जर्मनी का एकीकरण – Germany ka Ekikaran

आज की पोस्ट में हम ’जर्मनी के एकीकरण’(Germany ka Ekikaran) के बारे में पढ़ेंगे। जर्मनी का एकीकरण के सभी चरणों को हम पढेंगे। बिस्मार्क के कूटनीतिज्ञ प्रयासों से ’जर्मनी का एकीकरण’ हुआ था।

जर्मनी का एकीकरण – Germany ka Ekikaran

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जर्मनी के एकीकरण की पृष्ठभूमि

इस पोस्ट में पहले हम जर्मनी की भौगोलिक स्थिति और वहाँ की परिस्थिति और व्यवस्था के बारे में पढ़ेगे। तो दोस्तों जर्मनी के बारे में पढ़ना शुरू करते है।

🔸 18 वीं सदी में फ्रांस की क्रान्ति (1789) हुई थी। 18 वीं सदी के अंत में जर्मनी अनेक छोटी-छोटी 300 रियासतों में बंटा हुआ था। नेपोलियन बोनापार्ट ने इन 300 रियासतों को जीता और इन्हें जीतकर इन रियासतों की एक ’डायट’ बना दी। अब नेपोलियन ने इन 300 रियासतों को संगठित किया और इस प्रकार एक देश जर्मनी बनता है।

🔹 19 वीं शताब्दी के आरम्भ में जर्मनी भी इटली की तरह एक भौगोलिक अभिव्यक्ति मात्र था। जर्मनी अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। भौगोलिक विस्तार की दृष्टि से जर्मनी तीन प्रान्तों में बंटे हुए थे –

  • उत्तरी भाग
  • मध्यवर्ती भाग
  • दक्षिणी भाग।

उत्तरी भाग में जर्मनी के राज्य – प्रशा, सैक्सनी, हनोवर, फ्रेंकफर्ट।

मध्य भाग में जर्मनी के राज्य  – राइनलैंण्ड था।

दक्षिणी भाग में जर्मनी के राज्य –  बवेरिया, बुटेनबर्ग, बारेन, प्लैटिनेट।

इन राज्यों में सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य प्रशा था और प्रशा के नेतृत्व में सम्पूर्ण जर्मनी का एकीकरण होता है। जर्मनी के ये तीनों प्रान्तों रोमन सम्राट के प्रति उत्तरदायी थे। ।

🔸 नेपोलियन प्रथम ने जर्मनी के 39 राज्यों का एक संघ बनाया। फिर वियना कांग्रेस ने 39 राज्यों का एक विशाल परिसंघ बनाया। आस्ट्रिया का सम्राट इस परिसंघ का अध्यक्ष बना। फ्रांसीसी विद्वान लिपान ने ’आधुनिक जर्मनी का जन्मदाता’ नेपोलियन को कहा। इन राज्यों में एकता का अभाव था। आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से जर्मनी पिछङा और विभाजित देश था। जर्मनी की औद्योगिक प्रगति हुई। वाणिज्य और व्यापार का विकास हुआ। नेपोलियन प्रथम जर्मनी राज्यों का एक संघ स्थापित कर राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया।

🔹 1830 ई. और 1848 ई. की क्रान्तियों के द्वारा जर्मनी के लोगों में एकता आई। प्रशा के नेतृत्व में आर्थिक संघ की स्थापना से राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिला। इससे राजनीतिक एकीकरण को भी प्रोत्साहन मिला। जर्मनी का पूँजीपति वर्ग व्यापार की प्रगति के लिए जर्मनी को एक संगठित राष्ट्र बनाना चाहता था। यह वर्ग एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासन की व्यवस्था के पक्ष में था। जर्मनी के एकीकरण में रेलवे की भूमिका भी थी। रेलवे के विकास से प्राकृतिक बाधाएँ दूर हो गयी। रेलवे के विकास से जर्मनी के राज्यों दूरियाँ कम होने लगी।

🔸 सभा के आयोजन और भाषण पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये गये। राष्ट्रीयता के प्रचार करने वालों और राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रसार करने वाले को कठोर दण्ड दिये जाने लगे। 1848 में जर्मनी के एकीकरण का कार्य शुरू किया गयाआस्ट्रिया जर्मनी के एकीकरण का विरोधी था।

जर्मनी के एकीकरण एक महान् राजनेता बिस्मार्क का योगदान भी था। बिस्मार्क जनतंत्र का विरोधी तथा निरंकुश शासन का समर्थक था। बिस्मार्क प्रशा को शक्तिशाली बनाकर उसके नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहता था। जर्मनी में पहली बार लोगों ने बिस्मार्क के नेतृत्व में एकीकरण करने का प्रयास किया।

जर्मनी के एकीकरण में प्रमुख बाधाएँ

(1) आस्ट्रिया का प्रभुत्त्व –

आस्ट्रिया के अधीन समस्त जर्मनी क्षेत्र था तथा आस्ट्रिया का जर्मनी के राज्यों पर व्यापक प्रभाव था। इसी कारण आस्ट्रिया जर्मनी के एकीकरण का विरोधी था। आस्ट्रिया कभी नहीं चाहेगा कि उसके अधिकार जर्मनी से समाप्त हो। इसलिए आस्ट्रिया ने अंतिम समय तक जर्मनी के एकीकरण का विरोध किया था।

(2) एकीकरण में इंग्लैण्ड बाधक तत्त्व –

इंग्लैण्ड उत्तरी राज्यों (हनोवर प्रान्त) में अपना प्रभुत्व बनाया रखना चाहता था। इंग्लैण्ड भी जर्मनी का एकीकरण नहीं करना चाहता था।

(3) पोप का प्रभाव –

स्वयं रोमन सम्राट भी पोप के प्रभाव में था। सम्पूर्ण यूरोप भी पोप के प्रभाव में था। पोप जैसा चाहता था वैसा ही होता था पोप के अनुसार यूरोप की शासन व्यवस्था चलती थी। इसलिए पोप के शासन के चलते जर्मनी का एकीकरण सम्भव नहीं था।

(4) सैन्य शक्ति की कमजोरी –

जर्मनी में सैनिक शक्ति कमजोरी थी। जर्मनी में कोई शक्तिशाली सेना नहीं थी, न ही जर्मनी के सैनिकों में जर्मनी के एकीकरण के प्रति कोई उत्साह था। क्योंकि सैनिकों को प्रोत्साहित करने वाला कोई राजनेता था।

(5) शारीरिक एवं मानसिक थकान –

नेपोलियन बोनापार्ट के विरुद्ध दीर्घकालीन युद्धों से जर्मन लोग शारीरिक एवं मानसिक थकान महसूस कर रहे थे। मानसिक थकान को दूर करने के लिए वे विश्राम चाहते थे। अतः ऐसी परिस्थितियों में जर्मनी में राष्ट्रीयता की विचारधारा तीव्र गति से विकसित नहीं हो सकी।

(6) वैचारिक भिन्नता –

जर्मनी में अनेक राजनीतिक दल थे, जो सुधारों के विषय में एकमत नहीं थे। जर्मनी के कुछ राज्य प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहते थे तो कुछ राज्य सामन्तवादी विचारधारा के समर्थक थे। कुछ सुधारवादी दल आस्ट्रिया के गौरव की प्रशंसा कर रहे थे। कुछ सुधारवादी दल एकीकरण के पश्चात् जर्मनी में गणतन्त्र की स्थापना करना चाहते थे, तो कुछ दल हैप्सबर्ग वंश के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहते थे।

कुछ राजनीतिक दल फ्रांसीसी क्रान्ति से प्रभावित थे, तो कुछ क्रान्तिकारी विचारों के प्रबुल शत्रु थे। जर्मनी में केवल शिक्षित वर्ग और उच्च कुल के लोगों में ही राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान थी, जो जर्मनी के एकीकरण करना चाहते थे। लेकिन जर्मनी जनता में न तो राष्ट्रीयता की भावना थी और न ही जर्मनी के एकीकरण की आवश्यकता अनुभव कर रही थी। इन परिस्थितियों में जर्मनी में राष्ट्रीय एकीकरण की भावना का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ।

(7) विदेशी प्रभुत्व –

जर्मनी के अनेक राज्यों पर विदेशी राजवंशों का शासन था, जो जर्मनी के एकीकरण के प्रबल विरोधी थे। जर्मनी की श्लेसबिग तथा हालस्टीन की डचियों पर डेनमार्क का अधिकार था। उत्तर जर्मन राज्यों पर आस्ट्रिया का प्रभुत्त्व था। अतः आस्ट्रिया और डेनमार्क जर्मनी के एकीकरण के विरोधी थे। दक्षिणी जर्मनी के राज्यों पर फ्रांस का प्रभाव था। अतः फ्रांस भी जर्मनी के एकीकरण के विरुद्ध था।

(8) आस्ट्रिया की प्रतिक्रियावादी नीति –

वियना कांग्रेस के निर्णय के अनुसार जर्मनी को 39 राज्यों को शिथिल संघ बनाया गया और उसका अध्यक्ष आस्ट्रिया का सम्राट घोषित किया गया। इस प्रकार जर्मन-राज्यों पर आस्ट्रिया का प्रतिक्रियावादी शासन स्थापित कर दिया गया। आस्ट्रिया का प्रधानमंत्री मेटरनिख घोर प्रतिक्रियावादी था। वह जर्मनी में राष्ट्रीय आन्दोलनों के प्रसार को रोकने के लिए कटिबद्ध था। वह उदारवाद, राष्ट्रवाद तथा लोकतन्त्र का प्रबल विरोधी था तथा जर्मनी में निरंकुश तथा प्रतिक्रियावादी शासन बनाए रखना चाहता था।

मेटरनिख ने जर्मनी में प्रारम्भ होने वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों को कुचलने के लिए ’कार्ल्सबाद के आदेश’ जारी किये। इन आदेशों के अनुसार विश्वविद्यालयों के शिक्षकों और विद्यार्थियों की गतिविधियों पर कठोर निगरानी रखी जाती थी। समाचार-पत्रों, भाषणों, लेखन, सभाओं और जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए तथा सम्पूर्ण जर्मनी में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया।

इसके अलावा एक जाँच आयोग स्थापित किया गया, जो क्रांतिकारी समितियों का पता लगाता था। मेटरनिख की दमनकारी नीति के कारण 1848 ई. तक जर्मनी में क्रान्तिकारी और प्रगतिशील विचारों का प्रसार न हो सका।

(9) आस्ट्रिया और प्रशा का द्वेष –

आस्ट्रिया और प्रशा में पारस्परिक द्वेष था। दोनों ही जर्मनी का नेतृत्व अपने-अपने हाथ में रखना चाहते थे। आस्ट्रिया जर्मनी में राष्ट्रीय भावनाओं को कुचलना चाहता था, क्योंकि उसको डर था कि राष्ट्रीयता के सिद्धांत के आधार पर जर्मनी एक हो जायेगा, जिससे आस्ट्रिया का साम्राज्य समाप्त हो जायेगा। आस्ट्रिया का मेटरनिख जर्मनी के राज्यों को विभाजित करना चाहता था और वह जर्मनी को कमजोर करना चाहता था।

जबकि प्रशा राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के आधार पर जर्मनी को संगठित रखना चाहता था। इस संगठित जर्मनी का नेतृत्व प्रशा करना चाहता था। अतः प्रशा और आस्ट्रिया के पारस्परिक द्वेष के कारण भी जर्मनी के एकीकरण में विलम्ब हुआ।

(10) जनता में राष्ट्रीय जागृति का अभाव –

जर्मनी का सम्पूर्ण जनता में राष्ट्रीय जागृति का विकास नहीं हो पाया था। केवल शिक्षित लोग तथा कुछ उच्च कुलों के लोगों में ही राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान थी।

जर्मनी के एकीकरण में सहायक तत्त्व

जर्मनी के एकीकरण के लिए 1815 से 1850 ई. तक प्रयास किए गये जो कि निम्नलिखित थे-

(1) बौद्धिक आन्दोलन –

जर्मनी के दार्शनिकों, लेखकों, कवियों एवं इतिहासकारों नेे जनता में राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार किया। प्रमुख विद्वानों गेटे, शिलर, हीगल, फिक्टे, डालमेन, बोमर आदि ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जर्मन लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया। इन विद्वानों का कहा था कि ’जर्मन जाति श्रेष्ठ’ है।

फिक्टे ने अपने एड्रेसेज टू द जर्मन पीपुल के द्वारा जर्मन जाति को प्रभावित किया था। फिक्टे ने फ्रांस के विरुद्ध जर्मनी में राष्ट्रवादी भावना भर थी। हेनरिक हाइन ने राष्ट्रीयता के गीत गाकर जनता में नवीन उत्साह उत्पन्न किया।

डालमेन, राके, बोमर आदि इतिहासकारों ने जर्मनी के प्राचीन गौरव पर प्रकाश डाला। जर्मन विश्वविद्यालयों ने भी जर्मन-राज्यों में राष्ट्रीयता की भावना के प्रसार में योगदान दिया। बर्लिन, बान, जैना, लिप्जिग आदि विश्वविद्यालय राष्ट्रीय जागृति एवं बौद्धिक आन्दोलन के प्रमुख केन्द्र बन गए। बौद्धिक आन्दोलन में एक ’बर्शेनशैफ्ट’ नामक संगठन बना था, जिसका निर्माण 1815 में जेना विश्वविद्यालय (जर्मनी) में हुआ था। यह संगठन इस भावना को आगे बढ़ाता है कि जर्मनी का एकीकरण होना चाहिए।

(2) ’जोलवेरिन’ (आर्थिक संघ) की स्थापना –

1819 ई. में प्रशा ने जर्मनी के एक छोटे से राज्य श्वार्जबर्गर-सोदरशोसन से सीमा शुल्क सम्बन्धी सन्धि करके ’जोलवेरिन अथवा ’आर्थिक संघ’ की स्थापना की। 1834 ई. तक इस संघ में 18 राज्य सम्मिलित हो चुके थे। इस संघ के सदस्य-राज्यों ने यह निश्चित किया कि वह एक-दूसरे के माल पर चुंगी कर नहीं लेंगे तथा माल का स्वतन्त्र व्यापार करेंगे। 1850 ई. तक जर्मनी के सभी इस आर्थिक संघ में सम्मिलित हो गए।
’जोलवेरिन’ अथवा ’आर्थिक संघ’ की स्थापना से आर्थिक दृष्टि से समस्त जर्मनी एक हो गया। अब एक राज्य के लोग दूसरे राज्य में व्यापार के लिए आने-जाने लगे। इससे जनता में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। इस आर्थिक संघ की स्थापना से प्रशा जर्मन राज्यों का नेता बन गया। इस संघ की स्थापना से जर्मन राज्यों में पारस्परिक मैत्री का भाव उत्पन्न हुआ।

केटलबी ने लिखा है कि, ’’जोलवेरिन के निर्माण ने भविष्य में प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के राजनीतिक एकीकरण का मार्ग प्रशस्त कर दिया।’’

(3) औद्योगिक विकास –

जर्मनी में अब औद्योगिक क्रान्ति हुई। जर्मनी के एकीकरण में औद्योगिक विकास अर्थात् कोयला और लोहा की भूमिका भी थी। इनसे राजनीतिक एकता को प्रात्सोहन मिला था। प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी में जोलवेरिन संघ की स्थापना हो गयी थी और इस औद्योगिक क्रांति से इस संघ को पर्याप्त बढ़ावा मिला, क्योंकि प्रशा के क्षेत्रों में कोयले एवं लोहे के प्रचुर भंडार थे। औद्योगिक क्रान्ति से नए-नए उद्योग-धंधों एवं रेलमार्गों का निर्माण हुआ।

सूती वस्त्रों को अधिक प्रोत्साहन मिला। रेलवे लाइनों का भी विस्तार हुआ। जर्मनी के प्रत्येक राज्य को रेलों के द्वारा जोङने का कार्य किया गया था। औद्योगिक विकास में रेलवे ने भी पर्याप्त भूमिका निभाई थी। जिससे जर्मनी में भौगोलिक एकता स्थापित हुई और आवागमन में भी तीव्रता आई। इससे आर्थिक एवं व्यापार विकास को भी प्रोत्साहन मिला। औद्योगिक उन्नति के परिणामस्वरूप राजनीतिक एकता को भी बढ़ावा मिला।

औद्योगीकरण के फलस्वरूप उद्योपतियों एवं पूँजीपतियों का प्रभाव भी बढ़ा। जर्मनी का पूँजीपति वर्ग व्यापार की प्रगति के लिए जर्मनी को एक संगठित राष्ट्र बनाना चाहता था। यह वर्ग एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासन की व्यवस्था के पक्ष में था, ताकि उनके व्यावसायिक हितों को संरक्षण मिल सके। अतः पूँजीपति और उद्योगपति प्रशा को बढ़-चढ़कर सहयोग दे रहे थे। वे जर्मनी के एकीकरण के पक्षधर थे।

1850 तथा 1860 तक जर्मनी की गणना यूरोप के औद्योगिक राज्यों में की जाने लगी। इस औद्योगिक उन्नति के फलस्वरूप प्रशा की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई। इस औद्योगीकरण का जर्मनी के राजनीतिक जीवन पर भी प्रभाव पङा। औद्योगिक विकास के फलस्वरूप जर्मनी में एक नये पूँजीपति वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। इस वर्ग ने जर्मनी की राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया। जर्मनी के उद्योगपति तथा पूँजीपति अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए संयुक्त जर्मनी के समर्थक हो गए।

डेविड टामसन ने लिखा है कि, ’’पूँजीपति वर्ग का सहयोग मिल जाने से एकीकरण के आन्दोलन को ऐसा बल प्राप्त हुआ, जो पहले के आन्दोलनों को प्राप्त नहीं हो सका था।’’

(4) 1830 ई. की क्रान्ति –

1830 ई. की क्रान्ति का प्रभाव जर्मनी के राज्यों पर व्यापक रूप से पङा था। बोल्शेविक, सक्सेनी शासकों ने 1815 ई. में संविधान लागू किया था। सभी जर्मन-राज्यों में वैध शासन की स्थापना हो गयी थी, केवल प्रशा और आस्ट्रिया को छोङकर। लेकिन बाद मेें आस्ट्रिया, प्रशा और रूस के प्रयासों से इस आन्दोलन का दमन कर दिया गया।

आस्ट्रिया के प्रधानमंत्री मेटरनिख ने निरंकुश शासन पुनः स्थापित कर दिया।
1830 की फ्रांस की क्रान्ति से प्रभावित होकर जर्मनी के अनेक राज्यों में देशभक्तों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए आन्दोलन शुरू कर दिया। परन्तु जर्मनी के शासकों ने आस्ट्रिया के प्रधानमंत्री मेटरनिख की सहायता से इस आन्दोलन को कुचल दिया।

(5) 1848 ई. की क्रान्ति –

1830 की फ्रांस की क्रान्ति से प्रभावित होकर प्रशा, बवेरिया, हेनोवर, सेक्सनी, बेडेन आदि राज्यों की जनता ने वहाँ के निरंकुश शासकों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। प्रारम्भ में क्रान्तिकारियों को सफलता मिली और अनेक जर्मन राज्यों के शासकों ने उदारवादी शासन-व्यवस्था की स्थापना की। प्रशा के शासक फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ को भी उदार संविधान स्वीकार करना पङा, परन्तु क्रान्तिकारियों की यह सफलता क्षणिक ही रही। शीघ्र ही जर्मन शासकों ने आस्ट्रिया के प्रधानमंत्री मेटरनिख की सहायता से क्रान्तिकारियों को कुचल दिया और जर्मन राज्यों में पुनः प्रतिक्रियावादी शासन-व्यवस्था की स्थापना कर दी गई।

(6) फ्रेंकफर्ट की संसद –

सम्पूर्ण जर्मनी के लिए एक नवीन संविधान बनाने के उद्देश्य से मई, 1848 में फ्रेंकफर्ट में राष्ट्रीय विधानसभा के सदस्यों की एक बैठक हुई। मार्च, 1849 में फ्रेंकफर्ट की संसद ने 10 माह के प्रयत्नों से संघ के नये संविधान का निर्माण किया। इस संघ का अध्यक्ष प्रशा का सम्राट फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ को बनाया गया। इस समय सदस्यों ने प्रशा के सम्राट फ्रेडरिक विलियत चतुर्थ से अनुरोध किया कि वह जर्मन राज्यों का राजमुकुट धारण करना स्वीकार कर ले, परन्तु उसने राजमुकुट धारण करने से इनकार कर दिया, क्योंकि इससे आस्ट्रिया के साथ युद्ध की सम्भावना थी।

फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ आस्ट्रिया के साथ युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था। इसके अतिरिक्त फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा भेंट किए गए राजमुकुट को ग्रहण करना अपमानजनक मानता था। इस प्रकार फ्रेडरिक की संसद भी असफल रही और वैधानिक तरीकों से जर्मनी के एकीकरण के प्रयासों पर पानी फिर गया। इसके बाद जर्मन राज्यों में पुनः निरंकुश एवं प्रतिक्रियावादी शासन स्थापित हो गया।

(7) इरफर्ट संघ की योजना –

कुछ समय पश्चात् प्रशा के सम्राट फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ ने मार्च, 1850 में इरफर्ट नामक स्थान पर एक दूसरी संसद की बैठक बुलाई। बैठक में यह निर्णय लिया गया कि हेनोवर, सेक्सनी, बर्टम्बर्ग तथा बवेरिया के साथ मिलकर प्रशा के नेतृत्व में एक संघ का निर्माण किया जाए। परन्तु आस्ट्रिया ने इसका घोर विरोध किया। आस्ट्रिया जर्मनी में अपने प्रभुत्व को बनाए रखना चाहता था। अतः यह योजना भी कार्यान्वित नहीं हो सकी।

बिस्मार्क का जीवन परिचय और बिस्मार्क की रक्त और लौह की नीति

बिस्मार्क का प्रारम्भिक जीवन –

बिस्मार्क 19 वीं शताब्दी का यूरोप का एक महान् राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ था। उसका जन्म 1 अप्रैल, 1815 को ब्रेडनबर्ग के कुलीन परिवार में हुआ था। उसका परिवार जुन्कर परिवार कहलाता था। उसने गार्टिजन तथा बर्लिन के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की। 1847 ई. में बिस्मार्क प्रशा की राज्यसभा का सदस्य चुना गया। 1851 ई. में उसे फ्रेंकफर्ट स्थित जर्मन संघ की संसद में प्रशा का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया, जहाँ वह 1859 ई. तक प्रशा का प्रतिनिधित्व करता रहा।

बिस्मार्क राजदूत के रूप में –

1859 ई. में प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम ने बिस्मार्क को रूस में राजदूत बनाकर भेजा। उसने अपनी कूटनीतिक योग्यता से रूस के जार से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बना लिये। मार्च, 1862 में बिस्मार्क को फ्रांस में राजदूत नियुक्त किया गया।

बिस्मार्क प्रशा के प्रधानमंत्री के रूप में –

प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम ने 23 सितम्बर, 1862 को बिस्मार्क को फ्रांस से बुलाकर प्रशा का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। इस समय सम्राट विलियम प्रथम तथा जर्मन संसद के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई थी।

इस अवसर पर बिस्मार्क ने सम्राट विलियम प्रथम को आश्वासन देते हुए कहा था कि, ’’मैं श्रीमान जी के साथ नष्ट हो जाऊँगा, परन्तु संसद के साथ संघर्ष में आपका साथ नहीं छोडूँगा।’’ बिस्मार्क का प्रमुख उद्देश्य आस्ट्रिया को पराजित कर जर्मनी का एकीकरण करना था। अतः उसने प्रशा की सैन्य-शक्ति का पुनर्गठन करने का निश्चय कर लिया।

बिस्मार्क की ’रक्त और लौह’ की नीति –

बिस्मार्क जर्मनी का एकीकरण करना चाहता था। इसके लिए उसने ’रक्त और लौह’ की नीति अपनाई। बिस्मार्क की मान्यता थी कि सैनिक दृष्टि से प्रशा को शक्तिशाली बनाकर ही जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया जा सकता था। अतः उसने प्रशा की सैन्य-शक्ति के पुनर्गठन का कार्य जारी रखा। उसने प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम को सलाह दी कि वह प्रशा की सैन्य-शक्ति को सुदृढ़ बनाना जारी रखे और संसद के विरोध की चिन्ता न करे। अतः बिस्मार्क ने निम्न सदन की अवहेलना कर उच्च सदन से बजट पास करवा लिया।

बिस्मार्क ने ’रक्त और लौह’ की नीति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि, ’’हमारे समय की महान् समस्याएँ भाषणों और बहुमत के प्रस्तावों द्वारा नहीं, बल्कि रक्त और लौह की नीति के द्वारा ही हल हो सकती हैं।’’ बिस्मार्क के कहने का अभिप्राय यह था कि प्रशा के भविष्य का निर्माण सेना द्वारा होगा, संसद के द्वारा नहीं। इस प्रकार बिस्मार्क का दृढ़ विश्वास था कि सैन्य-शक्ति के बल पर ही जर्मनी का एकीकरण सम्भव था।

अतः बिस्मार्क ने थोङे समय में ही प्रशा में एक विशाल और सुसज्जित सेना का निर्माण किया और अन्त में ’रक्त और लौह’ की नीति का अनुसरण करते हुए केवल 6 वर्षों (1864-1870 ई.) में ही सम्पूर्ण जर्मनी का एकीकरण कर दिया।

बिस्मार्क की नीति के उद्देश्य –

बिस्मार्क की नीति के दो प्रमुख उद्देश्य थे-

  1. प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना।
  2. आस्ट्रिया को पराजित करना तथा उसे पराजित करने के लिए यूरोप के शक्तिशाली देशों का समर्थन प्राप्त करना।

जर्मनी के एकीकरण के चरण

जर्मनी के एकीकरण का प्रथम चरण

बिस्मार्क ने ’रक्त और लौह’ की नीति का अनुसरण करते हुए तीन युद्धों के द्वारा जर्मनी के एकीकरण का कार्य पूरा किया। बिस्मार्क का दृढ़ विश्वास था कि सैन्य-शक्ति के बल पर ही जर्मनी का एकीकरण सम्भव था। अतः उसने एक विशाल एवं शक्तिशाली सेना का गठन किया और केवल 6 वर्षों (1864-1870 ई.) में ही सम्पूर्ण जर्मनी का एकीकरण कर दिया। वास्तव में जर्मनी का एकीकरण बिस्मार्क की ’रक्त एवं लौह’ नीति का ही परिणाम था। जर्मनी के एकीकरण की शुरूआत 1864 ई. से हुई।

डेनमार्क से युद्ध (1864 ई.) –

श्लेसविग तथा हालस्टीन की डचियाँ, डेनमार्क तथा जर्मनी के बीच स्थित थीं। श्लेसविग में आधे जर्मन और आधे डेन लोग रहते थे और हालस्टीन जर्मन संघ का सदस्य था और वहाँ की जनता भी जर्मन थी। परन्तु इन पर कई शताब्दियों से डेनमार्क का अधिकार था। 1852 ई. की लन्दन की सन्धि के अनुसार यह तय किया गया था कि डेनमार्क का शासक इन दोनों डचियों का शासन तो करता रहेगा परन्तु वह उन्हें डेनमार्क के राज्य में सम्मिलित नहीं करेगा।

1863 ई. में डेनमार्क के सम्राट क्रिश्चियन नवम् ने ’लन्दन सन्धि’ का उल्लंघन करते हुए एक नया संविधान बनाकर हालस्टीन और श्लेसविग दोनों राज्यों को डेनमार्क के राज्य में सम्मिलित कर लिया। इससे जर्मन लोगों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।

बिस्मार्क भी इन डचियों पर अधिकार करना चाहता था। लेकिन बिस्मार्क जानता था यदि प्रशा अकेला इन डचियों पर अधिकार करेगा तो उसे अन्य यूरोपीय राज्यों के विरोध का सामना करना पङेगा। बिस्मार्क ये भी जानता था कि प्रशा इतना शक्तिशाली नहीं है वह अकेला इन डचियों पर अधिकार नहीं कर सकता इसलिए बिस्मार्क इन डचियों पर अधिकार के करने के लिए शक्तिशाली आस्ट्रिया का सहयोग प्राप्त करना चाहता था।

अतः बिस्मार्क ने अपनी कूटनीति से आस्ट्रिया को अपने पक्ष में कर लिया था। 16 जनवरी, 1864 को आस्ट्रिया व प्रशा के बीच एक समझौता हो गया।

इस समझौते के बाद आस्ट्रिया व प्रशा दोनों मिलकर डेनमार्क के शासक को अल्टीमेटम देते है कि वह 48 घंटे के अंदर 1863 के संविधान को समाप्त कर दे। परन्तु डेनमार्क ने इस अल्टीमेटम की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि डेनमार्क को इंग्लैण्ड से सहायता मिलने की आशा था। इस घटना के कारण युद्ध की ज्वाला उठ खङी हुई।

फरवरी, 1864 ई. में आस्ट्रिया तथा प्रशा ने डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया और डेनमार्क को पराजित कर दिया। 30 अक्टूबर, 1864 को डेनमार्क को आस्ट्रिया तथा प्रशा के साथ ’वियना की सन्धि’ करनी पङी, जिसके अनुसार डेनमार्क ने श्लेसविग, हालस्टीन तथा लाएनबर्ग आस्ट्रिया और प्रशा को सौंप दिए।

गेस्टाइन की सन्धि –

इन दोनों डचियों पर अधिकार करने के बाद आस्ट्रिया और प्रशा के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए। आस्ट्रिया और प्रशा के बीच भी एक सन्धि होती है। 14 अगस्त, 1865 को आस्ट्रिया के सम्राट फ्रांसिस जोसेफ तथा प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम के बीच एक सन्धि हुई, जिसे ’गेस्टाइन की सन्धि’ कहते हैं।
इस सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-

  1. श्लेसविग पर प्रशा का अधिकार मान लिया गया।
  2. हालस्टीन पर आस्ट्रिया का अधिकार स्वीकार कर लिया गया।
  3. प्रशा ने लाएनबर्ग का प्रदेश आस्ट्रिया से खरीद लिया।
  4. कील के बंदरगाह पर आस्ट्रिया व प्रशा का संयुक्त अधिकार रहा, कीलनहर में प्रशा को किलेबन्दी करने तथा समुद्र तक नहर खोदने का अधिकार दिया गया।

इटली के एकीकरण का प्रथम चरण पूरा हुआ।

जर्मनी के एकीकरण का दूसरा चरण

आस्ट्रिया और प्रशा के बीच युद्ध (1866 ई.) –

गेस्टाइन की सन्धि में बिस्मार्क ने हाॅल्सटाइन का प्रदेश आस्ट्रिया को इसलिए दिया था क्योंकि वहाँ जर्मन जाति के लोग थे और वह हाॅल्सटाइन में कभी भी विद्रोह करवाके इसे प्रशा में मिला सकता था। गेस्टाइन की सन्धि के बाद आस्ट्रिया तथा प्रशा के सम्बन्ध बिगङते चले गए। आस्ट्रिया जर्मनी के एकीकरण का प्रबल विरोधी था। अतः जर्मनी के एकीकरण के लिए आस्ट्रिया को पराजित करना आवश्यक था।

बिस्मार्क ने अपनी कूटनीति से इस युद्ध को अनिवार्य कर दिया था। बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को युद्ध में कोई यूरोपीय शक्ति सहयोग न कर सके इसके लिए भी प्रयास किये थे। इंग्लैण्ड तो अहस्तक्षेप नीति पर चल रहा था, इसलिए बिस्मार्क को आशा थी कि इंग्लैण्ड तो किसी को भी सहायता नहीं देगा। 1854-1856 में हुए क्रीमिया के युद्ध में जो टर्की और रूस के बीच हुआ था, उस युद्ध में प्रशा तटस्थ रहा था और 1863 में जब पौलेण्ड में विद्रोह तो उस समय प्रशा ने रूस को सहायता प्रदान की थी। जिससे रूस प्रशा का मित्र बना गया था।

बिस्मार्क ने 1865 में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय के साथ एक समझौता किया कि यदि फ्रांस आस्ट्रिया और प्रशा के युद्ध में तटस्थ रहेगा तो उसे राइन तथा बेल्जियम के प्रदेश दे दिये जायेंगे। फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय भी यह चाहता था कि यदि प्रशा-आस्ट्रिया के बीच युद्ध होने पर दोनों की शक्ति कम हो जाएगी जिससे फ्रांस अपना प्रभाव बढ़ा लेगा।

इसलिए फ्रांस भी प्रशा का मित्र बन गया। बिस्मार्क ने 8 अप्रैल, 1866 को इटली के साथ भी एक समझौता किया कि यदि इटली युद्ध में आस्ट्रिया के विरुद्ध प्रशा का साथ देगा, तो युद्ध में विजय मिलने पर बिस्मार्क इटली को आस्ट्रिया से वेनेशिया का प्रदेश दिलवा देगा।

इस तरह बिस्मार्क सैनिक तैयारियाँ कर रहा था। आस्ट्रिया से युद्ध करने का अवसर ढूँढ़ रहा था। कुछ समय बाद आस्ट्रिया और प्रशा के बीच विरोध और भी बढ़ता जाता है। इसी समय फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय ने श्लेसविग और हाल्सटीन की समस्या सुलझाने के लिए यूरोपीय देशों का एक सम्मेलन आयोजित करने का प्रस्ताव किया। इस प्रस्ताव से रूस एवं ब्रिटेन सहमत थे और बिस्मार्क ने सम्मेलन में सम्मिलित होने की स्वीकृति दे दी।

परन्तु आस्ट्रिया ने इस सम्मलेन में शामिल होने के लिए कठोर शर्तें रखीं, जिन्हें स्वीकार करने पर सम्मलेन आमंत्रित करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी कारण नेपोलियन ने विवश होकर सम्मेलन आमन्त्रित करने का प्रस्ताव वापस ले लिया। इस प्रकार युद्ध रोकने के लिए किये गये सभी प्रयत्न असफल रहे।

इधर आस्ट्रिया के संकेत पर जर्मनी की केन्द्रीय संसद ने निर्णय दिया कि श्लेसविग, हालस्टीन तथा लाएनबर्ग का शासन आस्टनबर्ग के ड्यूक को दे दिया जाए, परन्तु बिस्मार्क ने इसका घोर विरोध किया। 6 जून, 1866 को प्रशा की सेनाओं ने हालस्टीन पर अधिकार कर लिया।

11 जून, 1866 को आस्ट्रिया ने जर्मन राज्य परिषद् में यह प्रस्ताव रखा कि प्रशा के विरुद्ध संघीय सेनाएँ भेजी जाएँ तथा बिस्मार्क के विरोध के बावजूद 14 जून, 1866 को आस्ट्रिया का प्रस्ताव पास हो गया। बिस्मार्क ने इसे असंवैधानिक मानते हुए जर्मन परिसंघ को समाप्त कर दिया और आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

सेडोवा का युद्ध –

1866 में आस्ट्रिया और प्रशा के बीच युद्ध छिङ गया। यह युद्ध केवल सात सप्ताह तक चला। इसलिए इसे ’सात सप्ताह का युद्ध’ भी कहते हैं। 3 जुलाई, 1866 को सेडोवा के युद्ध में आस्ट्रिया की निर्णायक पराजय हुई। अब प्रशा अपने विजय से उत्साहित होकर आस्ट्रिया की राजधानी वियना पर भी अधिकार करना चाहता था।

लेकिन बिस्मार्क ने प्रशा के सम्राट को ऐसा करने से मना कर दिया क्योंकि बिस्मार्क अब आस्ट्रिया से मित्रता प्राप्त करने के पक्ष में था, वह आस्ट्रिया के साथ संधि को ही भविष्य में प्रशा का हित मानता था। पराजित आस्ट्रिया को भी प्रशा के साथ 23 अगस्त, 1866 को ’प्राग की संधि’ स्वीकार करनी पङी।

प्राग की सन्धि (23 अगस्त, 1866) –

प्रशा और आस्ट्रिया के बीच 23 अगस्त, 1866 को ’प्राग की सन्धि हुई।
’प्राग की सन्धि’ की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-

  1. श्लेसविग, हालस्टीन, हेसकेसल, नासा तथा फ्रेंकफर्ट के नगर प्रशा में सम्मिलित कर लिए गए।
  2. आस्ट्रिया ने वेनेशिया का प्रदेश इटली को देना स्वीकार कर लिया।
  3. आस्ट्रिया को युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 30 लाख पौण्ड प्रशा को देने पङे।
  4. वियना कांग्रेस द्वारा निर्मित जर्मन परिसंघ समाप्त कर दिया गया तथा उसके स्थान पर उत्तर जर्मन संघ का निर्माण किया गया, जिसका अध्यक्ष प्रशा था। इस नये संघ में आस्ट्रिया का कोई स्थान नहीं था।

उत्तरी जर्मन संघ का निर्माण –

प्राग की सन्धि के अनुसार बिस्मार्क ने 21 राज्यों को मिलाकर प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी में ’उत्तरी जर्मन संघ’ का निर्माण किया। इस संघ दक्षिण जर्मन-राज्य शामिल नहीं किये थे। प्रशा का सम्राट इस संघ का अध्यक्ष बनाया गया। बिस्मार्क इस संघ का प्रथम चांसलर नियुक्त किया गया। इस संघ की दो परिषद् थी – इस संघ की प्रथम परिषद् संघीय परिषद में कुल 43 सदस्य थे। इसमें प्रशा के 17 सदस्य थे।

इसकी दूसरी सभा लोकसभा थी। इस संघ के निर्माण से उत्तरी जर्मनी के राज्यों का एकीकरण तो पूरा हो गया। लेकिन दक्षिण जर्मनी के राज्यों का एकीकरण नहीं हो पाया, क्योंकि जर्मनी के दक्षिणी रियासतों के मामले में फ्रांस हस्तक्षेप कर रहा था। इसी कारण सम्पूर्ण जर्मनी का एकीकरण करने के लिए फ्रांस के साथ युद्ध करना अनिवार्य था।
इटली के एकीकरण का दूसरा चरण पूरा हुआ।

जर्मनी के एकीकरण का तीसरा चरण

फ्रांस और प्रशा के बीच में युद्ध के निम्नलिखित कारण थे –
1. आस्ट्रिया के युद्ध के पहले प्रशा के बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को राइन और बेल्जियम का प्रदेश देने का वादा किया था। नेपोलियन को आशा थी कि फ्रांस की सीमा का विस्तार राइन क्षेत्र तक हो जाएगा। लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को राइन क्षेत्र नहीं दिया। जिससे नेपोलियन क्रोधित हो गया और वह प्रशा से अपना बदला लेना चाहता था।
2. फ्रांस का सम्राट नेपोलियन तृतीय हालैण्ड के शासक से लक्जेमबर्ग खरीदना चाहता था। लेकिन बिस्मार्क के विरोध के कारण वह नहीं खरीद पाया।
3. स्पेन के उत्तराधिकारी को लेकर भी प्रशा और फ्रांस के मध्य मतभेद था।

4. आस्ट्रिया पर विजय के बाद प्रशा यूरोप में एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभर गया था। जिससे फ्रांस की प्रतिष्ठा को प्रबल आघात पहुँचा था।
5. फ्रांस ने सेडोवा के युद्ध में तटस्थ रहना इसलिए स्वीकार किया था क्योंकि फ्रांस के सम्राट नेपोलियन सम्राट सोच रहा था कि यह युद्ध लम्बा चलेगा और इस युद्ध में दोनों देशों की शक्ति कमजोरी पङ जायेगी। जिससे फ्रांस यूरोप में अपनी शक्ति बढ़ा लेगा। लेकिन बिस्मार्क ने सेडोवा का युद्ध सात सप्ताह में ही खत्म कर दिया और फ्रांस को अपनी शक्ति बढ़ाने का मौका ही नहीं मिला।

फ्रांस और प्रशा का युद्ध (1870) –

सेडोवा के युद्ध के बाद फ्रांस तथा प्रशा के सम्बन्ध निरन्तर बिगङते चले गए। 15 जुलाई, 1870 को फ्रांस ने प्रशा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। प्रशा ने फ्रांस की सेनाओं को अनेक स्थानों पर पराजित किया। इसका यही कारण था कि प्रशा को जर्मन राज्यों का सहयोग प्राप्त हो रहा था, लेकिन फ्रांस मित्रविहीन था उसे किसी राज्य की सहायता प्राप्त नहीं हो रही थी।

अन्त में 1 सितम्बर, 1870 को सीडान के युद्ध में फ्रांसीसी सेना की निर्णायक पराजय हुई और फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय को अपने 83 हजार सैनिकों के साथ जनरल मोल्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करना पङा। अंततः 10 मई, 1871 को फ्रांस को जर्मनी के साथ एक सन्धि करनी पङी, जिसे ’फ्रेंकफर्ट की सन्धि’ कहते हैं।

फ्रेंकफर्ट की सन्धि (10 मई, 1871) –

फ्रांस और जर्मनी के बीच 10 मई, 1871 को फ्रेंकफर्ट की सन्धि हुई। जिसकी प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं –

  1. फ्रांस को अल्सास तथा लोरेन के प्रदेश और मेज तथा स्ट्रासबर्ग के दुर्ग प्रशा को देने पङे।
  2. फ्रांस ने युद्ध के हर्जाने के रूप में 20 करोङ पौण्ड जर्मनी को देना स्वीकार कर लिया।
  3. फ्रांस युद्ध के हर्जाने की राशि तीन वर्ष की अवधि में चुका देगा। जब तक फ्रांस हर्जाने की राशि नहीं चुकायेगा, तब तक जर्मन सेना फ्रांस के खर्च पर उत्तरी फ्रांस में रहेगी।

जर्मनी का एकीकरण पूरा होना

दक्षिणी जर्मनी के राज्यों के जर्मन संघ में सम्मिलित हो जाने से जर्मनी का एकीकरण पूरा हो गया। 18 जनवरी, 1871 को बिस्मार्क ने वर्साय के शीशमहल में विलियम प्रथम को नवीन जर्मन साम्राज्य का सम्राट घोषित किया। 1871 में सम्पूर्ण जर्मनी का एकीकरण पूरा हो गया।

निष्कर्ष –

इस प्रकार बिस्मार्क ने ’लौह और रक्त’ की नीति का अनुसरण करते हुए डेनमार्क, आस्ट्रिया तथा फ्रांस को पराजित किया। उसने अपनी कूटनीतिक योग्यता से आस्ट्रिया तथा फ्रांस को मित्रहीन एवं एकाकी बनाए रखा और अन्त में उन्हें पराजित करके जर्मनी के एकीकरण का कार्य पूरा किया। वह बिस्मार्क की एक महान् उपलब्धि थी।
हार्नशा ने लिखा है कि, ’’जो कार्य वाद-विवाद द्वारा नहीं हो सकता था, उसे बिस्मार्क ने अपनी ’रक्त और लौह’ की नीति से पूरा कर दिया।’’

आज की पोस्ट में हमने  ’जर्मनी के एकीकरण’(Germany ka Ekikaran) के बारे में विस्तार से पढ़ा ,हम आशा करतें है कि आपने इस आर्टिकल से जर्मनी के एकीकरण को अच्छे से समझ लिया होगा ..धन्यवाद

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