व्यवस्थापिका किसे कहते हैं – Vyavasthapika Kise Kahate Hain

आज के आर्टिकल में हम व्यवस्थापिका किसे कहते हैं (Vyavasthapika Kise Kahate Hain),  व्यवस्थापिका के नाम (Vyavasthapika ke name) व्यवस्थापिका के कार्य (Vyavasthapika ke karya) और व्यवस्थापिका का गठन (Vyavasthapika ka gathan), Vyavasthapika meaning in hindi,  Vyavasthapika in Hindi  – इन सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने वाले है।

व्यवस्थापिका  – Vyavasthapika

Table of Contents

सरकार के अंग

1. व्यवस्थापिका – व्यवस्थापिका कानून का निर्माण करती है। व्यवस्थापिका सरकार के तीनों अंगों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि लोकतंत्रीय सरकारों में यह जनता का प्रतिनिधित्व करता है। यह अंग विधियों का निर्माण करता है। इसे भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है।

व्यवस्थापिका के प्रमुख कार्य है –

(1) विधि निर्माण

(2) कार्यपालिका पर नियंत्रण

(3) वित्त पर नियंत्रण

(4) संविधान में संशोधन।

2. कार्यपालिका – कार्यपालिका शासन का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य कार्य व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधियों को लागू करना है। शासन के स्वरूप के अनुसार कार्यपालिका अनेक प्रकार की होती है। यथा – नाममात्र की कार्यपालिका, वास्तविक कार्यपालिका, एकल कार्यपालिका, बहुल कार्यपालिका, उत्तरदायी कार्यपालिका, अनुत्तरदायी कार्यपालिका, वंशानुगत कार्यपालिका और निर्वाचित कार्यपालिका आदि।

3. न्यायपालिका – न्यायपालिका भी सरकार का एक आवश्यक अंग है। इसका मुख्य कार्य है – कानून को विशिष्ट मुकदमों में लागू करना तथा दण्ड निश्चित करना, कानूनों की व्याख्या करना आदि।

तो आज आर्टिकल में हम सरकार के पहले अंग व्यवस्थापिका (Vyavasthapika) के बारे में चर्चा करेंगे।

व्यवस्थापिका किसे कहते है – Vyavasthapika Kise Kahate Hain

Vyavasthapika ka Arth – व्यवस्थापिका सरकार का सबसे पहला एवं महत्त्वपूर्ण अंग है। कानूनों का निर्माण करने वाली संस्था को व्यवस्थापिका (Vyavasthapika)  कहते है।

व्यवस्थापिका क्या है – Vyavasthapika Kya Hai

  • व्यवस्थापिका को संसद भी कहा जाता है।
  • संसद शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच शब्द ’पार्लर’ (Parler) से हुई है जिसका अर्थ है – बोलना या विचार-विमर्श करना। तथा लेटिन शब्द ’पार्लियामेन्ट’ (Parliamentum) से हुई है। संसद को अंग्रेजी में ’पार्लियामेन्ट’ (Parliamentum) कहते है।
  • व्यवस्थापिका सरकार के तीनों अंगों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि लोकतंत्रीय सरकारों में यह जनता का प्रतिनिधित्व करता है। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य में नियम निर्माण का कार्य करने वाली संस्थाओं को व्यवस्थापिका कहते है। व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है जो जनता के हित एवं कल्याण को दृष्टि में रखकर राज्य की नीतियों का निर्धारण करता है।
  • यह कानूनों के माध्यम से राज्य की इच्छा को अभिव्यक्त करता है। व्यवस्थापिका सरकार का वह आधारभूत अंग है जो अन्य दो अंगों (कार्यपालिका, न्यायपालिका) का मार्ग – निर्देशन करता है। इसके द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर कार्यपालिका शासन करती है और न्यायपालिका न्याय प्रदान करती है।

व्यवस्थापिका की परिभाषा – Vyavasthapika ki paribhasha

सी. एफ. स्ट्राँग के शब्दों में, ’’आधुनिक संवैधानिक राज्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग व्यवस्थापिका अर्थात् कानून बनाने वाली संस्था ही होती है।’’

गार्नर के अनुसार, ’’राज्य की इच्छा जिन विभिन्न अंगों द्वारा प्रकट होती है औ पूर्ण की जाती है। उनमें व्यवस्थापिका का स्थान निसंदेह सर्वोच्च होता है।’’

व्यवस्थापिका के अलग-अलग देशों में क्या नाम है ?

⇒ व्यवस्थापिका को अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

व्यवस्थापिका के नाम
 देशनाम
 भारतसंसद
 ब्रिटेनपार्लियामेन्ट
 फ्रांससंसद
 संयुक्त राज्य अमेरिकाकांग्रेस
 इजराइलनेसेट
 रूसड्यूमा, सर्वोच्च सोवियत
 नेपालराष्ट्रीय पंचायत
 पाकिस्ताननेशनल असेम्बली
 बांग्लादेशजातीय संसद
 जापानडाइट
 पोलैंडसेजम
 चीनचीन जनवादी, नेशनल पीपुल्स कांग्रेस
 ईरानमजलिस
 जर्मनीबुंडस्टेग
 स्वीडनसंघीय सभा, रिक्सडाॅग
 स्पेनकोर्टे

Vyavasthapika Kise Kahate Hain

व्यवस्थापिका के कार्य क्या है – Vyavasthapika ke karya

आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य में व्यवस्थापिका के कार्यों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है –

(क) व्यवस्थापिकाओं के सरकारी या संवैधानिक कार्य

इस श्रेणी के अन्तर्गत व्यवस्थापिकाओं के वे समस्त कार्य आते हैं जिन्हें वे सरकारी रूप से वास्तव में या औपचारिक रूप से निष्पादित करती हैं। यथा –

(1) कानून निर्माण सम्बन्धी कार्य –

  • आधुनिक काल में सभी प्रकार के कानून व्यवस्थापिका के द्वारा ही निर्मित किये जाते हैं। इसका यह मौलिक कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक इच्छाओं, एवं कठिनाईयों का सर्वेक्षण व विश्लेषण करके अपने वर्तमान कानूनों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करे, संशोधन करे और उन्हें समाप्त करे। इसके लिए व्यवस्थापिका विधेयकों का प्रारूप तैयार करती है, उन पर विचार-विमर्श या वाद-विवाद करती है और आवश्यकता पङने पर वह उस प्रारूप को प्रवर समितियों के पास भेजती है तथा स्वीकृत हो जाने पर उन्हें कानून का रूप प्रदान करती है।
  • इसके अतिरिक्त वह देश की बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार पुराने कानूनों में संशोधन, परिवर्तन या उन्हें समाप्त करने का कार्य भी करती है। व्यवस्थापिका राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर भी कानून बनाती है।
  • कानून बनाने की प्रक्रिया – व्यवस्थापिका द्वारा कानून का प्रारूप पेश किया जाता है, बाद में उस पर कार्यपालिका का अध्यक्ष हस्ताक्षर करके उस पर पुर्नविचार करने के लिये बिल व्यवस्थापिका को भेजता है तथा उसके बाद व्यवस्थापिका का अध्यक्ष उस पर हस्ताक्षर कर देता है जिससे कानून का निर्माण हो जाता है। व्यवस्थापिका को कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। व्यवस्थापिका (संसद) ’जनमत का दर्पण’ कहलाती है।

(2) राष्ट्रीय वित्त पर नियंत्रण रखने सम्बन्धी कार्य –

  • आधुनिक काल में व्यवस्थापिका कानूनों के निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रीय वित्त पर नियंत्रण रखने का कार्य भी करती है।
  • प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय बजट को पारित करने के साथ अनुमानित आय-व्यय को स्वीकृत करने का कार्य विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) द्वारा किया जाता है।
  • अपनी इसी शक्ति के अन्तर्गत व्यवस्थापिका यह निश्चित करती है कि किन साधनों से धन प्राप्त किया जाये और इस धन को जनहितकारी कार्यों पर किस प्रकार से खर्च किया जाए।
  • ’संचित निधि’ एवं ’आकस्मिक निधि’ पर भी नियन्त्रण व्यवस्थापिका का होता है।
  • देश की सरकार व्यवस्थापिका की स्वीकृति के बिना न तो देश के नागरिकों पर कर लगा सकती है न ही राष्ट्रीय खजाने से कोई व्यय कर सकती है।
  • व्यवस्थापिका ही नए कर लगाती है और अनावश्यक करों को समाप्त करती है।
  • व्यवस्थापिका का सरकार के वित्त पर पूर्ण नियंत्रण होता है, उसकी स्वीकृति के बिना एक पैसा भी खर्च नहीं होता है।

(3) कार्यपालिका पर नियंत्रण –

लाॅस्की ने कहा है कि ’व्यवस्थापिका का कार्य यह देखना है कि कार्यपालिका अपना कार्य ठीक ढंग से करती है या नहीं करती।’’

  • व्यवस्थापिका का प्रमुख कार्य कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना भी है। यद्यपि व्यवस्थापिका प्रशासनिक कार्यों में सीधे तौर पर भाग नहीं लेती है तथापि वह प्रशासन पर नियंत्रण रखने की प्रक्रिया में कुछ-न-कुछ प्रशासनिक कार्य अवश्य करती है।
  • व्यवस्थापिकाओं का यह उत्तरदायित्व है कि वे कार्यपालिकाओं को सही ढंग से कार्य न करने पर या शक्तियों के दुरुपयोेग करने पर नित्रन्त्रित करें। संसदीय शासन में यह नियन्त्रण प्रत्यक्ष होता है ऐसे शासन में मन्त्रिमण्डल व्यवस्थापिका में से ही चुना जाता है तथा उसी के प्रति वह उत्तरदायी होता है।
  • मंत्रिमण्डल अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक उस पर व्यवस्थापिका का विश्वास कायम है।
  • व्यवस्थापिका द्वारा प्रशासन सम्बन्धी कार्य संसदीय तथा अध्यक्षीय शासन प्रणालियों में भिन्न-भिन्न रूप में किया जाता है। व्यवस्थापिका अध्यक्षात्मक एवं संसदात्मक दोनों ही प्रकार की शासन प्रणालियों में अलग-अलग तरीकों से कार्यपालिका और उसके माध्यम से प्रशासनिक कार्यों पर नियंत्रण करती है। संसदीय देशों में व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका पर यह नियंत्रण विधायिका में प्रश्न पूछना, पूरक प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव कटौती प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव आदि प्रस्तुत कर किया जाता है।

(4) न्यायिक कार्य –

  • यद्यपि न्यायिक कार्य का उत्तरदायित्व न्यायालयों पर होता है, तथापि कुछ देशों में व्यवस्थापिका का उच्च सदन न्यायिक कार्य भी करता है। जैसे – इंग्लैण्ड में लार्ड सभा वहाँ के अन्तिम अपील न्यायलय के रूप में कार्य करती है तथा अमेरिका में राष्ट्रपति पर लगाये गये महाभियोग का निर्णय सीनेट ही करती है। भारत में संसद का राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों एवं लोकसभा के सदस्यों के विरुद्ध महाभियोग लगाने व निर्णय करने का अधिकार है।
  • व्यवस्थापिका संसद के सदस्यों अथवा निजी व्यक्तियों को भी दण्डित कर सकती है, यदि उनके द्वारा व्यवस्थापिका का अपमान किया गया हो। इसी प्रकार फ्रांस में ’गणराज्य परिषद’ राष्ट्रपति तथा किसी मंत्री पर महाभियोग लगाने जाने पर न्यायालय का कार्य करती है।
  • इंग्लैण्ड में हाउस ऑफ लार्ड्स व्यवस्थापिकाएँ प्रशासकीय विभागों के लिए जाँच समितियाँ नियुक्त करके भी एक प्रकार से न्यायिक अधिकारों का उपभोग करती हैं।
  • अनेक प्रजातांत्रिक देशों में व्यवस्थापिका कुछ न्याय संबंधी कार्य भी सम्पन्न करती हैं। ग्रेट ब्रिटेन में व्यवस्थापिका का उच्च सदन ’हाउस ऑफ लार्ड्स’ सभी उच्चतम अपील न्यायालय के रूप में कार्य करता है।
  • अमरीका की सीनेट राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों तथा अनेक उच्च पदाधिकारियों पर लगाए गये महाभियोगों की जाँच करती है।

(5) संविधान में संशोधन सम्बन्धी कार्य –

  • वर्तमान में प्रायः सभी देशों में व्यवस्थापिका संविधान में संशोधन का कार्य भी करती है, यद्यपि संशोधन की शक्ति और प्रक्रिया में अन्तर पाया जाता है। प्रायः सभी लोकतांत्रिक देशों में व्यवस्थापिका को अपने देश में प्रवर्तित संविधान की प्रचलित व्यवस्थाओं के कालातीत हो जाने की स्थिति में संविधान में संशोधन करने का अधिकार होता है।
  • संशोधन का यह कार्य व्यवस्थापिका संविधान में निहित प्रक्रिया के अन्तर्गत ही करती है। जिन देशों का संविधान लचीला होता है वहाँ पर व्यवस्थापिका को ही संविधान में संशोधन करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। जैसे – इजराइल में।
  • परन्तु जिन देशों का संविधान कठोर अथवा अपरिवर्तनशील होता है वहाँ संविधान में संशोधन करने के लिए व्यवस्थापिका को संशोधन की विशेष प्रणाली अपनानी पङती है। जैसे – भारत और अमेरिका।
  • संविधान संशोधन करने की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में निर्धारित की गई है। विधायिका संविधान में संशोधन ’साधारण बहुमत’ से ही करती है। लेकिन कभी विशेष प्रक्रिया के अनुसार भी संशोधन करती है।
  • संसद तीन प्रकार से संविधान में संशोधन करती है –
  1. संसद के साधारण बहुमत से
  2. संसद के दो-तिहाई (2/3) बहुमत से
  3. संसद के दो तिहाई बहुमत तथा आधे से अधिक राज्यों की स्वीकृति से।

(6) निर्वाचन सम्बन्धी कार्य –

  • व्यवस्थापिका अनेक देशों में निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करती हैं।
  • भारत में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा एवं राज्यसभा) के चुने हुए सदस्य तथा प्रान्तीय विधानसभाओं के सदस्य मिलकर राष्ट्रपति का चुनाव करते है।
  • जापान में प्रधानमन्त्री का चुनाव डाइट (संसद) करती है।
  • रूस में कार्यपालिका के सदस्य का चुनाव संसद करती है।
  • फ्रांस में व्यवस्थापिका वहाँ के राष्ट्रपति का निर्वाचन करती है।
  • स्विट्जरलैंड में वहाँ की संसद मन्त्रिपरिषद, प्रधान, सेनापति एवं न्यायधीशों का चुनाव करती है।

(7) विचार-विमर्श सम्बन्धी कार्य –

  • आधुनिक व्यवस्थापिकाएँ राष्ट्रीय और अति महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर विचार-विमर्श करती हैं।
  • व्यवस्थापिका में किसी भी विषय पर विभिन्न समुदायों, स्वार्थों एवं दृष्टिकोणों के प्रतिनिधियों के बीच खुलकर विचार-विमर्श होता है।
  • वे वाद-विवाद के द्वारा राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण कर कार्यपालिका को नीति-निर्माण के क्षेत्र में निर्देशित व नियन्त्रित करती है।
  • व्यवस्थापिका कानून का निर्माण भी विचार-विमर्श करने के बाद ही करती है।
  • पार्लियामेंट शब्द, फ्रेंच शब्द ’पार्लर’ से बना है जिसका अर्थ है ‘विचार के लिए सभा’। व्यवस्थापिका को लोकमत तथा जनमत का दर्पण भी कहा जाता है।
  • व्यवस्थापिका सम्पूर्ण देश के नागरिकों की इच्छाओं की सम्मिलित अभिव्यक्ति होती है इसे रूसो की सामान्य इच्छा का प्रतिरूप भी माना जा सकता है।

(8) समितियों एवं आयोगों की नियुक्ति –

  • व्यवस्थापिका समय-समय पर आवश्यकतानुसार समितियों एवं आयोगों की नियुक्ति करती है।
  • अमेरिका में सीनेट द्वारा ’जाँच समिति’ की नियुक्ति की जाती है, ये समितियाँ कार्यपालिका पर प्रभावी नियंत्रण रखती है और सीनेट स्वतंत्र न्यायिक आदेशों की रचना भी करती है, जिस पर कार्यपालिका का नियन्त्रण नहीं होता है।
  • भारत में संसद समय-समय पर आयोगों व जाँच समितियों की नियुक्ति करती है। इंग्लैण्ड एवं अमेरिका की तरह ही भारत में भी ’सरकारी नियमों’ की रचना की गयी, इन नियमों के कार्यों पर संसद का पूर्ण नियन्त्रण रहता है।
  • इससे स्पष्ट है कि वर्तमान समय में व्यवस्थापिका केवल विधि निर्माण का कार्य ही नहीं करती, लोकतान्त्रिक जनहितकारी राज्य में व्यवस्थापिका का सम्बन्ध उन सब कार्यों से है, जो कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे जीवन को प्रभावित करती है।

इस पर प्रो. गार्नर ने कहा है कि ’’अधिकांश देशों में व्यवस्थापिका केवल विधि निर्माण करने वाला ही नहीं, अपितु इसके साथ-साथ वह विभिन्न प्रकार के कार्य भी करता है जैसे – निर्वाचन, न्यायिक, निर्देशन तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य।’’

(ख) व्यवस्थापिकाओं के राजनीतिक कार्य

आधुनिक काल में व्यवस्थापिकाएँ सरकारी और संवैधानिक कार्यों के अतिरिक्त राजनीतिक कार्य भी निष्पादित कर रही हैं। कुछ प्रमुख राजनीतिक कार्य निम्नलिखित है –

(1) प्रतिनिधित्व का कार्य –

व्यवस्थापिकाएँ सही अर्थों में जन-सम्प्रभुता का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस हेतु समय-समय पर चुनाव कराये जाते हैं।

(2) हित-स्वरूपीकरण और हित-समूहीकरण का कार्य –

आधुनिक काल में व्यवस्थापिकाएँ समाज के विभिन्न तथा परस्पर विरोधी हितों को पूरा करके या उन हितों की सुरक्षा करके या इनके प्रस्तुत करने वालों को उकसा कर इनमें सामंजस्य स्थापित कर हित-स्वरूपीकरण का कार्य भी करती हैं। हित-स्वरूपीकरण के बाद व्यवस्थापिकाएँ ही इन हितों का समूहीकरण भी अनुनय, समझाने-बुझाने से लेकर विधि निर्माण आदि के द्वारा करती हैं।

(3) राजनीतिक समाजीकरण तथा शिक्षण कार्य –

व्यवस्थापिकाओं का एक अन्य राजनीतिक कार्य राजनीतिक समाजीकरण तथा जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने का है।

(4) निगरानी-पर्यवेक्षण का कार्य –

व्यवस्थापिका की भूमिका देश के रक्षक एवं पहरेदार जैसी है। यह राजनीतिक व्यवस्था के प्रत्येक उत्तरदायी अंग पर निगरानी रखती है।

व्यवस्थापिका का गठन कैसे होता है – Vyavasthapika ka Gathan kaise hota Hain

संगठन की दृष्टि से व्यवस्थापिका के दो प्रकार(Vyavasthapika ke prakar) है –

  1. एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका
  2. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका।

कुछ विद्वानों कहते है व्यवस्थापिका का एक सदन ही हो, लेकिन कुछ विद्वानों कहते हैं कि व्यवस्थापिका के दो सदन होने चाहिए।

एकसदनात्मक व्यवस्थापिका -Eksadnatamak Vyavasthapika

  • जिस राज्य की व्यवस्थापिका में एक ही सदन होता है, उसे एकसदनात्मक व्यवस्थापिका कहते हैं।
  • अठारहवीं शताब्दी के अन्त और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अनेक देशों ने एक-सदनात्मक प्रणाली अपनाई। आज यूरोप के कुछ देशों, जैसे यूनान, बल्गारिया आदि में एक समर्थकों का मुख्य तर्क है कि कानून जनता ही इच्छा को अभिव्यक्त या उसका प्रतिनिधित्व करते है। यह कार्य एक सदन द्वारा ही किया जा सकता है, एक से अधिक के द्वारा नहीं, क्योंकि इच्छा एक होती है, अनेक नहीं।
  • एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका को इसलिए भी पसन्द किया जाता है कि दूसरे सदन को अनुपयोगी और खर्चीला माना गया है।

बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा है ’’व्यवस्थापिका में द्वितीय सदनों का अस्तित्व अनावश्यक है। व्यवस्थापन विभाग में 2 सदनों का रहना ठीक वैसा ही है जैसे किसी गाङी में दोनों छोर पर दो घोङे जोत दिए जाए और दोनों घोङे अपनी तरफ गाङी को खींचें।

एक सदनात्मक व्यवस्थापिका वाले देश
 यूनान
 पुर्तगाल
 एस्टोनिया
 चीन
 यूगोस्लाविया
 इजरायल
 यूनान
एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क

(1) एकता एवं एकरूपता की झलक – जिन देशों में व्यवस्थापिका का एक ही सदन पाया जाता है। वहाँ विधि निर्माण प्रक्रिया में एकता तथा एकरूपता बनी रहती है। इस विषय में विद्वानों का कथन है कि कानून जनता की इच्छा है, और जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकती। अतः जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली व्यवस्थापिका सभा आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। विद्वानों का मत है कि जहाँ किन्हीं भी दो सदन होंगे वहाँ मतभेद और विरोध अनिवार्य होगा तथा जनता की इच्छा निष्क्रियता का शिकार बन जायेगी।

(2) मितव्ययता – इस प्रकार की व्यवस्थापिका में धन अनावश्यक रूप से व्यय नहीं होता है, एक ही सदन होने के कारण दूसरे सदन का व्यय बच जाता है।

(3) कार्य में शीघ्रता – एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में विधि निर्माण में अनावश्यक विलम्ब नहीं होता। साथ ही दूसरा सदन न होने से उसकी कार्यवाही का सम्पूर्ण समय बच जाता है। अतः कानून निर्माण प्रक्रिया में शीघ्रता होती है।

(4) जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व – एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में सदस्य सीधे जनता से निर्वाचित होकर आते है, अतः यह सदन जनता की इच्छाओं का प्रतिबिम्ब होता है।

(5) उत्तरदायित्व की भावना – इस प्रकार की व्यवस्थापिका में सदस्य सीधे जनता से निर्वाचित होते है इसलिए वे जनता के प्रति सीधे उत्तरदायी होते है और उनमें उत्तरदायित्व की भावना भी होती है।

एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष/एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में तर्क

(1) निरंकुशता की संभावना – द्वितीय सदन के अभाव में एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के निरंकुश होने की सम्भावना होती है। इसके विषय में लेकी ने कहा है कि ’किसी अन्य प्रकार की या अन्य सरकार की उतनी बुरी होने की सम्भावना नहीं है, जितनी सर्वशक्तिमान लोकतंत्रीय एकसदनात्मक व्यवस्थापिका हो सकती है।

(2) कानून निर्माण में जल्दबाजी – एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में नियन्त्रण का अभाव होता है, साथ ही सदन में सीधे जनता द्वारा निर्वाचित सदस्य होने से वे जनता की इच्छाई भावना से प्रभावित होकर कानूनों का निर्माण शीघ्रता से कर सकते है। इस विषय में लेकी ने कहा है कि ’’नियन्त्रण करने, संशोधन करने तथा रुकावट डालने में जो कार्य द्वितीय सदन करता है उससे उसकी आवश्यकता स्वयंसिद्ध है।’’

(3) पुनरावलोकन का अभाव – एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में पुनरावलोकन का, पुनर्विचार का अवसर नहीं मिलता है। उच्च सदन विधेयकों का पुनरावलोकन करता है अतः द्वितीय सदन के अभाव में एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में त्रुटियों की गुंजाइश बनी रहती है।

(4) कार्यकारिणी की स्वतंत्रता का अभाव – एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में कार्यकारिणी पर उसका नियंत्रण अधिक रहता है, जिसके कारण वह स्वतंत्रता रूप से कार्य नहीं कर पाती है।

(5) उत्तेजना का बाहुल्य – एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रतिनिधि सामान्यतः कम आयु के ही नवयुवक होते है उसमें उत्तेजना अधिक रहती है। इससे क्रान्तिकारी कानूनों का निर्माण सम्भव रहता है, उत्तेजना में लिया गया निर्णय सदैव हितकारी नहीं होता।
जब लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की शुरूआत हुई थी, तब व्यवस्थापिका का एक सदन ही होता था, लेकिन बाद में यह अनुभव किया जा लगा कि प्रथम सदन की शक्ति पर अंकुश रखने और नियन्त्रण रखने तथा पुनर्विचार करने के लिए दो सदन होने चाहिए। इसलिए द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका का गठन किया गया। वर्तमान में कुछ ही देशों को छोङकर प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका विद्यमान है।

(2) द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका –

जिस राज्य की व्यवस्थापिका में दो सदन होते हैं, उस व्यवस्थापिका को द्वि-सदनात्मक कहते हैं। यह प्रणाली ऐतिहासिक विकास तथा संयोग का परिणाम है यह ब्रिटिश संवैधानिक विकास की देन है। इंग्लैंड की संसद जो सबसे प्राचीन संसद भी है संयोग से द्विसदनात्मक हो गई।

विलोबी के अनुसार यदि ब्रिटिश संसद द्विसदनात्मक ना होती तो शायद संसार के विधानमंडल भी द्विसदनात्मक ना होते।

द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका वाले देश
 इंग्लैण्ड
 कनाडा
 जापान
 संयुक्त राज्य अमेरिका
 ऑस्ट्रेलिया
 भारत
 ब्रिटेन
 रूस
 जर्मनी
 स्विट्जरलैंड

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में पहले सदन को प्रथम सदन, निम्न सदन, लोकप्रिय सदन तथा प्रतिनिधि सदन कहते है। निम्न सदन में सामान्यता जनसाधारण का प्रतिनिधित्व रहता है अर्थात् निम्न सदन के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर गुप्त मतदान द्वारा होता है।

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन को अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

प्रथम सदन के नाम
 भारतलोकसभा
 इंग्लैण्डहाउस ऑफ काॅमन्स
 अमेरिकाप्रतिनिधि सभा
 रूसड्यूमा
 फ्रांसराष्ट्रीय सभा
 जापानप्रतिनिधि सदन
 स्विट्जरलैंडराष्ट्रीय सभा

दूसरे सदन को उच्च सदन, द्वितीय सदन, तथा वरिष्ठ सदन कहते है। उच्च सदन जनता के विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है। द्वितीय सदन के सदस्य या तो निर्वाचित होते है या मनोनीत होते है।

जैसे – भारत में राज्यसभा के अधिकांश सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते है तथा कुछ सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। इटली, जापान और कनाडा में द्वितीय सदन के सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं। इसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील, आस्ट्रेलिया तथा पोलैंड में इनका चयन प्रत्यक्ष निर्वाचन से होता है।

द्विव्यवस्थापिका में द्वितीय सदन को अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

द्वितीय सदन के नाम
 भारतराज्यसभा
 इंग्लैण्डहाउस ऑफ लार्ड्स
 अमेरिकासीनेट
 रूसराष्ट्रीय सोवियत
 जापानसभासद सदन
 स्विट्जरलैंडराज्य परिषद
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क

ब्लंटशली ने कहा है कि ’’दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती है।’’

(1) स्वेच्छाचारिता एवं निरंकुशता पर रोक – द्विसदनात्मक पद्धति स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता को रोकती है। जे. एस. मिल ने कहा है कि दूसरे सदन के अभाव में एक सदन निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी हो जाता है।

(2) प्रथम सदन की मनमानी पर रोक – व्यवस्थापिका अत्याचारी, भ्रष्ट व स्वेच्छाचारी न होने पाए, इसके लिए दो सदन होना आवश्यक है। दूसरा सदन प्रथम सदन की मनमानी को रोक सकेगा। लीकाॅक ने कहा है, कि ’’एक सदनात्मक व्यवस्थापिका उतावली एवं अनुत्तरदायी हो सकती है।’’

(3) श्रेष्ठ कानून निर्माण – दूसरा सदन, प्रथम सदन को कानून निर्माण में जल्दबाजी एवं उतावलापन तथा बिना विचार-विमर्श किये बनने वाले कानून को रोक कर उन पर सुधारात्मक प्रभाव डालती है। जिससे श्रेष्ठ कानून का निर्माण होता है।

(4) प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के अनुकूल – व्यक्तिगत स्वतंत्रतता की रक्षा के लिए आवश्यक है कि संप्रभु का केंद्रीयकरण किसी एक अंग या सभा के हाथ में नहीं होना चाहिए।

(5) सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व – दूसरे सदन में समाज के सभी वर्गों, अल्पसंख्यकों, विशेषज्ञ व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व सुरक्षित रखकर लोकतंत्र को शक्तिशाली तथा आदर्श बनाया जा सकता है।

(6) कार्य विभाजन से लाभ – लोककल्याणकारी राज्य में व्यवस्थापिका के कार्यों में वृद्धि हुई है। व्यवस्थापिका के दो सदन होने पर इस बढ़े हुए कार्य का विभाजन कर व्यवस्थापिका की कार्यक्षमता में वृद्धि की जाती है।

(7) जनमत निर्माण में सहायक – एक सदन से दूसरे सदन में विधेयक जाने तथा दूसरे सदन में उसे पारित होने से पूर्व विधेयक के बारे में जानने तथा विचार व्यक्त करने के लिए जनता, राजनैतिक दल तथा प्रेस को समय मिल जाता है।

(8) स्वतंत्रता की रक्षा का साधन – लार्ड एक्टन ने दूसरे सदन को स्वतंत्रता की रक्षा का सबसे प्रमुख साधन माना है।

(9) अनुभवी लोगों का सदन – द्वितीय सदनों (उच्च सदनों) के सदस्य राजनीतिक दृष्टि से बहुत अधिक अनुभवी, परिपक्व तथा गंभीर होते हैं। इन अनुभवी व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त करने का अवसर द्वितीय सदन के पक्ष में एक प्रभावशाली तर्क है। जे. एस. मिल ने कहा है – ’’यदि निम्न सदन जनता के प्रतिनिधियों का सदन है तो उच्च सदन राजनीतिज्ञों और कलाकारों का सदन है क्योंकि इसमें साहित्य, विज्ञान एवं समाजसेवा के आधार पर सदस्यों का मनोनयन एवं निर्वाचन होता है।’’

(10) पुनरावलोकन का कार्य – पहले सदन द्वारा कानून बनाकर दूसरे सदन में भेजता है अगर कानून में कोई त्रुटि होती है तो दूसरा सदन उस कानून पर पुनर्विचार व पुनरावलोकन करके उसे प्रथम सदन में भेज देता है। इसी प्रकार की व्यवस्थापिका में त्रुटिपूर्ण कानूनों का निर्माण नहीं होता।

(11) संघ राज्य के लिए आवश्यक – दूसरे सदन में प्रायः इकाइयों की समानता के आधार पर प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। इससे संघ की सभी इकाइयों के हितों की रक्षा संभव होती है।

(12) यह पद्धति संघात्मक शासन व्यवस्था के लिए अनिवार्य है।

द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष/द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में तर्क

(1) यह प्रणाली संप्रभुता की धारणा के विपरीत है – किसी भी विषय पर एक ही लोकमत होता है प्रजातंत्र में सार्वभौमिकता जनता में निहित होती है जिसका प्रतिनिधित्व व्यवस्थापिका द्वारा होता है।

(2) जन-इच्छा का विभाजन – द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में जन-इच्छा का विभाजन किया जाता है जो कि लोकतंत्र के विरुद्ध है।

(3) गतिरोध की स्थिति उत्पन्न – द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदनों के मध्य गतिरोध की स्थिति बनी रहती है।

(4) अलोकतांत्रिक – जनत द्वारा निर्वाचित लोकप्रिय सदन ही जनमत का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसी स्थिति में दूसरा सदन लोकतंत्र के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

(5) रूढ़िवादिता का गढ़ – दूसरे सदन के प्रतिनिधि मनोनयन, अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा उत्तराधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। ये प्रायः रूढ़िवादिता तथा निहित स्वार्थों वाले तत्त्वों का प्रतिनिधित्व कर देश का अहित करते हैं।

(6) समय और धन का अपव्यय – द्विसदनीय प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक विधेयक पर दो-दो बार विचार होता है जिससे समय की बर्बादी होती है तथा धन का भी अपव्यय है। साथ ही दो सदन होने से राज्य का खर्च भी बढ़ जाता है। क्योंकि दोनों सदनों के सदस्यों को वेतन, भत्ते आदि देने पङते है।

(7) अनावश्यक यदि दूसरा सदन पहले का विरोध करे तो दुष्ट है और यदि सहमत हो जाये तो व्यर्थ है। दोनों की दृष्टि से यह अनावश्यक है।

(8) दोनों सदनों में संघर्ष की आशंका – व्यवस्थापिका के दो सदन होने पर दोनों में सदैव ही गतिरोध व संघर्ष बना रहता है। जिससे शासन व्यवस्था पर बुरा असर पङता है।

(9) अल्प मतों को प्रतिनिधित्व देने के अन्य साधन भी है – द्वितीय सदन के पक्ष में यह कहा जाता है कि अल्पसंख्यकों एवं विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है। परन्तु ये सही नहीं है, क्योंकि अल्पसंख्यकों के हितों का संरचनवय अन्य तरीकों से भी किया जा सकता है, उदाहरण के लिए, संविधान में उनके प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जा सकती है भारतीय संविधान द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गये है।

(10) संगठन में कठिनाई – द्वितीय सदन का संगठन किस प्रकार का हो, इस पर विद्वानों में एकमतता नहीं है। प्रत्येक देश में द्वितीय सदन के संगठन की प्रणाली में भी भिन्नता पाई जाती है। भारत में राज्यसभा का संगठन अप्रत्यक्ष रूप से होता है, अमेरिका में सीनेट के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होकर आते है, जबकि कनाडा में सीनेट के सदस्यों का मनोनयन होता है और इंग्लैण्ड में लार्ड सभा का गठन सामन्तवाद व वंशानुगत के आधार पर होता है। यदि द्वितीय सदन का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर किया जाये तो प्रथम सदन की पुनरावृत्ति ही हो जायेगी और यदि अप्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर किया जाये तो भ्रष्टाचार की संभावना और अधिक बढ़ जायेगी।

व्यवस्थापिका के पतन के कारण – Vyavasthapika ke patan ke karan

आधुनिक काल में व्यवस्थापिका की शक्तियों के ह्रास के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

(1) कार्यपालिका के कार्यों में अभूतपूर्व वृद्धि – राज्य के सकारात्मक एवं कल्याणकारी स्वरूप के कारण आधुनिक कार्यपालिकाएँ आज अनेक ऐसे कार्य करने लगी हैं जो वह पहले नहीं करती थीं। इन कार्यों की वृद्धि से सरकार के तीन अंगों में कार्यपालिका का महत्त्व बढ़ गया है। कार्यपालिका के कार्यों की वृद्धि की तुलना में व्यवस्थापिका के कार्यों में कम वृद्धि हुई है।

(2) प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा – अब व्यवहार में कार्यपालिकाएँ ही अनेक कानून प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा के अन्तर्गत बनाने लगी हैं। इस प्रकार प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रक्रिया के माध्यम से कानून निर्माण के कार्य का एक बङा भाग व्यवस्थापिका के हाथ से निकलकर कार्यपालिका के हाथ में चला गया है।

(3) रेडियो और टेलीविजन का वाद-विवाद के मंच के रूप में विकास – राबर्ट सी. बोन के मतानुसार, ’’रेडियो और टेलीविजन अन्य सभी तत्त्वों में एक ऐसा तत्त्व है जिसने कार्यपालिका अध्यक्ष को करोङों व्यक्तियों के सामने लाकर खङा कर दिया है।’’ रेडियो तथा टी.वी. के विकास के बाद, अब कार्यपालिका संसद की सलाह किये बिना सीधा जन-सम्पर्क व जनता से आमना-सामना कर सकती है।

(4) व्यावसायिक और व्यापारिक संगठनों का विकास – ट्रेड-यूनियनों, व्यावसायिक संगठनों व हित-समूहों ने प्रशासन से अपने सदस्यों की समस्याओं और शिकायतों को लेकर सीधे बातचीत करना प्रारम्भ कर दिया है। पहले इन्हें इसके लिए ’व्यवस्थापिका के माध्यम’ की आवश्यकता होती थी, लेकिन अब सीधे बातचीत की प्रक्रिया के अन्तर्गत कार्यपालिका, व्यवस्थापिका के बाहर ही सब समझौते कर लेती है और व्यवस्थापिका के अन्दर तो तैयार की हुई बात पेश की जाती है, जिस पर ’रबर की मोहर’ लगाने का-सा काम ही उसके लिए बचा रहता है।

(5) विशेषज्ञों की परिषदों और सलाहकार समितियों का विकास – हर मंत्रालय में या विभाग में विशेषज्ञों के संगठन और संस्थाएँ होती हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने से लेकर समिति स्तर तक विषय विशेष पर इनकी सलाह ली जाती है और उसके बाद ही सम्बन्धित विषय, विधान मण्डल में अनुमोदन हेतु प्रस्तुत किया जाता है।
इस प्रकार व्यवस्थापिका के सामने ऐसे प्रस्तावों या विधेयकों को अनुमोदन करने के अलावा कोई मार्ग नहीं रह जाता है।

(6) सेनाओं पर कार्यपालिका का नियन्त्रण – प्रत्येक लोकतान्त्रिक राज्य में सैनिक सत्ता को सिविल (नागरिक) सत्ता के अधीन रखा जाता है। कार्यपालिका की इस शक्ति में आणविक व अन्य विनाशक अस्त्र-शस्त्रों के विकास के कारण और भी वृद्धि हो गई है। इस क्षेत्र में व्यवस्थापिकाएँ अक्षम हैं।

(7) विदेश सम्बन्धों की प्रधानता – विदेश सम्बन्धों का संचालन व्यवस्थापिका की भूमिका को पृष्ठभूमि में डाल देता है। जब कार्यपालिका द्वारा सब-कुछ तय हो जाए तो सन्धियों, समझौतों आदि का अनुमोदन व्यवस्थापिका से करा लिया जाता है।

(8) सकारात्मक राज्य का उदय – अब सरकारें सकारात्मक भूमिकाएँ निभाने लगी हैं, जैसे- सरकार द्वारा सामाजिक व आर्थिक विकास की दिशा तय करना।

(9) बङे-बङे अनुशासित दलों का विकास – एलेन बाल ने इस सम्बन्ध में कहा है कि, ’’बीसवीं सदी में बङे-बङे अनुशासित दलों के विकास तथा कार्यपालिका शक्ति की संश्लिष्टता और उसके बढ़ते हुए क्षेत्र के कारण विधानसभाओं का पतन या ह्रास हो गया है।’’

(10) कार्यभार की अधिकता से व्यवस्थापिका की कार्यक्षमता में कमी – के. सी. व्हीयर का मत है कि व्यवस्थापिकाएँ कार्यभार से इतनी दब जाती हैं कि उनकी कार्यक्षमता में कमी आ जाती है। विकासशील राज्यों में यह प्रवृत्ति आजकल अधिक प्रबल हो रही है।

(11) व्यवस्थापिका पर मंत्रिमंडल का हावी होना – संसदीय व्यवस्था में व्यवहार में दलीय अनुशासन के नाम पर मंत्रिमंडल व्यवस्थापिका पर हावी रहता है।

(12) कार्यपालिका द्वारा शक्तिशाली नेतृत्व प्रदान करना – वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में शक्तिशाली नेतृत्व की आवश्यकता होती है और नेतृत्व प्रदान करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा किया जा सकता है। व्यवस्थापिका अपनी प्रकृति और स्वरूप की दृष्टि से राजनीतिक व्यवस्था में नेतृत्व प्रदान करने का कार्य नहीं कर सकती।

(13) आर्थिक और राजनैतिक संकट – समय-समय पर आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में उठने वाले संकटों ने भी व्यवस्थापिका की भूमिका में ह्रास का ही कार्य किया है। इसका कारण यह है कि संकटकालीन स्थिति का सामना कार्यपालिका ही करती है, व्यवस्थापिका नहीं।

व्यवस्थापिका का महत्त्व – Vyavasthapika ka Mahatva

आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में व्यवस्थापिका के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

(1) राजनीतिक सत्ताधारकों को वैधता प्रदान करना –

व्यवस्थापिका का होना, चुनावों की प्रक्रिया और मतदाता को समय-समय पर मत देने का अधिकार मात्र शासकों को वैध रूप से सत्ता के धारक बना देता है। व्यवस्थापिकाएँ शासन को वैध बनाने का एकमात्र साधन होने के कारण इनकी यह भूमिका अत्यन्त महत्त्व की होती है।

(2) अभिज्ञान की अनुभूति कराने में महत्त्वपूर्ण –

संसदों का चुनाव करते समय चुनाव प्रक्रिया बङे से बङे नेता को आम आदमी के पास खींच लाती है तथा हर व्यक्ति का मत देेने का अधिकार होने के कारण उससे मतदान हेतु अनेक लोग आकर इधर या उधर मत देने का आग्रह करते हैं। आम आदमी के लिए इतना बहुत है। इससे उसको व्यवस्थापिका से जुङने की अनुभूति हो जाती है। वह अपने आपको व्यवस्थापिका का निर्माता समझने लगता है और इस तरह व्यवस्थापिका से उसका मानसिक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। इससे समाज में एकता, ठोसता व राष्ट्रीयता की भावना पनपती है। इस दृष्टि से व्यवस्थापिका का लोकतंत्र की सफलता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(3) राष्ट्रीय शिक्षण –

व्यवस्थापिका के अस्तित्व से कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के बीच तनाव-खिंचाव व मनमुटाव के अवसर आते हैं। यहाँ महत्त्वपूर्ण व विवादग्रस्त मसलों पर महत्त्वपूर्ण वाद-विवाद होता है। साथ ही ऐसे वाद-विवादों पर होने वाली बहसों में कभी-कभी नाटकीयता का रंग आ जाता है। किसी प्रश्न पर सदस्यों का बहिर्गमन, धरना, धक्का-मुक्की आदि की घटनाएँ समाज में उत्सुकता पैदा करती हैं, जिससे अचानक सबका ध्यान आकर्षित होता है और न चाहते हुए भी जनता राजनीतिक रूप से शिक्षित होने लगती है। इस दृष्टि से विधायिका जनता के ध्यान आकर्षण के एक बिन्दु के रूप में महत्त्वपूर्ण मंच का काम करती है।

(4) काण्डों के भण्डाफोङों के मंच की भूमिका –

विधायक विभिन्न काण्डों का भण्डाफोङ विधानमण्डलों में ही करते हैं। इससे यह घटना व्यवस्थापिका के मंच से उतरकर राष्ट्रव्यापी वाद-विवाद का रूप ले लेती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका से उठाये हुए मुद्दे राष्ट्रव्यापी वाद-विवाद का रूप ले लेती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका से उठाये हुए मुद्दे राष्ट्रव्यापी वाद-विवाद का रूप ले लेते है। अतः व्यवस्थापिका की इस भूमिका का भी अत्यधिक महत्त्व है।

निष्कर्ष : व्यवस्थापिका

आज के आर्टिकल में हमनें  व्यवस्थापिका किसे कहते हैं (Vyavasthapika Kise Kahate Hain),  व्यवस्थापिका के नाम (Vyavasthapika ke name) व्यवस्थापिका के कार्य (Vyavasthapika ke karya) और व्यवस्थापिका का गठन (Vyavasthapika ka gathan) के बारे में विस्तार से जाना। हम आशा करते है कि इस आर्टिकल से जरुर आपने कुछ सीखा होगा …धन्यवाद

कार्यपालिका किसे कहते हैं

भारत का राष्ट्रपति

भारत परिषद अधिनियम, 1919

भारतीय संविधान की विशेषताएँ

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भारत के प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद्

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