
(24) महावीर स्वामीसिंह

जैन धर्म के सिद्धांत –

(1) निवृत्ति मार्ग – इसमें सांसारिकता से दूर होने या पलायन की बात कही गई है क्योंकि सांसारिक लगाव ही दुःखों का मूल कारण है।

(2) नास्तिक – ये वेदों को अपौरुषेय नहीं मानते, इसलिए प्रमाणिक भी नहीं मानते। बौद्ध, चार्वाक, के साथ ही जैन धर्म भी नास्तिक माना जाता है।

(3) कर्म और पुनर्जन्म में विश्वास – जीव का जन्म और पुनर्जन्म होता है। ये जन्म और पुनर्जन्म कर्मों के प्रभाव से होता है।

(4) ईश्वर सृष्टि का रचयिता नहीं है – यह द्वैतवादी है अर्थात् दो तत्त्व जीव और अजीव को नित्य मानते हैं। जीव और अजीव अपना स्वरूप बदलते रहते हैं। जीव अनंत ज्ञान शक्ति, प्रकाश और आनंद से युक्त है इसलिए अपने आप में पूर्ण है। जीव अजीव से सृष्टि का निर्माण करता है।

(5) बन्धन और मोक्ष – जैन धर्म में बन्धन और मोक्ष प्रक्रिया के सात तत्त्व माने जाते है।

  1. जीव – चेतन तत्त्व/आत्मा
  2. पुद्गल – जङ तत्व को जैन जैन दर्शन में पुद्गल कहते हैं।
  3. आस्रव – कर्म का जीवन की ओर प्रवाह आस्रव कहलाता है।
  4. संवर – जब कर्म का प्रवाह जीव की ओर रुक जाये।
  5. निर्जरा – अवशिष्ट कर्म का जल जाना या पहले से विद्यमान कर्मों का क्षय हो जाना निर्जरा कहलाता है।
  6. बन्धन – कर्म का जीव के साथ संयुक्त हो जाना बन्धन कहलाता है।
  7. मोक्ष – जब अंतिम कर्म पुद्गल जीव से झङ जाता है या पृथक हो जाता है तो उसे मोक्ष कहते हैं।

जैन धर्म के त्रिरत्न कौनसे थे ?

मोक्ष प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने तीन उपाय बताए थे, जो आगे चलकर ’त्रिरत्न’ कहलाए।

जैन धर्म का दार्शनिक चिन्तन यही से आरंभ होता है-

(1) सम्यक् ज्ञान – जैन धर्म और उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सम्यक् ज्ञान के पाँच प्रकार बताये गये है –

  1. मति – इन्द्रिय-जनित ज्ञान
  2. श्रुति – श्रवण ज्ञान
  3. अवधि – दिव्य ज्ञान
  4. मनः पर्याय – अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क का ज्ञान।
  5. कैवल्य – पूर्ण ज्ञान (निर्ग्रन्थ एवं जितेन्द्रियों को प्राप्त होने वाला ज्ञान)।

(2) सम्यक् दर्शन – इसका अर्थ है जैन तीर्थंकरों एवं उनके उपदेशों में पूरी आस्था रखना।

(3) सम्यक् चरित्र – इसका अर्थ है मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर ही सत्य ज्ञान को प्राप्त कर सकता है।

जैन धर्म में दर्शन –

  1. अनेकांतवाद – बहुरूपता का सिद्धांत
  2. सप्तभंगनीय/स्यादवाद – सापेक्षिता का सिद्धांत
  3. नववाद – आंशिक दृष्टिकोण के सिद्धांत।

जैन धर्म के पंचमहाव्रत कौनसे थे ?

मोक्ष प्राप्ति के इन तीनों साधनों का पालन करने के लिए जैन दर्शन में गृहस्थ लोगों के लिए पाँच मुख्य नियम (महाव्रत) बताए हैं।

इनमें चार महाव्रत पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित है, ब्रह्मचर्य महाव्रत महावीर स्वामी ने बाद में जोङा था।जो निम्नलिखित है –

(1) अहिंसा – अहिंसा का अर्थ प्राणी मात्र के प्रति दया, समानता और उपकार भी भावना है। मन, वचन तथा कर्म से किसी के प्रति अहित की भावना नहीं रखना वास्तविक अहिंसा है।

(2) सत्य – महावीर ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक परिस्थिति में सत्य की बोलना चाहिए।

(3) अस्तेय – अस्तेय का अर्थ, चोरी नहीं करना है।

(4) अपरिग्रह – अपरिग्रह का अर्थ संग्रह नहीं करना होता है।

(5) ब्रह्मचर्य – इन चारों बातों का पालन तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि मनुष्य विषय-वासनाओं से दूर नहीं रहता।

महावीर कहते थे कि संसार के सुख-दुःख का कारण मनुष्य का अन्तःकरण है।

जैन धर्म के तीन गुणव्रत –

  1. दिग्व्रत – दिशाओं में भ्रमण की मर्यादा बांधता है।
  2. अनर्थ दण्डवत् – प्रयोजनहीन वस्तुओं का परित्याग।
  3. भोगापभोग – परिमाण अर्थात् भोग्य पदार्थों का परिमाण निर्धारण।

जैन साहित्य को ’आगम’ कहा जाता है।

आगम के भाग –

  • 12 अंग – जैन सिद्धांत दिये गये है।
  • 12 उपांग
  • 10 प्रकीर्ण – अंगों के परिशिष्ट
  • 6 छेद सूत्र – भिक्षुओं के नियम दिये गये है।
  • 4 मूल सूत्र – भिक्षुओं के नियम व आचरण दिये गये है।

जैन धर्म के दस लक्षण –

  1. उत्तम क्रमा – क्रोध हीनता
  2. उत्तम मार्दव – अहंकार का अभाव
  3. उत्तम मार्जव – सरलता एवं कुटिलता का अभाव
  4. उत्तम सोच – सांसारिक बंधनों से आत्मा से परे रखने की सोच।
  5. उत्तम सत्य – सत्य से गंभीर अनुरक्ति
  6. उत्तम संयम – सदा संयमित जीवन-यापन
  7. उत्तम तप – जीव को अजीव से मुक्त
  8. उत्तम अकिंचन – आत्मा के स्वाभाविक गुणों में आस्था
  9. उत्तम ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य व्रत का कङाई से अनुपालन।
  10. उत्तम त्याग – त्याग की भावना को सर्वोपरि रखना।

पंच अणुव्रत – गृहस्थों के लिए अनिवार्य था।

  1. अहिंसा अणुव्रत
  2. सत्य अणुव्रत
  3. अस्तेय अणुव्रत
  4. अपरिग्रह अणव्रत
  5. ब्रह्मचर्य अणुव्रत।

जैन धर्म के सात शीलव्रत –

  1. दिग्व्रत – अपनी क्रियाओं को विशेष परिस्थिति में नियंत्रित करना।
  2. देशव्रत – अपने कार्य कुछ विशिष्ट प्रदेशों तक सीमित रखना।
  3. अनर्थदण्ड व्रत – बिना कारण अपराध न करना।
  4. सामयिक – चिंतन के लिए कुछ समय निश्चित करना।
  5. प्रोषधोपवास – मानसिक एवं कायिक शुद्धि के लिए उपवास करना।
  6. उपभोग-प्रतिभोद परिणाम – जीवन में प्रतिदिन काम आने वाली वस्तुओं व पदार्थों को नियंत्रित करना।
  7. अतिथि संविभाग – अतिथि को भोजन कराने के उपरांत भोजन करना।

जैन धर्मानुसार ज्ञान के तीन स्रोत हैं –
(1) प्रत्यक्ष (2) अनुमान (3) तीर्थंकरों के वचन।

  • मोक्ष के पश्चात् जीवन आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इन्हें जैन शास्त्रों में अनन्त चतुष्ट्य की संज्ञा प्रदान की गई है।
  • स्यादवाद (अनेकान्तवाद) अथवा सप्तभंगीनय को ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त कहा जाता है।

जैन धर्म की प्रमुख संगीतियाँ कौनसी थी ?

  • जैन सम्प्रदाय में पहला विभाजन महावीर स्वामी के काल में हुआ था।
  • जैन सम्प्रदाय का सबसे प्रसिद्ध विभाजन दो रूप में हुआ। यह मतभेद – 300 ईसा पूर्व हुआ था।

1. प्रथम जैन संगीति कब हुई  ?

शासक – चन्द्रगुप्त मौर्य
स्थान – पाटलिपुत्र
अध्यक्ष – स्थूलभद्र
उपलब्धि – 12 देन की रचना
जैन धर्म के समुदाय – दिगंबर और श्वेताम्बर।

प्रथम संगीति के दौरान जैन धर्म दो शाखाओं में विभाजित हो गया।

1. तेरापन्थी (श्वेताम्बर)

2. समैया (दिगम्बर)।

  • भद्रबाहु एवं उनके अनुयायियों को दिगम्बर कहा गया। ये दक्षिणी जैनी कहे जाते थे।
  • स्थूलभद्र एवं उनके अनुयायियों को श्वेताम्बर कहा गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोगों ने ही सर्वप्रथम महावीर एवं अन्य तीर्थंकरों (पार्श्वनाथ) की पूजा आरम्भ की।

श्वेताम्बर सम्प्रदाय एवं दिगम्बर सम्प्रदाय में निम्नलिखित अन्तर है-

 आधार बिन्दु दिगम्बर श्वेताम्बर
 1. अनुयायीभद्रबाहु के अनुयायीस्थूलभद्र के अनुयायी
 2. वस्त्रदिगी है वस्त्र अर्थात दिशा और आकाश ही वस्त्र है। अर्थात ये नंगे रहते हैं।श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
 3. महावीर का विवाहमहावीर अविवाहित थे।महावीर का विवाह हुआ था। पत्नी – यशोदा पुत्री – प्रियदर्शना थी।
 4. मोक्षस्त्रियां मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती हैं।स्त्रियां मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। ये संप्रदाय 19 वें तीर्थंकर मल्लीनाथ को स्त्री मानते हैं।
 5. विचारधारारूढ़ीवादीसुधारवादी (मूर्तिपूजक)
 6. मार्गकठोर मार्गीलचीला मार्गी
 7. वस्त्रत्यागमोक्ष प्राप्ति हेतु वस्त्रत्याग आवश्यकवस्त्रत्याग आवश्यक नहीं
 8. आधारआगम साहित्य अप्रमाणिकआगम साहित्य प्रमाणिक

श्वेताम्बर और दिगम्बर विभाजन के कारण –

  • चन्द्रगुप्त मौर्य के समय पङने वाला 12 वर्षीय अकाल ’दुर्भिक्ष’ श्वेताम्बर और दिगम्बर विभाजन का कारण माना जाता है।
  • इस अकाल के कारण कुछ जैन संन्यासी भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत के श्रवण बेलगोला (कर्नाटक) चले गये, वे दिगम्बर कहलाये। ये महावीर स्वामी से चला आ रहा था।
  • ज्यादातर जैन अनुयायी स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में रह गये थे।
  • स्थूलभद्र ने अकाल का सामना करने के लिए जैन सिद्धान्तों में कुछ छूट दे दी। इसको अपनाने वाले श्वेताम्बर कहलाये।
  • भिक्षुओं के लिए पंच महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए पंच अणुव्रतों की व्यवस्था है।
  • जैन परम्परा के अनुसार अरिस्टनेमि भागवत धर्म के वासुदेव कृष्ण के समकालीन थे।

2. द्वितीय जैन संगीति कब हुई  ?

शासक – खारवेल
स्थान – सुपर्वत (उदयगिरी, उङीसा)
उपलब्धि – 12 अंगों पर पुनर्विचार

3. तृतीय जैन संगीति कब हुई  ?

स्थान – वेणाकतटीपुर (आन्ध्र प्रदेश) वेणाक नदी के किनारे
अध्यक्ष – अरहदवल्लि

4. चतुर्थ जैन संगीति कब हुई  ?

स्थान – 1. वल्लभी (गुजरात) अध्यक्ष नागार्जुन सूरी
2. मथुरा (उत्तर प्रदेश) अध्यक्ष – स्केदिल
समय – 300-313 ए डी (ईस्वी) में

5. पंचम जैन संगीति कब हुई  ?

स्थान – वल्लभी
समय – 513-526 ए डी (ईस्वी)
अध्यक्ष – देवर्धिश्रमन
उपलब्धि – 12 आगमों की रचना।

जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ कौनसी है ?

  • महावीर ने अपने उपदेश लोक भाषा प्राकृत में दिये थे। मगध में बोली जाने वाली प्राकृत मागधी कहलाती थी। प्राकृत भाषा में ही जैन साहित्य की रचना की गई।
  • जैन धर्म में संसार को दुःख मूलक माना गया है।
  • मनुष्य जरा, वृद्धावस्था, तथा मृत्यु से ग्रस्त है।
  • संसार में तृष्णाएँ व्यक्ति को घेरे रखती है। यही दुःख का मूल कारण है।
  • संसार-त्याग एवं संन्यास मार्ग ही व्यक्ति को सच्चे मार्ग पर ले जा सकता है।
  • जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना एवं पालन-पोषण सार्वभौमिक विधान से हुआ है।
  • सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया है।
  • संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार फल भोगते है।
  • कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है। कर्मफल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वााण की ओर अग्रसर होता है।

जैन धर्म का प्रचार-प्रसार कैसे हुआ ?

🔹 जैन धर्म का भारत के दक्षिण, पश्चिम में प्रसार हुआ। चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिणी में (कर्नाटक, श्रवणबेलगोला) जैन धर्म का प्रचार किया। श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में गोमतेश्वर/बाहुबलि की प्रतिमा है। कर्नाटक में अनेक जैन मठ बनाये गये, जिन्हें ’बसदि/बसाङि’ कहा जाता है।
🔸 महावीर स्वामी ने जैन धर्म की स्थापना के लिए संघ की स्थापना की। इस संघ में स्त्री तथा पुरुष दोनों को शामिल किया गया।
🔹 राजगृह में मेघकुमार को शिक्षा दी।
🔸 कुन्डग्राम में उन्होंने ’देवानन्दा ब्राह्मणी’ और विश्वदत्त को शिक्षा दी। उसी समय उन्होंने अपनी पुत्री प्रियदर्शना को भी दीक्षा दी।
🔹 इनकी प्रथम शिष्या अंगराज दधिवाहन एवं रानी पद्मावती की पुत्री ’चन्दना’ बनी।
🔸 महावीर के जमाता-जमालि थे। जमाली ने जो महावीर की बहन सुदर्शना का पुत्र था। महावीर के केवल्या के 12 वें वर्ष में विरोध किया – ’बहुतरवाद’ नामक सम्प्रदाय चलाया।
🔹 मगध के शासक बिम्बिसार तथा अजातशत्रु इसके संरक्षक थे। चन्द्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म के प्रति समर्पित था।
🔸 अशोक का पौत्र सम्प्रति एक समर्पित जैन था। जिस प्रकार अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए प्रचार-प्रसार किया उसी प्रकार सम्प्रति ने जैन धर्म के लिए कार्य किया। सम्प्रति को सुहस्तिन ने जैन धर्म में दीक्षित किया। सम्प्रति ने कुमारी पर्वत पर जैन साधुओं के लिए गुफाओं का निर्माण करवाया।

🔹 खारवेल को जैन धर्म का महान संरक्षक माना जाता है। उन्होंने खण्डगीरी उदयगिरी की पहाङियों पर जैन धर्म को गुफाएँ प्रदान की।
हाथीगुम्फा अभिलेख दावा करता है कि खारवेल ने मगध से जिन (महावीर स्वामी) की मूर्ति वापस लाया। जिसे मगध का नन्द शासक महापद्मनंद ले गया था। खारवेल ने एक जैन संगति का आयोजन किया था।
🔸 दक्षिण भारत के गंग, कदम्भ, राष्ट्रकूट, चालुक्य शासकों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया था।
🔹 राष्ट्रकूटों के काल में जिनसेन एवं गुणभद्र नामक कवि हुए। राष्ट्रकूटों का शासक अमोघवर्ष स्वयं जैन था। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम की देन है – एलोरा की गुफाएँ। इसकी संख्या 32 तथा 33 जैन धर्म से सम्बन्धित है।
🔸 राष्ट्रकूट शासक इन्द्र चतुर्थ ने सलेखना द्वारा प्राण त्याग दिये थे।
🔹 कुमारपाल चालुक्य वंश का शासक इसके राज्य के अन्दर हेमचन्द्र नामक जैन विद्वानों रहते थे।
🔸 राजस्थान के आबू पर्वत पर भीम प्रथम के मंत्री विमल ने संगमरमर से दिलवाङा का जैन मन्दिर बनवाया था।
🔹 इसलिए इसे विमलशाही के नाम से भी जाना जाता है। मुहम्मद बिन तुगलक ने जिन प्रभा सूरी को जैन जो कि एक जैन विद्वान था को संरक्षण दिया।
🔸 अकबर ने जैनाचार्य हरिविजय सूरी को जगत गुरु की उपाधि दी थी।

महावीर स्वामी ने तपस्या और उपासना को आवश्यक माना है –

  • महावीर ने आत्मा को वश में करने तथा उपर्युक्त पाँच नियमों का पालन करने के प्रयत्न में तपस्या और उपवास पर सबसे अधिक बल दिया।
  • महावीर आत्मा की अमरता में विश्वास करते थे।
  • जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है यानी इसके अनुसार ईश्वर नहीं है। वे आत्मा में विश्वास करते हैं।
  • ’भगवती सूत्र’ में – महावीर जैन व अन्य जैन मुनियों का जीवन चरित्र उल्लेखित है।
  • मनुष्य के कर्मों के कारण पैदा होने वाली सांसारिक वासना के बंधनों से आत्मा का बार-बार आवागमन होता रहता है और जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। इसलिए महावीर स्वामी का कथन था कि यदि वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली जाए तो कर्मों के बन्धन नष्ट हो सकेंगे और जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिलेगी।
  • जैन धर्म आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म और कर्मवाद में विश्वास रखता है।
  • जैनधर्म ने सप्तभंगी ज्ञान के अन्य नाम स्यादवाद और अनेकांतवाद है।
  • जैन धर्म का आध्यात्मिक विचार सांख्य दर्शन (प्रतिपादक -कपिल मुनि) से लिया गया है।
  • इन सभी बातों का उपदेश महावीर ने उस युग की जनता की भाषा अर्ध मागधी में किया।
  • महावीर ने जातिवाद व छूआछूत का विरोध किया तथा नारी को पूरा सम्मान दिया।
  • जैन दर्शन निवृत्तिमूलक है। इसके अनुसार सांसारिक जीवन में सुख नहीं है। अतः संसार का परित्याग कर कठोर तपस्या द्वारा मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।
  • जैन दर्शन में स्याद्वाद या अनेकान्तवाद, सहिष्णुता व समन्वय का मूल मंत्र है। महावीर ने कहा है कि किसी बात को एक ही पक्ष से मत देखो। उस पर एक तरह से ही विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सत्य हो सकता। किन्तु दूसरे जो कहते है वह भी सत्य हो सकता है।
  • जैन धर्म का दार्शनिक चिन्तन मूलतः आत्म कल्याण की ओर प्रवृत्त होने की ही प्रेरणा देता है।
जैन धर्म के प्रमुख मन्दिर
 1. श्रवणबेलगोला (कर्नाटक)
 2. रणकपुर
 3. देलवाङा (माउण्ट आबू) – विमलशाही (आदिनाथ को समर्पित), तेजपाल
 4. शंत्रुंजय पहाङी (पालीथान, गुजरात)
 5. पावापुरी (बिहार)

प्रारंभिक जैन-साहित्य किस भाषा में लिखा गया ?

  • सभी प्रारंभिक धार्मिक जैन साहित्य प्राकृत की विशिष्ट शाखा अर्ध-मागधी में लिखा गया है।
  • इसके बारह अंग अर्ध-मागधी में ही है।
  • बाद में जैन धर्म ने प्राकृत भाषा को अपनाया।

जैन धर्म की प्रमुख विशेषताएँ –

  • जैन धर्मानुसार यह संसार 6 द्रव्यों – जीव, पुद्गल (भौतिक तत्त्व), धर्म, अधर्म, आकाश और काल से निर्मित है।
  • जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है किन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है।
  • जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है पर सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारता है।
  • बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निन्दा नहीं की गई है।
  • महावीर के अनुसार पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य एवं पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च तथा निम्न कुल में होता है।
  • जैन धर्म पुनर्जन्म तथा कर्मवाद में विश्वास करता है। उनके अनुसार कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है।
  • जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बन्धनों से मुक्ति प्राप्त करने के उपाय बताए गये हैं।
  • जैन धर्म में अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है। इसमें कृषि एवं युद्ध में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।
  • राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल में दक्षिणी भारत में जैन धर्म 11 वीं तथा 12 वीं शताब्दियों में अधिक लोकप्रिय रहा।
  • जैनों के उत्तर भारत में दो प्रमुख केन्द्र उज्जैन एवं मथुरा थे।
  • दिलवाङा में कई जैन तीर्थंकरों जैसे आदिनाथ, नेमिनाथ आदि के मंदिर तथा खजुराहों में पार्श्वनाथ, आदिनाथ आदि के मंदिर हैं।
  • तीर्थंकर – जैन धर्म में उसके संस्थापक एवं जितेन्द्रिय तथा ज्ञान प्राप्त महात्माओं की उपाधि थी।

सल्लेखना परम्परा क्या है ?

जैन दर्शन में ’सल्लेखना’ का भी उल्लेख हुआ है। सल्लेखना शब्द सत्+लेखना शब्द से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है – अच्छाई का लेखा जोखा। जब व्यक्ति उपवास के द्वारा अपने प्राणों का त्याग करता है। सल्लेखना को निष्प्रतीकारमरण वयकुण्ठ (वय यानि ’आयु कुण्ठित’ यानी क्षीण या नष्ट हो जाना) भी कहा जाता है। जिस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन साधु भद्रबाहु से जैन धर्म की शिक्षा लेकर श्रवणबेलगोला में उपवास के द्वारा अपना शरीर त्याग दिया था।

संथारा प्रथा क्या है ?

जैन धर्म में एक धार्मिक परम्परा ’संथारा प्रथा’ भी है। इस प्रथा के अनुसार – जब किसी व्यक्ति को लगता है कि वह मृत्यु के निकट है तो वह एकांतवास ग्रहण कर लेता है और अन्नजल त्याग देता है और मौनव्रत धारण कर लेता है। इसके बाद वह किसी भी दिन देह त्याग देता है।

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