Principles Of Teaching – शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त

आज की पोस्ट में हम शिक्षण के प्रमुख सिद्धांतों (Principles Of Teaching)को विस्तार से पढेंगे |

Principles Of Teaching

शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त(Principles Of Teaching)

1. मनोरंजन के सिद्धान्त –

विद्यार्थी कक्षा में बैठे-बैठे कई बार बोरियत महसूस करते हैं ऐसा तब होता है जब शिक्षण होते-होते लम्बा समय हो जाता है अथवा शारीरिक कार्य अधिक किया हो। ऐसी स्थिति में छात्र शिक्षण में रुचि लेना बन्द कर देता है। यह स्थिति छोटी कक्षाओं में अधिक उपस्थिति होती है। ऐसी स्थिति में शिक्षण के समय शिक्षक को ऐसे उदाहरण तथा दृष्टान्त प्रस्तुत करने चाहिये जिनसे छात्र प्राप्ति के साथ-साथ मनोरंजन का भी आनन्द उठा सकें। अतः शिक्षक को मनोरंजन के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ही शिक्षण कार्य कराना चाहिये।

2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त –

बालक स्वभावतः क्रियाशील होता है क्योंकि बालक में कुछ अन्तर्निहित शक्तियाँ होती हैं जो उसे निरन्तर प्रेरित करती रहती हैं अर्थात् कक्षा शिक्षण के दौरान विद्यार्थियों को क्रियाशील बनाये रखने के लिए कार्य करने के अधिक अवसर दिये जाने चाहिये क्योंकि आज की शिक्षा बाल केन्द्रित है शिक्षक केन्द्रित नहीं इसलिए छात्र को अधिक से अधिक सक्रिय रखना चाहिये। छात्र कक्षा के दौरान जितने सक्रिय रहेंगे, छात्रों द्वारा सीखा गया ज्ञान उतना ही अधिक स्थायी होगा।

3. रुचि का सिद्धान्त –

शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों में रुचि जाग्रत करने का सिद्धान्त भी है जिसकी शिक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विन्सेट महोदय ने अपनी पुस्तक ’दी प्रिन्सीपल ऑफ़ टीचिंग मैथड’ में लिखा है कि ’’जब तक छात्रों में सक्रिय रुचि नहीं होगी तब तक शिक्षक का सर्वोत्तम कार्य नहीं होगा।’’
अर्थात् शिक्षण को उपयोगी एवं प्रभावशाली बनाने के लिए विषयवस्तु के प्रति छात्रों में रुचि जाग्रत करनी चाहिए। यदि शिक्षक इस उद्देश्य में सफल हो जाता है तो छात्र ज्ञान को सफलतापूर्वक ग्रहण कर लेता है। अब समस्या यह उत्पन्न होती है कि छात्रों में रुचि किस प्रकार उत्पन्न की जाये। इसके लिए शिक्षक विभिन्न प्रकार के प्रयत्न करता है।

कक्षा शिक्षणके समय से कुछ कटौती करके छात्रों को उनकी रुचि की क्रियाओं, जैसे – माॅडल, चित्र, चार्ट, ग्राफ, टी.वी., वी.सी.आर., फिल्म स्ट्रिप्स, फ्लैशकार्ड, समय रेखा चार्ट आदि के निरीक्षण के अधिक-से-अधिक अवसर देने चाहिए। छात्र की जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए पाठ का स्पष्ट पता चल जायेगा तो पाठ के प्रति छात्रों की रुचि जाग्रत हो जायेगी। विषयवस्तु का छात्रों की क्रियाओं एवं उद्देश्यों में भी सम्बन्ध स्थापित किया जाये तथा उसे छात्रों के जीवन से सम्बन्धित किया जाये।

4. प्रेरणा का सिद्धान्त –

’मन’ महोदय ने लिखा है कि ’’शिक्षक जो छात्रों को सीखने की इच्छा से प्रेरित किए बिना सिखाने का प्रयत्न करता है, ठण्डे लोहे को पीटता है।’’ प्रेरणा सीखने का प्रबल आधार है। जब छात्र विषयवस्तु के प्रति प्रेरित हो जाते हैं तो शिक्षण में नीरसता समाप्त हो जाती है वे सीखने में भी किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करते। उत्सुकता के वशीभूत छात्रों को प्रेरित कर देने मात्र से ही शिक्षक अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हो जाते हैं क्योंकि बाद में छात्र शिक्षण में स्वयं रुचि लेते है। विषयवस्तु पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं, साथ ही स्वाध्याय द्वारा सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिस समय शिक्षक छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित कर देता है तो सीखने में किसी भी प्रकार की समस्या उत्पन्न नहीं होती है, लेकिन उचित प्रेरणा के अभाव में यह सम्भव नहीं है। शिक्षक की ऐसी परिस्थितियाँ तैयार करनी चाहिये जिससे बालक में नई-नई बातों तथा विषयवस्तु को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाये।

5. विभाजन का सिद्धान्त –

कभी-कभी शिक्षक के सम्मुख ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि सम्पूर्ण इकाई को विषयवस्तु की जटिल प्रकृति के कारण एक ही पाठ में नहीं पढ़ा सकता। ऐसी स्थिति में पाठ को उचित सोपानों में विभाजित किया जा सकता है अथवा उनके कई टुकङे किये जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में विषयवस्तु के चयन के बाद शिक्षण की सुविधा की दृष्टि से उसको समुचित सोपानों में विभक्त कर लेना ही उचित रहता है। इसके पश्चात् प्रत्येक सोपान को छोटे-छोटे पदों अथवा इकाइयों में विभाजित कर लेना चाहिये। इससे शिक्षित प्रक्रिया की जटिलता दूर हो जाती है।

6. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त –

कक्षा शिक्षण में वैयक्तिक भिन्नता को नजर अन्दाज नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि प्रत्येक कक्षा में सभी छात्र एक ही बुद्धि लब्धि के अथवा समान मानसिक स्तर के नहीं होते क्योंकि छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नता एक प्राकृतिक स्थिति है। कुछ विद्यार्थी विषयवस्तु को शीघ्र ही समझ लेते हैं परन्तु कुछ छात्रों को वही विषय वस्तु बहुत देर से समझ में आती है। ऐसी स्थिति में शिक्षक को कम गति से सीखने वाले छात्रों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करके उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए और योग्य छात्रों का समुचित मार्गदर्शन भी करना चाहिये।

7. नियोजन का सिद्धान्त –

शिक्षक कक्षा में जाने से पूर्व योजना बनाता है जिसमें सभी क्रियाओं का निर्धारण करता हैं। अतः पाठ के उद्देश्यों के आधार पर शिक्षक को अपने पाठ का नियोजन कर लेना चाहिये। इससे समय की बचत होती है एवं शिक्षकों को भी भ्रमित होने से बचाती है। इससे शिक्षण सरस, रोचक एवं प्रभावी बन जाता है। योकम एवं सिम्पसन महोदय ने कहा है कि ’’नियोजन अपव्यय को रोकता है। यह शिक्षक को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध होने में सहायता करता है।’’

पाठ के नियोजन के सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रमुख रूप से तीन बातें ध्यान में रखी जाती हैं-

(। )विषयवस्तु का चयन,(।। ) विषयवस्तु को छोटे-छोटे भागों में विभाजन और (।।। ) विषयवस्तु का अभ्यास।

अतः शिक्षक को पाठ की योजना तैयार करते समय यह पहले से ही सोच लेना चाहिये कि विद्यार्थियों से किस स्तर पर कितना सहयोग प्राप्त करके किसी समस्या को कौन-सी विधि से हल करना चाहिए? कभी-कभी शिक्षण के दौरान शिक्षक के समक्ष ऐसी भी समस्याएँ उपस्थित हो जाती हैं जिनकी शिक्षक ने कभी कल्पना भी न की होगी। ऐसी स्थिति में शिक्षक को अपनी योग्यता एवं आत्मविश्वास से उस समस्या का हल खोजना चाहिये।

8. चयन का सिद्धान्त –

ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत है। अतः सम्पूर्ण ज्ञान होना छात्र अथवा शिक्षक के लिए असम्भव बात है और यह अधिक उपयोगी भी नहीं होता इसलिए छात्रों को दिये जाने वाले ज्ञान का चयन बङी सावधानी एवं सजगता से करना चाहिये। शिक्षण के लिए जिस विषयवस्तु का निर्धारण किया गया है उसमें से आवश्यक एवं उपयोगी तथ्यों को चुनकर क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्थित कर लेना चाहिये और आवश्यक चित्र, मानचित्र एवं रेखाचित्र आदि भी तैयार कर लेना चाहिये।

इस सम्बन्ध में रायबर्न महोदय कहते हैं कि ’’चयन का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है और शिक्षक के अच्छे चयन की योग्यता पर उसके कार्य की सफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है।’’ अतः शिक्षक को किसी निश्चित उद्देश्य के अनुसार ही विषयवस्तु अथवा पाठ्यपुस्तक का चयन करना चाहिये। इससे छात्र व शिक्षक दोनों को ही लाभ होगा।

9. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त –

निश्चित उद्देश्यों के सम्बन्ध में रायबर्न एवं फोर्ज कहते हैं कि ’’हमें प्रत्येक पाठ का उद्देश्य जानना आवश्यक है क्योंकि इसके प्रत्येक भाग और प्रत्येक वस्तु जिसे हम और हमारे छात्र करते हैं, उस उद्देश्य पर ही निर्भर होने चाहिये।’’ अतः शिक्षक जो भी अध्याय पढ़ाता है उसके निश्चित उद्देश्यांे का निर्धारण कर लेना चाहिये जिससे विषयवस्तु का ज्ञान रोचक एवं प्रभावशाली बनता है।

प्रत्येक पाठ के उद्देश्य का ज्ञान शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों के लिए उपयोगी है क्योंकि शिक्षक को जो भी पढ़ाना है और छात्र को जो पढ़ना है या सीखना है उसकी ओर संकेत करता है। निश्चित उद्देश्यों के अभाव में शिक्षक को यह पता ही रहता है कि –
वह कहाँ जा रहा है?
क्यों जा रहा है ?
किसे पढ़ाना है ? आदि।
यदि हम उद्देश्यों को निश्चित नहीं करते हैं तो हमें उक्त प्रश्नों के उत्तर भी नहीं मिल सकते। अतः उद्देश्यों को निश्चित करने का सिद्धान्त प्रभावी शिक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देश देता है।

इस सम्बन्ध में बी.डी. भाटिया ने कहा है कि ’’उद्देश्यों के अभाव में, शिक्षक उस नाविक के समान है जो अपने साध्य या मंजिल को नहीं जानता है और बालक उस पतवार विहीन नौका के समान है जो लहरों के थपेङे खाकर किसी तट पर जा लगेगी।’’ इस प्रकार उद्देश्यों का ज्ञान शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों को ही होना चाहिये एवं उद्देश्य तथा शिक्षण पद्धति प्रभावी नहीं हो सकती।

10. आवृत्ति का सिद्धान्त –

किसी भी विषयवस्तु के ज्ञान को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवृत्ति अथवा अभ्यास अति आवश्यक है क्योंकि अभ्यास व्यक्ति को कुशल बनता है और यह अभ्यास मौखिक, लिखित एवं प्रायोगिक तीनों प्रकार का होता है। इस सम्बन्ध में रायबर्न महोदय कहते हैं कि ’’अभ्यास अधिक उपयोगी नहीं है अगर शिक्षक इसका पठित विषयवस्तु की जाँच हेतु साधन के रूप में प्रयोग करता है।

प्रश्नों के द्वारा शिक्षक अभ्यास कराने वाले कार्य को सक्रियता से करने में छात्रों की सहायता कर सकता है और परिणामस्वरूप ऐसा अभ्यास अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।’’
अतः यह कहा जा सकता है कि बालक अभ्यास या आवृत्ति के द्वारा ज्ञान का आत्मीकरण कर लेता है।

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