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Bhasha Kaushal and Types – भाषा कौशल व इसके प्रकार – CTET EXAM

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:12th May, 2022| Comments: 0

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आज के आर्टिकल में हम शिक्षण में भाषा कौशल (Bhasha Kaushal)  की उपयोगिता के बारे में विस्तार से पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्य को क्लियर करेंगे ।

इस आर्टिकल में हम क्या क्या पढेंगे ?

  • श्रवण कौशल
  • वाचन कौशल
  • पठन कौशल
  • लेखन कौशल
  • भाषा कौशल क्या है ?
  • भाषा कौशल की गतिविधियां
  • भाषा कौशल के उद्देश्य
  • भाषा के आधारभूत कौशल

भाषा कौशल (Bhasha Kaushal)

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में अन्य व्यक्तियों से सम्प्रेषण स्थापित करने के लिए वह बोलकर या लिखकर अपने भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करता है तथा सुनकर या पढ़कर उनके विचारों को ग्रहण करता है।

भाषा से सम्बन्धित इन चारों क्रियाओं के प्रयोग करने की क्षमता को भाषा-कौशल (Bhasha Kaushal) कहा जाता है। इनका विकास एवं इनमें दक्षता प्राप्त करना ही भाषा शिक्षण का उद्देश्य है। भाषा शिक्षण के लिए आवश्यक चारों कौशल परस्पर एक-दूसरे से अन्तःसम्बन्धित होते हैं अर्थात् प्रत्येक कौशल का विकास किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर करता है।

भाषा कौशल (Bhasha Kaushal) को चार प्रकारों में विभाजित किया गया है-

1. श्रवण कौशल (सुनना)

2. वाचिक या मौखिक अभिव्यक्ति कौशल (विचारों को बोलकर व्यक्त करने का कौशल)

3. पठन कौशल (पढ़कर अर्थ ग्रहण करने का कौशल)

4. लेखन कौशल (विचारों को लिखकर व्यक्त करने का कौशल)।

भाषा-शिक्षण का सम्बन्ध केवल ज्ञान प्रदान करना या सूचनाएँ प्रदान करना मात्र नहीं है, बल्कि भाषा सीखने वालों को उपरोक्त चारों कौशलों में दक्ष बनाना है। श्रवण एवं पठन कौशल ग्राह्यात्मक कौशल तथा अन्य दोनों वाचिक एवं लेखन कौशल अभिव्यंजनात्मक कौशल कहे जाते हैं।

रेफरल कोड क्या होता है ?

श्रवण कौशल
श्रवण कौशल

Read: रेफरल कोड क्या होता है ?

Table of Contents

  • Read: रेफरल कोड क्या होता है ?
  • श्रवण कौशल का अर्थ-
  • श्रवण कौशल शिक्षण का महत्त्व –
  • श्रवण कौशल शिक्षण के उद्देश्य-
  • श्रवण कौशल की शिक्षण विधियाँ –
  • श्रवण कौशल के शिक्षण हेतु दृश्य-श्रवण सहायक सामग्री-
  • वाचन कौशल
  • मौखिक अभिव्यक्ति का महत्त्व –
  • मौखिक भाव प्रकाशन शिक्षण के उद्देश्य-
  • मौखिक अभिव्यक्ति की विशेषताएँ –
  • मौखिक भाव प्रकाशन से सम्बन्धित शिक्षक की सावधानियाँ –
  • पठन कौशल –
  • पठन के प्रकार –
  • लेखन कौशल
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श्रवण कौशल का अर्थ-

  • श्रवण कौशल का सम्बन्ध ’कर्ण’ अर्थात् कानों से है। श्रवण शब्द का अर्थ सामाजिक प्रसंग में सुनने से ग्रहण किया जाता है। छात्र कविता, कहानी, भाषण, वाद-विवाद, वार्तालाप आदि का ज्ञान सुनकर ही प्राप्त करता है और उसका अर्थ भी ग्रहण करता है।
  • यदि छात्र की श्रवण-इन्द्रियों में दोष है, तो वह न भाषा के वाचिक कौशल को सीख सकता है और न ही बोलकर अपने मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकता है। अतः उसका भाषा ज्ञान शून्य के बराबर ही रहेगा। क्योंकि बालक सुनकर ही अनुकरण द्वारा भाषा ज्ञान अर्जित करता है।

श्रवण कौशल शिक्षण का महत्त्व –

श्रवण कौशल शिक्षण का महत्त्व निम्न प्रकार वर्णित है-

  • बच्चा जन्मोपरान्त ही सुनने लग जाता है। ये ध्वनियाँ उसके मन-मस्तिष्क पर अंकित हो जाती है और बच्चे के भाषा ज्ञान का आधार बनती हैं। अच्छी प्रकार से सुनने के कारण ही बालक ध्वनियों के सूक्ष्म अन्तर को समझ पाता है।
  • श्रवण-कौशल ही अन्य भाषायी कौशलों को विकसित करने का प्रमुख आधार बनता है।
  • इससे ध्वनियों के सूक्ष्म अन्तर को पहचानने की क्षमता विकसित होती है।
  • इसे अध्ययन की आधारशिला भी कहा जाता है। इससे वाचन कौशल का विकास होता है।
  • इससे लेखन के विकास में भी सहायता मिलती है। यह व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक है।

श्रवण कौशल शिक्षण के उद्देश्य-

  • श्रुत सामग्री को भली-भाँति समझकर/सुनकर अर्थ ग्रहण करने की योग्यता का विकास करना।
  • छात्रों में भाषा व साहित्य के प्रति रुचि पैदा करना।
  • छात्रों को साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेने व सुनने के लिए प्रेरित करना।
  • श्रुत सामग्री का सारांश ग्रहण करने की योग्यता विकसित करना।
  • धैर्यपूर्वक, सुनना, सुनने के शिष्टाचार का पालन करना।
  • ग्रहणशीलता की मनःस्थिति बनाए रखना। शब्दों, मुहावरों व उक्तियों का प्रसंगानुकूल भाव व अर्थ समझ सकना।
  • किसी भी श्रुत सामग्री को मनोयोगपूर्वक सुनने की प्रेरणा प्रदान करना।
  • श्रुत सामग्री के विषय में महत्त्वपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी विचारों भावों एवं तथ्यों का चयन करने की क्षमता विकसित करना।
  • छात्रों की मौलिकता में वृद्धि करना।
  • छात्रों का मानसिक एवं बौद्धिक विकास करना।
  • स्वराघात, बलाघात व स्वर के उतार-चढ़ाव के अनुसार अर्थ ग्रहण करने की योग्यता का विकास करना।
  • भावानुभूति कर सकना, भावाभिव्यक्ति के ढंग को समझ सकना।
  • भावों, विचारों व तथ्यों का मूल्यांकन कर सकना।

श्रवण कौशल की शिक्षण विधियाँ –

1. सस्वर वाचन – छात्र अध्यापक द्वारा किए गए आदर्श वाचन और कक्षा में किसी अन्य छात्र द्वारा किए जाने वाले अनुुकरण वाचन को ध्यानपूर्वक सुनकर शुद्ध उच्चारण, यति, गति, आरोह-अवरोह आदि का ज्ञान प्राप्त करता है।

2. प्रश्नोत्तर विधि – कक्षा-कक्ष शिक्षण के दौरान अध्यापक पठित सामग्री को आधार बनाकर छात्रों से प्रश्न पूछता है, छात्रों के उत्तर से इस तथ्य का मूल्यांकन हो जाता है कि छात्रों ने सुनकर विषय-वस्तु को ग्रहण किया है या नहीं। पठित सामग्री के आधार पर प्रश्न पूछने से छात्र सावधान भी हो जाएँगे और कक्षा में पढ़ाई गई बातों को ध्यानपूर्वक सुनेंगे।

3. कहानी कहना व सुनना विधि- अध्यापक बच्चों को कहानी सुनाए और बाद में उसी कहानी को बच्चों से सुनें। इससे पता लग जाएगा कि छात्रों ने कहनी सुनी या नहीं। कहानी के द्वारा बच्चों का ध्यान सुनने की तरफ आकर्षित किया जा सकता है।

4. श्रुतलेख विधि- वैसे तो श्रुतलेख लेखन कौशल को विकसित करने का साधन है, परन्तु इसकी सहायता से श्रवण कौशल को भी विकसित किया जा सकता है। श्रुतलेख सुनकर लिखना होता है, जो छात्र ध्यान से सुनेगा वह पूरी सामग्री को लिख लेगा, जो छात्र ध्यान से नहीं सुनेगा उसके लेख के बीच-बीच में शब्द या वाक्यांश छूट जाएँगे।

5. भाषण विधि – भाषण श्रवण-कौशल का प्रशिक्षण देने में भी प्रयुक्त किया जाता है। प्रायः यह मौखिक कौशल को विकसित करने का साधन है किन्तु छात्रों को पहले यह बता दिया जाता है कि भाषण को ध्यान से सुनें। भाषण समाप्ति के उपरान्त उनसे प्रश्न पूछे जाएँगे। प्रश्नों के उत्तरों से यह पता लग जाता है कि छात्रों ने भाषण ध्यान से सुना है अथवा नहीं।

श्रवण कौशल के शिक्षण हेतु दृश्य-श्रवण सहायक सामग्री-

ग्रामोफोन एवं टेपरिकाॅर्डर – ग्रामोफोन एवं टेपरिकाॅर्डर सामान्यतः मनोरंजन के साधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं, लेकिन श्रवण-कौशल को विकसित करने के लिए टेपरिकाॅर्डर का प्रयोग रोचक साधन के रूप में किया जा सकता है। यह ज्यादा कीमती नहीं है, इसलिए इसे विद्यालय में आसानी से खरीदा जा सकता है।

इसके द्वारा कविता, कहानी, महान् पुरुषों के भाषण, वार्ता आदि सुनाकर बच्चों के श्रवण कौशल का विकास किया जा सकता है। टेपरिकाॅर्डर के द्वारा छात्रों को किसी भी समय एकत्रित किए गए भाषण, परिचर्चाएँ इत्यादि सुना सकते हैं। तत्पश्चात् छात्रों से प्रश्न पूछ कर उनके श्रवण कौशल की भी जाँच की जा सकती है।

रेडियो – रेडियो के द्वारा आकाशवाणी से छात्रों के लिए तरह-तरह के उपयोगी शैक्षिक एवं मनोरंजक कार्यक्रम समय-समय पर प्रसारित किए जाते हैं। श्रवण कौशल को विकसित करने में रेडियो भी एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

चलचित्र –चलचित्र में आवाज सुनाई देने के साथ-साथ दृश्य भी दिखाई देते हैं। बच्चे हर दृश्य को बहुत ध्यान से देखते हैं। अतः शैक्षिक चलचित्रों का प्रयोग भाषा शिक्षण को रोचक बना देता है। इसके अतिरिक्त टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम भी श्रवण कौशल के विकास में सहायक होते हैं।

वीडियो – जैसे किसी भी वार्ता को टेप करके टेपरिकाॅर्डर द्वारा भी सुनाया जाता है, ठीक उसी तरह किसी कार्यक्रम को रिकाॅर्ड कर वीडियो के द्वारा टेलीविजन पर दिखाया जा सकता है। प्रतिष्ठित विद्वानों के भाषण, वार्ता एवं विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों के कैसेट लाकर दिखाए जा सकते हैं उससे श्रवण कौशल के साथ मौखिक कौशल विकसित करने में सहायता मिलती है।

कम्प्यूटर – आधुनिक युग विज्ञान का युग है। प्रौद्योगिकी ने हमारे जीवन में क्रान्ति ला दी है। कम्प्यूटर की सहायता से भी छात्र के श्रवण कौशल को विकसित किया जा सकता है। प्रतिष्ठित व्यक्तियों के भाषण, वार्ता आदि का वीडियो व अन्य शैक्षिक कार्यक्रम भी कम्प्यूटर द्वारा दिखाए जा सकते हैं।

vachan koushal
vachan koushal

वाचन कौशल

मौखिक अभिव्यक्ति कौशल – मानव प्रधानतः अपनी अनुभूतियों तथा मनोवेगों की अभिव्यक्ति मौखिक भाषा में ही करता है। लिखित भाषा तो गौण तथा उसकी प्रतिनिधि मात्र है, क्योंकि भावों की अभिव्यक्ति का साधन साधारणतः उच्चरित भाषा ही होती है।

आधुनिक जनतान्त्रिक युग में जीवन की सफलता के लिए मौखिक भाव-प्रकाशन या वाणी उतना ही आवश्यक और अनिवार्य है, जितना कि स्वयं हमारा जीवन। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति को प्रतिपल मौखिक आत्माभिव्यक्ति की शरण लेनी पङती है।

मौखिक अभिव्यक्ति का महत्त्व –

  • मौखिक भाषा ही अभिव्यक्ति का सहज व सरलतम माध्यम है तथा भाषा की शिक्षा मौखिक भाषा से प्रारम्भ होती है।
  • मौखिक अभिव्यक्ति में अनुकरण और अभ्यास के अवसर बराबर मिलते रहते हैं। मौखिक भाषा के प्रयोग में कुशल व्यक्ति, अपनी वाणी से जादू जगा सकता है, लोकप्रिय नेताओं के भाषण इसी बात का प्रमाण है।
  • मौखिक भाषा के द्वारा विचारों के आदान-प्रदान से नई-नई जानकारियाँ मिलती हैं। अशिक्षित व्यक्ति बोलचाल के द्वारा ही ज्ञान-अर्जित करता है। रोजमर्रा के कार्य-कलापों में मौखिक भाषा प्रयुक्त होती है।
  • सामाजिक सम्बन्धों के सुदृढ़ बनाने में एवं सामाजिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करने में मौखिक भाषा की प्रमुख भूमिका होती है।

मौखिक भाव प्रकाशन शिक्षण के उद्देश्य-

  • बालकों का उच्चारण शुद्ध एवं परिमार्जित हो।
  • छात्रों को शुद्ध उच्चारण, उचित स्वर, उचित गति के साथ बोलना सिखाना। छात्रों को निस्संकोच होकर अपने विचार व्यक्त करने के योग्य बनाना।
  • छात्रों को व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग करना सिखाना।
  • छात्र सरल एवं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करना सीखें तथा बोलने में विराम चिह्नों का ध्यान रखना सिखाना।
  • विषयानुकूल एवं प्रसंगानुकूल शैली का प्रयोग करना सिखाना।
  • छात्र में स्वाभाविक ढंग से परस्पर वार्तालाप करने की आदत विकसित करना। छात्रों को धाराप्रवाह, प्रभावोत्पादक वाणी में बोलना सिखाना।

मौखिक अभिव्यक्ति की विशेषताएँ –

स्वाभाविकता – बोलने में स्वाभाविकता हो, बनावटी बोली का प्रयोग हास्यास्पद हो सकता है। अस्वाभाविक भाषा वक्ता को अविश्वसनीय बना देती है। स्वाभाविक भाषा विश्वसनीय होती है।

स्पष्टता – मौखिक अभिव्यक्ति का दूसरा गुण है – स्पष्टता। बोलने में स्पष्टता होना अति आवश्यक है। जो बात कही जाए वह स्पष्ट व साफ होनी चाहिए।

शुद्धता – बोलते समय शुद्ध उच्चारण होना चाहिए अशुद्ध उच्चारण से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

बोधगम्य – मौखिक अभिव्यक्ति में सरल व सुबोध भाषा का प्रयोग करना चाहिए।

सर्वमान्य भाषा – अप्रचलित शब्दों के प्रयोग से वार्तालाप नीरस हो जाता है।

शिष्टता – वार्तालाप करते समय शिष्टाचार का ध्यान रखना चाहिए। अशिष्टता सम्बन्धों को बिगाङ देती है। शिष्टता मौखिक भाव-प्रकाशन का एक अन्य गुण है।

मधुरता – मौखिक भाव-प्रकाशन का अन्य गुण है – मधुरता। कहा भी गया है – ’कोयल काको देत है कागा काको लेत, वाणी के कारणेन मन सबको हर लेत।’ मीठी वाणी का प्रयोग कर मनुष्य किसी (दुश्मन) को भी अपना बना सकता है।

प्रवाहमयता – विराम चिह्नों के उचित प्रयोग से अभिव्यक्ति में सम्यक् गति आ जाती है। अतः मौखिक भाव-प्रकाशन में उचित प्रवाहमयता होनी चाहिए।

अवसरानुकूल – मौखिक भाव-प्रकाशन की अन्य विशेषता है अवसरानुकूल भाषा का प्रयोग। हर्ष, उल्लास, सुख-दुःख, दया, करुणा, सहानुभूति प्यार आदि भावों को अवसर के अनुकूल व्यक्त करते हैं।
श्रोताओं के अनुकूल भाषा मौखिक अभिव्यक्ति की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सुनने वाले कौन हैं? किस स्तर के हैं? उसके अनुकूल ही भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
मौखिक अभिव्यक्ति कौशल की शिक्षण विधियाँ –
वार्तालाप –
शिक्षण सामग्री या पाठ्य विषय पढ़ाते हुए या अन्य मौकों पर छात्रों के साथ अध्यापक वार्तालाप करते हैं। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह प्रत्येक छात्र को वार्तालाप में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। वार्तालाप का विषय छात्रों के मानसिक, बौद्धिक स्तर के अनुसार ही होना चाहिए।
सस्वर वाचन –
पाठ पढ़ाते समय पहले शिक्षक को स्वयं आदर्श वाचन करना चाहिए, बाद में कक्षा के छात्रों से अनुकरण वाचन या सस्वर वाचन कराना चाहिए। सस्वर वाचन से छात्रों की झिझक व संकोच खत्म होता है।
प्रश्नोत्तर –
सामान्य विषयों पर या पाठ्य-पुस्तकों से सम्बन्धित पाठों पर प्रश्न पूछने चाहिए। अगर छात्रों का उत्तर अपूर्ण या अशुद्ध है, तो सहानुभूति पूर्ण ढंग से उत्तर को पूर्ण व शुद्ध कराया जाए।
कहानी सुनाना – मौखिक भाव-प्रकाशन विकसित करने की एक विधि कहानी सुनाना भी है। छोटे बच्चे कहानियाँ सुनना पसन्द करते हैं। अतः अध्यापक को पहले स्वयं कहानी सुनानी चाहिए। बाद में छात्रों से कहानी सुनानी चाहिए।
चित्र वर्णन – प्रायः छोटी कक्षाओं के बच्चे चित्र देखने में रुचि लेते है। उदाहरणार्थ ’गाय’ का चित्र दिखा कर गायों के बारे में छात्रों से पूछा जा सकता है व छात्रों को बताया जाता है। इसी प्रकार चित्र की सहायता से कहानी भी सुनाई जा सकती है।
कविता सुनना व सुनाना – छोटे बच्चे कविता या बालोचित गीत सुनाने व सुनने में काफी रुचि लेते हैं अतः कविताएँ कण्ठस्थ कराके उन्हें कविता पाठ के लिए प्रेरित करना चाहिए। अतः कविता पाठ मौखिक भाव-प्रकाशन की शिक्षा देने का अन्य उपयोगी साधन है।
वाद-विवाद – बालकों के मानसिक व बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखकर वाद-विवाद करवाया जा सकता है। अपने विचारों का तर्कपूर्ण ढंग से प्रतिपादन करने का प्रशिक्षण देने के लिए वाद-विवाद एक उत्तम साधन है।
पाठ का सार – पाठ्य-पुस्तक के किसी पाठ या रचना को पढ़कर छात्र से उस पाठ का सार सुनना मौखिक अभिव्यक्ति का अन्य उपयोगी साधन है।
भाषण – ’भाषण’ भाव-प्रकाशन का एक सशक्त साधन है, परन्तु ’भाषण’ छात्रों के मानसिक एवं बौद्धिक स्तर के अनुकूल होना चाहिए।
नाटक प्रयोग – नाटक द्वारा भावाभिव्यक्ति का अच्छा अभ्यास हो जाता है। रंगशाला में बालक को आंगिक, वाचिक एवं भावों के अभिनय की दीक्षा सफलतापूर्वक मिल सकती है।
स्वतन्त्र आत्मप्रकाशन – बालकों को विभिन्न घटनाओं दृश्यों या व्यक्तिगत जीवन से जुङे अनुभव सुनाने का अवसर देकर अध्यापक मौखिक भाषा का अभ्यास करा सकता है।

मौखिक भाव प्रकाशन से सम्बन्धित शिक्षक की सावधानियाँ –

⇒ बच्चों की त्रुटियों को ठीक कराने के लिए स्वर यन्त्रों को साधा जाए। यदि प्राकृतिक कारणों से बालक शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता है, तो उसके माता-पिता को सूचित करना चाहिए एवं डाॅक्टरों से उचित चिकित्सा करवानी चाहिए।
⇒ शिक्षक स्वयं बोलने का दृष्टान्त पेश करें, जिसमें तेजी, शीघ्रता व क्रोध न हो।
⇒ बालकों में किसी प्रकार का संकोच न आने पाए।
⇒ बोलने में कठिनाई अनुभव करने वाले छात्रों को अधिक-से-अधिक बोलने व पढ़ने का अवसर मिलना चाहिए। जिससे उनमें धीरे-धीरे साहस व स्वावलम्बन का विकास हो। कई बार बच्चा मनोवैज्ञानिक कारणों से भी हकलाने लगता है और अशुद्ध उच्चारण की आदत पङ जाती है। अतः बच्चे के मन से भय, झिझक की भावना निकाल कर अभ्यास द्वारा यह कठिनाई दूर की जा सकती है।
⇒ भाषा क्षेत्रीयता प्रान्तीयता व व्याकरण दोषों से रहित हो। बोलते समय सस्वरता व भावानुसार वाणी के उतार चढ़ाव पर भी ध्यान देना चाहिए।

पठन कौशल
पठन कौशल

पठन कौशल –

सामान्यत: पठन कौशल का अर्थ भाषा की लिपि को पहचान कर उच्चरित करना तथा अर्थ ग्रहण करना है। पठन कौशल के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भाषाविदों ने उसे जहाँ मनोवैज्ञानिक पक्ष से जोङने का प्रयास किया है, वहीं इसे शारीरिक पक्ष से भी जोङा है। पठन कौशल स्वयं में अर्थ ग्रहण का कौशल माना गया है। यही कारण है कि भाषा शिक्षण के सन्दर्भ में पठन कौशल पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है, क्योंकि सभी विषयों का ज्ञानार्जन इसी कौशल पर आधारित होता है।
भाषा शिक्षण की प्रक्रिया में छात्र इससे पूर्व श्रवण कौशल तथा मौखिक अभिव्यक्ति से परिचित हो चुका होता है। इस कौशल के अन्तर्गत सुनी हुई ध्वनि को छपे हुए लिपि प्रतीकों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सस्वर अथवा मौन रूप से पढ़ते हुए उसमें निहित भावों एवं विचारों को ग्रहण करना सीखता है। इस प्रकार पठन कौशल, श्रवण कौशल एवं मौखिक अभिव्यक्ति कौशल पर आधारित है।

पठन के प्रकार –

पठन के दो प्रकार हैं – सस्वर पठन एवं मौन पठन।
1. सस्वर पठन –
स्वर सहित पढ़ते हुए अर्थ ग्रहण करने को सस्वर पठन कहा जाता है। यह पठन की प्रारम्भिक अवस्था होती है। वर्णमाला के लिपिबद्ध वर्णों की पहचान सस्वर पठन के द्वारा ही कराई जाती है।
सस्वर पठन में निम्न गुण पाए जाते हैं-
⇒ सस्वर पठन भावानुकूल करना चाहिए।
⇒ सस्वर पठन करते समय विराम चिह्नों का ध्यान रखना चाहिए।
⇒ सस्वर पठन करते समय शुद्धता एवं स्पष्टता का ध्यान रखना चाहिए।
⇒ स्वर में यथा सम्भव स्थानीय बोलियों का पुट नहीं होना चाहिए।
⇒ सस्वर पठन में आत्मविश्वास का होना आवश्यक है।
सस्वर पठन को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है-
(1) वैयक्तिक पठन – एक व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले सस्वर पठन को व्यक्तिगत पठन कहते हैं। माध्यमिक कक्षाओं में पठन प्रायः वैयक्तिक ढंग से होता है। शिक्षक सुनकर छात्रों की उच्चारण सम्बन्धी त्रुटियों का निवारण करता है। इस विधि में पठन दोषों का निदान सरलता से हो जाता है और उपचारात्मक शिक्षण के लिए व्यक्तिगत रूप से ध्यान देने में शिक्षक को सरलता होती है।
(2) सामूहिक पठन – दो-या-दो से अधिक छात्रों द्वारा किए जाने वाले पठन को सामूहिक पठन कहते हैं। इस पठन से बच्चों (छात्रों) की झिझक दूर होती है। उनमें मौखिक अभिव्यक्ति के लिए आत्मविश्वास का संचार पैदा होता है। सामूहिक पठन 13-14 वर्ष की आयु तक के बालकों के लिए ही किया जाए। छात्रों की संख्या बहुत अधिक न हो, ताकि पङौसी कक्षा की शान्ति भंग न हो।
2. मौन पठन
लिखित सामग्री को चुपचाप बिना आवाज निकाले पढ़ना मौन पठन कहलाता है।
मौन पठन का महत्त्व निम्न प्रकार है-
⇒ मौन पठन में थकान कम होती है, क्योंकि इसमें वाग्यन्त्रों पर जोर नहीं पङता। मौन वाचन में नेत्र तथा मस्तिष्क सक्रिय रहते हैं।
⇒ मौन पठन के समय पाठक एकाग्रचित होकर व ध्यान केन्द्रित करके पढ़ता है।
⇒ मौन पठन में समय की बचत होती है। श्रीमती ग्रे एवं रीस के एक परीक्षण द्वारा यह पता चलता है कि कक्षा छह के बालक एक मिनट में सस्वर पठन में 170 शब्द बोलते हैं और मौन पठन में इतने समय में 210 शब्द बोलते हैं।
⇒ मौन पठन कक्षा में अनुशासन बनाए रखने में सहायक है। चिन्तन करने में मौन पठन सहायक है।
⇒ स्वाध्याय की रुचि जागृत करने में मौन पठन सहायक है। गहन अध्ययन वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे मौन पठन का अभ्यास हो।

मौन पठन के उद्देश्य –

⇒ पठित सामग्री के केन्द्रीय भाव को समझना
⇒ अनावश्यक स्थलों को छोङते हुए, मूल तथ्यों का चयन करना।
⇒ पठित सामग्री का निष्कर्ष निकालना।
⇒ पठित सामग्री पर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दे सकना।
⇒ भाषा एवं भाव सम्बन्धी कठिनाइयाँ सामने रख सकना।
⇒ शब्दों का लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ जान लेना।
⇒ अनुक्रमणिका, परिशिष्ट, पुस्तक-सूची आदि के प्रयोग की योग्यता प्राप्त कर लेना।
⇒ उपसर्ग, प्रत्यय, सन्धि-विच्छेद द्वारा शब्द का अर्थ जान लेना।
मौन पठन के भेद –
मौन पठन के दो भेद होते हैं – गम्भीर वाचन एवं द्रुत वाचन।
(1) गम्भीर पठन –

  • भाषा पर अधिकार करना
  • विषय-वस्तु पर अधिकार करना
  • नवीन सूचना एकत्र करना
  • केन्द्रीय भाव की खोज करना

(2) द्रुत पठन –

  • सीखी हुई भाषा का अभ्यास करना
  • साहित्य से परिचय प्राप्त करना
  • आनन्द प्राप्त करना
  • खाली समय का सदुपयोग
  • द्रुत पठन के माध्यम से सूचनाएँ एकत्रित करना

पठन कौशल का महत्त्व-

पठन कौशल का महत्त्व निम्न प्रकार है-
⇒ पठन कौशल विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास में विशेष रूप से सहायक है। विद्यार्थी पुस्तकों का अध्ययन करके अपने उच्चारण को शुद्ध कर सकता है।
⇒ पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें, समाचार-पत्र इत्यादि को पढ़कर विद्यार्थी अपने शब्द भण्डार में वृद्धि कर सकता है।
⇒ पठन कौशल द्वारा विद्यार्थी अपने व्याकरणिक ज्ञान में वृद्धि कर सकता है। पठन कौशल विद्यार्थी के अन्य भाषायी कौशलों श्रवण, वाचन व लेखन में निपुणता प्राप्त करने में सहायक है।
⇒ पठन कौशल द्वारा विद्यार्थी पढ़ने के साथ चित्रों को भी देखता है, जिससे उसके ज्ञान का सामान्यीकरण होता है।
⇒ महान् व्यक्तियों की जीवनियाँ एवं आत्मकथाएँ पढ़कर व्यक्ति उनके आदर्श गुणों का आत्मसात कर सकता है।
⇒ आधुनिक युग ’विशिष्टताओं’ का युग है, व्यक्ति जिस भी व्यवसाय में है वह विशिष्टता प्राप्त करना चाहता है, नवीनतम जानकारी प्राप्त करना चाहता है, यह जानकारी उसे पुस्तकों से मिलती हैं।
⇒ ’पठन’ मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन है। घर में, उपवन में, यात्रा में व्यक्ति कहीं भी अपनी बोरियत को दूर करने के लिए, कहानी, पत्रिका इत्यादि पढ़कर समय का सदुपयोग कर सकता है।
⇒ सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक विकास के लिए आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकसित होना आवश्यक है। आलोचनात्मक दृष्टिकोण के विकास के लिए अध्ययन अति आवश्यक है और ’अध्ययन’ पठन का ही एक रूप है।
पठन कौशल के उद्देश्य-
पठन कौशल के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-
⇒ बालकों को स्वर के आरोह-अवरोह का ऐसा अभ्यास करा दिया जाए कि वे यथाअवसर भावों के अनुकूल स्वर में लोच देकर पढ़ सकें।
⇒ बालकों को पठन के माध्यम से शब्द-ध्वनियों का पूर्ण ज्ञान कराया जाए, जिससे छात्र स्वरतंत्रियों का प्रयोग करके शुद्ध पठन कर सके।
⇒ पठन के माध्यम से शब्दों पर उचित बल दिया जाता है। छात्र पढ़कर उसका भाव समझें तथा दूसरों को भी समझाएँ।
⇒ पठन से अक्षर, उच्चारण, ध्वनि, बल, निर्गम, सस्वरता आदि का सम्यक् संस्कार प्राप्त होता है। पठन के द्वारा छात्र विराम, अर्द्ध-विराम आदि चिह्नों का प्रयोग समझ जाता है।
⇒ पठन का उद्देश्य पठित अंश का भाव ग्रहण करना है।
⇒ पठन का अन्य उद्देश्य त्रुटियों का निवारण भी है।
⇒ पठन शब्द भण्डार में वृद्धि करता है।
⇒ पठन से स्वाध्याय की प्रवृत्ति जागृत होती है।
पठन के आधार
⇒ पठन के दो प्रमुख आधार है – पठन मुद्रा एवं पठन शैली।

पठन मुद्रा का अर्थ है बैठने, खङे होने का ढंग, पठन सामग्री को हाथ में ग्रहण करने की रीति तथा भावानुसार हाथ, पैर, नेत्र आदि अन्य अंगों का संचालन।
⇒ भावानुसार स्वर के उचित आरोह-अवरोह के साथ पढ़ना वाचन शैली है। पुस्तक के पाठ को पढ़ते समय बाएँ हाथ में पुस्तक को इस प्रकार बीच में पकङना चाहिए कि ऊपर उसके बीच में मोङ पर बाएँ हाथ का अँगूठा आ जाए और दूसरा हाथ भावाभिव्यक्ति के लिए खुला छुटा रहे। बङी पुस्तक को दोनों हाथों से पकङा जा सकता है। पढ़ते समय दृष्टि पुस्तक पर ही न रहे, वरन् छात्रों की ओर भी देख लेना चाहिए।
पठन की विशेषताएँ-
पठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
⇒ प्रत्येक अक्षर को शुद्ध तथा स्पष्ट उच्चारित करना। पठन में सुन्दरता के साथ प्रवाह बनाए रखना।
⇒ मधुरता, प्रभावोत्पादकता तथा चमत्कारपूर्ण ढंग से आरोह-अवरोह के साथ पढ़ना। प्रत्येक शब्द को अन्य शब्दों से अलग करके उचित बल तथा विराम के साथ पढ़ना।
पठन कौशल की शिक्षण विधियाँ –
पठन कौशल की प्रमुख शिक्षण विधियाँ निम्न हैं –
शब्द तत्त्व पर आधारित विधियाँ –
1. वर्णबोध विधि – इस विधि में पहले छात्रों को वर्णों का ज्ञान कराया जाता है। वर्णों में भी स्वर पहले और व्यंजन बाद में सिखाए जाएँ फिर मात्राओं का ज्ञान कराया जाए। मात्राओं के उपरान्त संयुक्ताक्षरों की जानकारी दी जाए। यह विधि मनोवैज्ञानिक नहीं है। इस का आधार यह है कि जब तक बालक को अक्षर ज्ञान नहीं होगा, तब तक वह उच्चारण या पतन नहीं सीख सकता है।
2. ध्वनि साम्य विधि – यह विधि वर्णबोध विधि का संशोधित रूप है, इसमें समान उच्चारण वाले शब्दों को साथ-साथ सिखाया जाता है।
3. स्वरोउच्चारण विधि – इस विधि में अक्षरों एवं शब्दों को उनकी स्वर ध्वनि के अनुसार पढ़ाया जाता है। इसमें बारहखङी को आधार माना जाता है, जैसे – क, का, कि, की, कु, कू, के, कै, को, कौ, क, कः। इसमें स्वर के बिना व्यंजन नहीं सिखा सकते। यह विधि प्रगतिशील एवं मनोवैज्ञानिक नहीं है।
अर्थ ग्रहण पर आधारित विधियाँ –
अर्थ ग्रहण पर आधारित विधियाँ निम्न प्रकार हैं –
1. देखो और कहो विधि – इस विधि में शब्द से सम्बन्धित वस्तु या चित्र दिखाकर पहले शब्द का ज्ञान कराया जाता है। चित्र के नीचे वस्तु का नाम लिखा होता है। चित्र परिचित होने के कारण बच्चे आसानी से शब्द से साहचर्य स्थापित कर लेते हैं। अध्यापक का अनुकरण करते हुए बच्चे शब्द का उच्चारण करते है। कई बार देखने-सुनने और बोलने से वर्णों के चित्र मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं। यह विधि मनोवैज्ञानिक है। इसमें पूर्ण से अंश की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा सरल से जटिल की ओर आदि शिक्षण सूत्रों का पालन होता है।
2. वाक्य विधि – इस मत के प्रतिपादकों का मत है कि बालक वाक्य या वाक्यांशों में बोलता है। इसकी इकाई वाक्य है शब्द नहीं, इसलिए प्रारम्भ से ही बालकों को वाक्यों से ही पढ़ना शुरू कराना चाहिए। यह विधि मनोवैज्ञानिक है। पहले वाक्य फिर शब्द, फिर वर्ण- इस क्रम से बच्चों को वाचन का अभ्यास कराया जाता है।
3. कहानी विधि – इस विधि में छोटे-छोटे वाक्यों से निर्मित कहानी चार्ट व चित्रों के माध्यम से बच्चों के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। शिक्षक इस कहानी को कक्षा में कहता है। इसके बाद शिक्षक कहानी को श्यामपट्ट पर लिखता है व उसको पढ़ाता है। विद्यार्थी शिक्षक का अनुकरण करते हैं। वाक्य के विश्लेषण के माध्यम से छात्र शब्द एवं वर्णों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह वाक्य विधि का परिष्कृत रूप है।
4. अनुकरण विधि – यह विधि ’देखा और कहो’ विधि का दूसरा स्वरूप है। इसमें अध्यापक एक-एक शब्द बालकों के समक्ष कहता है और छात्र उसे दोहराते हुए अनुकरण करते हैं। इस प्रकार छात्र शब्द-ध्वनि का उच्चारण एवं पढ़ना सीखते हैं।
5. सम्पर्क विधि – इस विधि का प्रचार शिक्षाविद् मारिया माॅण्टेसरी ने किया था। इसमें पहले बालकों को चित्र, खिलौने, वस्तुओं आदि से परिचित कराते हैं। उनके आगे उन वस्तुओं के कार्ड रखते है। फिर कार्डों को आपस में मिला देते हैं और बच्चों को कहा जाता है, जो कार्ड जिस वस्तु से सम्पर्क रखते हैं, उसके आगे पुनः रख दे। इस सम्पर्क प्रणाली के अभ्यास से धीरे-धीरे छात्र शब्द व वर्ण से परिचित हो जाते हैं।
पठन सम्बन्धी त्रुटियाँ –
पठन सम्बन्धी प्रमुख त्रुटियाँ निम्न प्रकार हैं-

  • अटक-अटक कर पढ़ना
  • पढ़ते समय अनुचित मुद्रा, पुस्तक को आँखों के सन्निकट या दूर रखना
  • अशुद्ध उच्चारण
  • पढ़ने में गति का न होना
  • दृष्टि दोष से अक्षरों का ठीक दिखाई न देना
  • पाठ्य सामग्री का कठिन होना
  • अक्षर या संयुक्ताक्षरों सम्बन्धी त्रुटियाँ
  • भावानुकूल आरोह-अवरोह का अभाव
  • पठन सम्बन्धी मार्ग-दर्शन का अभाव

पठन सम्बन्धी दोषों का निवारण –

पठन सम्बन्धी दोषों का निवारण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-
1. आवृत्ति-पुनरावृत्ति – इसका अभिप्राय यह है कि बार-बार आवृत्ति या पुनरावृत्ति के माध्यम से अभ्यास कराकर पठन सम्बन्धी दोषों का निवारण किया जा सकता है।
2. वातावरण परिवर्तन – बच्चों को सिखाई जाने वाली भाषा हेतु उपयुक्त वातावरण उपलब्ध करवाकर पठन सम्बन्धी दोषों का निवारण किया जा सकता है।
3. चिकित्सा विधि – यदि किसी अंग में कोई खराबी के कारण या भय, घबराहट आदि के कारण बच्चों में पढ़ने सम्बन्धी कठिनाई हो, तो उसे चिकित्सकों की मदद से दूर किया जा सकता है।
4. छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल पाठ्य-सामग्री का चयन – बच्चों के पठन सम्बन्धी दोषों का निवारण तभी सम्भव है, जब छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल पाठ्य-सामग्री का चयन किया जाए।
5. आदर्श पठन – जब अध्यापक कक्षा में छात्रों के समक्ष स्वयं पुस्तक पढ़ते समय गति, यति, आरोह-अवरोह, स्वराघात व बलाघात को ध्यान में रखकर कक्षा में प्रस्तुत करता है तो उसे आदर्श पठन कहते हैं।
6. अनुकरण पठन – अध्यापक का अनुकरण करते हुए छात्रों द्वारा पुस्तक पढ़ना अनुकरण पठन कहलाता है। अनुकरण पठन का उद्देश्य शिक्षक द्वारा किए गए आदर्श पठन का अनुकरण करना है।

लेखन कौशल
लेखन कौशल

लेखन कौशल

मौखिक रूप के अन्तर्गत भाषा का ध्वन्यात्मक रूप एवं भावों की मौखिक अभिव्यक्ति आती है। जब इन ध्वनियों को प्रतीकों के रूप में व्यक्त किया जाता है और इन्हें लिपिबद्ध करके स्थायित्व प्रदान करते हैं, तो वह भाषा का लिखित रूप कहलाता है। भाषा के इस प्रतीक रूप की शिक्षा, प्रतीकों को पहचान कर उन्हें बनाने की क्रिया अथवा ध्वनि को लिपिबद्ध करना, लिखना और इसमें दक्षता प्राप्त करना ही लेखन कौशल है।
लेखन कौशल के उद्देश्य –
लेखन शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं-
⇒ छात्र सोचने एवं निरीक्षण करने के उपरान्त भावों को क्रमबद्ध रूप में लिखकर व्यक्त कर सकेंगे।
⇒ छात्र सुपाठ्य लेख लिख सकेंगे। शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिख सकेंगे।
⇒ छात्र ध्वनि, ध्वनि-समूहों, शब्द, सूक्ति, मुहावरों का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। विराम-चिह्नों का यथोचित प्रयोग कर सकेंगे। अनुलेख, सुलेख तथा श्रुतलेख लिख सकेंगे। व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग करने में सक्षम होंगे।
⇒ वह वाक्यों में शब्दों, वाक्यांशों तथा उपवाक्यों का क्रम अर्थानुकूल रख सकेंगे। विभिन्न रचना वाले वाक्यों का शुद्ध गठन करेंगे। विद्यार्थी लिखित अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों की तकनीक का विधिवत् पालन करने में समर्थ होंगे। वह लिखित अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों के माध्यम से अभिव्यक्ति कर पाने में सक्षम होंगे।
लेखन शिक्षण के गुण –
लेखन शिक्षण के प्रमुख गुण निम्न हैं-

  • लेखन, सुन्दर, स्पष्ट एवं सुडौल हो
  • उसमें प्रवाहशीलता एवं क्रमबद्धता हो
  • विषय (शिक्षण) सामग्री उपयुक्त अनुच्छेदों में विभाजित हो।
  • भाषा एवं शैली में प्रभावोत्पादकता हो
  • भाषा व्याकरण सम्मत हो
  • अभिव्यक्ति संक्षिप्त, स्पष्ट तथा प्रभावोत्पादक हो

लेखन शिक्षण की प्रविधियाँ –
लेखन शिक्षण की प्रमुख प्रविधियाँ निम्न हैं-
1. माॅण्टेसरी विधि – माॅण्टेसरी ने लिखना सिखाने में आँख, कान और हाथ तीनों के समुचित प्रयोग पर बल दिया है। उनके मतानुसार, पहले बालक को लकङी अथवा गत्ते या प्लास्टिक के बने अक्षरों पर अँगुली फेरने को कहा जाए, फिर उन्हें पेन्सिल को उन्हीं अक्षरों पर घुमवाना चाहिए। पेन्सिल प्रायः रंगीन होनी चाहिए। इसी प्रकार बालक अक्षरों के स्वरूप से परिचित होकर उन्हें लिखना सीख जाता है।
2. रूपरेखानुकरण विधि – इस विधि में शिक्षक श्यामपट्ट या स्लेट पर चाॅक या पेन्सिल से बिन्दु रखते हुए शब्द या वाक्य लिख देता और छात्रों से उन निशानों पर पेन्सिल लिखने के लिए बोलता है, जिससे शब्द, वाक्य या वर्ण उभर आए। इस प्रकार अभ्यास के माध्यम से वह वर्णों को लिखना सीख जाता है।
3. स्वतन्त्र अनुकरण विधि – शिक्षक इस प्रविधि में श्यामपट्ट, अभ्यास पुस्तिका या स्लेट पर अक्षरों को लिख देता है। छात्रों को कहा जाता है कि उन अक्षरों को देखकर उनके नीचे स्वयं उसी प्रकार के अक्षर बनाए। प्रारम्भ में बच्चे इस विधि से लिखना सीखते हैं।
4. जेकटाॅट विधि – इस प्रणाली में शिक्षक बालकों द्वारा पढ़े हुए वाक्य को स्वयं लिखकर छात्रों को लिखने के लिए दे देता है। छात्र एक-एक शब्द लिखकर अध्यापक द्वारा लिखित शब्द से मिलाते हुए स्वयं संशोधन करते चलते हैं और पूरा वाक्य लिखने के पश्चात् शिक्षक मूल वाक्य को बिना देखे हुए उन्हें लिखने को कहता है।
5. लेखन अभ्यास – लेखन अभ्यास को आगे तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है – सुलेख, अनुलेख एवं श्रुतलेख।
6. सुलेख – सुन्दर लेख को सुलेख कहते हैं। लिखना सिखाते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए, छात्रों की लिखावट खराब न होने पाए। सुलेख शिक्षित व्यक्ति का आवश्यक लक्षण है।
7. अनुलेख – सुन्दर लिखावट के लिए प्रतिलेख और अनुलेख का भी आश्रय लिया जाता है। अनुलेख का अर्थ है – किसी लिखावट के पीछे या बाद में लिखना अनुलेख के लिए अभ्यास पुस्तिका की प्रथम पंक्ति में मोटे और सुन्दर ढंग के अक्षर, शब्द या वाक्य लिखे होते हैं, उनके नीचे की पंक्तियाँ रिक्त रहती हैं। इस विधि में छात्र छपे हुए अक्षरों के नीचे देखकर स्वयं अक्षर बनाता है। अनुलेख का प्रारम्भिक कक्षाओं में विशेष महत्त्व है। कक्षा तीन तक अनुलेख का अभ्यास कराना चाहिए।
8. श्रुतलेख – ’श्रुतलेख’ का अर्थ है – सुना हुआ लेख इस विधि में अध्यापक बोलता है और छात्र उसके कथन को सुनकर अभ्यास-पुस्तिका या तख्ती पर लिखता जाता है। श्रुतलेख में सुन्दर लिखावट का महत्त्व नहीं है। महत्त्व भाषा की शुद्धता का हो जाता है। श्रुतलेख वर्तनी शिक्षण के लिए आवश्यक है। सुनकर लिखने में एक निश्चित गति से लिखने का अभ्यास हो जाता है।
लेखन सिखाने में ध्यान देने योग्य बातें –
लेखन सिखाते समय निम्न बातें ध्यान में रखनी चाहिए-
1. बैठने का ढंग लिखते समय छात्रों की रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। झुककर लिखने की आदत न पङने पाए।
2. अभ्यास पुस्तिका की आँखों से दूरी छात्र अभ्यास पुस्तिका को आँखों से लगभग 1 फुट की दूरी पर रखकर लिखें।
3. कलम पकङने की विधि पहली और दूसरी अँगुली के बीच में कलम रखकर उसे अँगूठे से पकङना चाहिए, कलम की निब को लगभग एक इंच से ऊपर पकङना चाहिए।
4. पढ़ना लिखने के साथ-साथ पढ़ना भी हो, नहीं तो लिखना निरर्थक हो जाएगा।
5. उपयुक्त वातावरण समय, स्थान आदि की उपयुक्तता पर शिक्षक को ध्यान रखना चाहिए।
6. सुडौल अक्षर छात्र अक्षरों को सुन्दर बनाने का प्रयत्न करें। अक्षर पूरे लिखे जाएँ, तभी वह सुडौल होंगे।
7. शिरोरेखा शिरोरेखा अक्षर का आवश्यक अंग है। अतः इसका प्रयोग किया जाना चाहिए।
8. बाएँ से दाएँ सभी वर्णों, वाक्यों के लिखने का क्रम बाएँ से दाएँ रहे।
9. सीधी लिखाई अध्यापक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वर्णों की खङी रेखाएँ तिरछी न होकर सीधी हों।
10. नमूना उपयुक्त हो अध्यापक द्वारा बनाए गए शब्द व अक्षर (माॅडल) आदर्श हो, जिनके आधार पर छात्र लिख सके।
11. लिपि प्रतीक अनुस्वार, हलन्त, मात्राओं के प्रयोग में सावधानी रखनी चाहिए। छोटे-छोटे लिपि प्रतीकों की भूल से लेख विकृत हो जाता है।
12. अभ्यास लिखना एक कला है, अतः छात्रों के बौद्धिक एवं मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए अभ्यास करवाएँ।

दोस्तो आज के आर्टिकल में हमें शिक्षण में भाषा कौशल (Bhasha Kaushal) की उपयोगिता को पढ़ा ,आपको इस आर्टिकल से अवश्य फायदा हुआ होगा …धन्यवाद

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