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बक्सर का युद्ध (1764 ईस्वी) – Baksar ka Yuddh || Indian History

Author: K.K.SIR | On:27th Jul, 2022| Comments: 0

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Table of Contents

  • बक्सर का युद्ध (1764) – Baksar ka Yuddh
  • बक्सर के युद्ध की पृष्ठभूमि
  • बक्सर युद्ध के कारण – Baksar ke Yuddh ke Karan
  • 1. सत्ता का प्रश्न
  • 2. राजा रामनारायण का प्रश्न
  • 3. शाही फरमान का दुरुपयोग
  • 4. मीर कासिम द्वारा की गई करवाई
  • बक्सर के युद्ध की घटनाएं
  • इलाहाबाद की संधि
  • बंगाल में द्वैध शासन
  • इलाहाबाद की द्वितीय संधि
  • बक्सर युद्ध के परिणाम – Baksar ke yuddh ke Parinaam

आज के आर्टिकल में हम बक्सर के युद्ध (Baksar ka Yuddh) के बारे में विस्तार से पढेंगे। बक्सर के युद्ध के कारण, बक्सर के युद्ध के परिणाम, बक्सर का युद्ध क्यों हुआ, बक्सर का युद्ध कब हुआ, बक्सर का युद्ध कब और किसके बीच हुआ…

बक्सर का युद्ध (1764) – Baksar ka Yuddh

Baksar ka Yuddh

दोस्तों आज के आर्टिकल में हम ’बक्सर के युद्ध’ के बारे में जानेंगे। चलो पढ़ते है, क्या हुआ था बक्सर के युद्ध में बहुत ही आसानी से आपको समझ आ जायेंगे क्योंकि हमने इस आर्टिकल में काफी सरलता से आपको समझाया है।

बक्सर के युद्ध की पृष्ठभूमि

मीर कासिम रक्तहीन क्रांति के माध्यम से 1760 ई. में बंगाल का नवाब बना, परंतु बंगाल की नवाबी उसके लिए फूलों की सेज के बदले कांटों का ताज साबित हुआ। 1757 ई. के बाद बंगाल की गद्दी पर बैठने वाले व्यक्तियों में मीरकासिम सबसे अधिक योग्य एवं दूरदर्शी था। उसने अपने साहस एवं कूटनीति के सहारे बंगाल में अपनी स्थिति सुदृढ़ की। वस्तुतः वह एक योग्य प्रशासक था परंतु उसकी योग्यता ही उसके पतन का कारण बनी। वह अंग्रेजों की बात को मानने वाला शासक नहीं था। अतः दोनों के बीच संघर्ष का होना अनिवार्य था।

बक्सर युद्ध के कारण – Baksar ke Yuddh ke Karan

1. सत्ता का प्रश्न

मीर कासिम एक योग्य एवं कुशल शासक था। वह बंगाल को कंपनी के निरंतर हस्तक्षेप से बचाना चाहता था। कंपनी के अधिकारी समझ गए कि नवाब व्यावहारिक रूप में शासन सूत्र अपने हाथ में लेना चाहता है परंतु वे नहीं चाहते थे कि नवाब किसी तरह शासन पर अपना प्रभाव कायम करें। वह नवाब को नाममात्र के शासक के रूप में देखना चाहते थे परंतु मीर कासिम अंग्रेजों की कठपुतली बनने के बदले बंगाल का वास्तविक नवाब बनना चाहता था। अतः सत्ता का प्रश्न दोनों के बीच संघर्ष का कारण बना।

2. राजा रामनारायण का प्रश्न

मीर कासिम बिहार के नायब दीवान रामनारायण को गबन के आरोप में दंड देना चाहता था। लेकिन रामनारायण भागकर अंग्रेजों के शरण में चला गया परंतु अंग्रेज अधिकारी वैन्सिटार्ट ने नवाब की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर रामनारायण को मीर कासिम के हाथों में सौंप दिया। इससे नवाब का मनोबल बढ़ा और उसने अंग्रेजों से युद्ध का साहस किया।

3. शाही फरमान का दुरुपयोग

कंपनी और नवाब में संघर्ष का दूसरा प्रमुख कारण यह था कि कंपनी के कर्मचारी मुगल सम्राट से प्राप्त निःशुल्क व्यापार करने के शाही फरमान का दुरुपयोग कर रहे थे। इससे नवाब को आर्थिक क्षति पहुंच रही थी। इसकी चर्चा करते हुए मीरकासिम ने वैन्सिटार्ट को लिखा था कि देश की सरकार मेरे हाथों में नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि कोलकाता की कोठी से लेकर कासिम बाजार पटना और ढाका तक जितने भी अंग्रेज प्रमुख, उनके गुमास्ते अफसर और एजेंट है। सभी प्रत्येक जिले में ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो वे कलेक्टर जमींदार और तालुकदार हो। हर जगह वे कंपनी का झंडा गाङते है और अफसरों को काम करने से रोकते है।

4. मीर कासिम द्वारा की गई करवाई

इस स्थिति में सुधार लाने के लिए मीर कासिम ने कंपनी के साथ समझौता करने का प्रयत्न किया। परंतु कोई हल नहीं निकला। अतः उसने देशी व्यापारियों को भी निःशुल्क व्यापार करने की अनुमति दे दी। फलतः अंग्रेज एवं भारतीय सभी एक ही पलङे में आ गए। इससे अंग्रेज आग बबूला हो गये। उन्होंने झट मीर कासिम को गद्दी से उतारने और मीर जाफर को उसके स्थान पर नवाब बनाने की घोषणा की। अंग्रेज अफसर ने पटना पर आक्रमण कर दिया। तब मीर कासिम ने क्रोध में आक पटना में रहने वाले अंग्रेजों को वध करवा दिया। उसने ’कासिम बाजार’ पर अधिकार कर लिया परंतु अंत में वो अंग्रेजों से हारकर अवध भाग गया।

बक्सर के युद्ध की घटनाएं

जब मीर कासिम को आत्मरक्षा का कोई उपाय नहीं दिखा तो वह पटना से भागकर अवध के नवाब वजीर शुजाउद्दीला के यहांँ शरण ले लेता है। उस समय नवाब वजीर शुजाउदौला को प्रधानमंत्री के रूप में मुगल सम्राट शाहआलम का साथ भी प्राप्त था। मीर कासिम ने दोनों से ही सहायता की प्रार्थना की थी। उधर 30 वर्षों से अवध का नवाब बंगाल को ललचाए दृष्टि से देख रहा था। अतः अंग्रेजों के विरुद्ध मुगल सम्राट शाहआलम अवध का नवाब शुजाउद्दौला तथा मीर कासिम ने मोर्चा कायम किया।

1763 में मीर कासिम एवं ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच युद्ध हुआ। इस समय मीर कासिम को क्षति हुई थी और मुर्शिदाबाद, गिरिया, मुंगेर तथा कटवा आदि प्रदेश अंग्रेजों ने जीत लिये थे। इन्होंने मीर कासिम को अवध पलायने करने के लिए बाध्य किया। वह बंगाल को वापस लेना चाहता था इसी कारण उसने अवध के नवाब शुजा-उद-दौला तथा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के साथ एक संघ का गठन किया।

बक्सर जो बनारस के पूर्व में स्थित है, के मैदान में अवध के नवाब, मुगल सम्राट तथा मीरकासिम की संयुक्त सेना अक्टूबर, 1764 ई. को पहुंची, दूसरी ओर अंग्रेजी सेना हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में पहुंची। 23 अक्टूबर, 1764 को निर्णायक ’बक्सर का युद्ध’ प्रारम्भ हुआ। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही अंग्रेजों ने अवध के नवाब की सेना से असद खां, साहूमल (रोहतास का सूबेदार) और जैनुल अबादीन को धन का लालच देकर फोङ लिया।

शीघ्र ही हैक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने ’बक्सर के युद्ध’ को जीत लिया। मीरकासिम का संयुक्त गठबंधन बक्सर के युद्ध में इसलिए पराजित हो गया क्योंकि उसने युद्ध के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की थी, शाहआलम गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिला था तथा भारतीय सेना में अनेक प्रकार के दोष अन्तर्निहित थे।

बक्सर के युद्ध का ऐतिहासिक दृष्टि से प्लासी के युद्ध से भी अधिक महत्त्व है क्योंकि इस युद्ध के परिणाम से तत्कालीन प्रमुख भारतीय शक्तियों की संयुक्त सेना के विरुद्ध अंग्रेजी सेना की श्रेष्ठता प्रमाणित होती है। बक्सर के युद्ध ने बंगाल, बिहार और उङीसा पर कंपनी का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर दिया, साथ ही अवध अंग्रेजों का कृपापात्र बन गया।

पी. ई. राॅबर्ट्स ने बक्सर के युद्ध के बारे में कहा कि- ’’प्लासी की अपेक्षा बक्सर को भारत में अंग्रेजी प्रभुता की जन्मभूमि मानना कहीं अधिक उपयुक्त है।’’

यदि बक्सर के युद्ध के परिणाम को देखा जाये तो कहा जा सकता है कि जहाँ प्लासी की विजय अंग्रेजों की कूटनीति का परिणाम थी, वहीं बक्सर की विजय को इतिहासकारों को पूर्णतः सैनिक विजय बताया।

प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की प्रभुता बंगाल में स्थापित की परन्तु बक्सर के युद्ध ने कंपनी को एक अखिल भारतीय शक्ति का रूप दे दिया। बक्सर के युद्ध में पराजित होने के बाद शाहआलम जहाँ पहले ही अंग्रेजोें के शरण में आ गया था वहाँ अवध का नवाब कुछ दिन तक अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक सहायता हेतु भटकने के बाद मई 1765 में अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

5 फरवरी, 1765 को मीरजाफर की मृत्यु के बाद कंपनी ने उसके पुत्र नज्मुद्दौला को अपने संरक्षण में बंगाल का नवाब बनाया।

इलाहाबाद की संधि

मई, 1765 ई. में क्लाइव दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया, आते ही उसने शाहआलम और शुजाउद्दौला से ’इलाहाबाद की संधि’ की। 12 अगस्त, 1765 ई. को क्लाइव ने मुगल बादशाह शाहआलम से इलाहाबाद की प्रथम संधि की।

जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं –

  1. मुगल बादशाह ने बंगाल, बिहार, उङीसा की दीवानी कंपनी को सौंप दी।
  2. शुजाउद्दौला को अवध का राज लौटा दिया गया।
  3. कंपनी ने अवध के नवाब से कङा और मानिकपुर छीनकर मुगल बादशाह को दे दिया।
  4. एक फरमान द्वारा बादशाह शाहआलम ने नज्मुद्दौला को बंगाल का नवाब स्वीकार कर लिया।
  5. शुजाउद्दौला ने युद्ध क्षति के रूप में 50 लाख अंग्रेजों को देना स्वीकार कर लिया।
  6. अवध की सीमा रक्षा के लिए कंपनी को सैनिक सहायता देना स्वीकार किया।
  7. मुगल सम्राट ने अंग्रेजों को बंगाल की दीवानी प्रदान की। अर्थात् कंपनी को बिहार बंगाल तथा उङीसा में भूमि कर वसूलने का अधिकार मिला। इसके बदले में कंपनी ने उसे कङा और इलाहाबाद दे दिये और 26 लाख रुपये पेंशन के रूप में देने का वचन दिया।
  8. 72 वर्षीय बुड्ढे मीर जाफर ने दूसरी बार बंगाल का नवाब बनाया गया। शासन प्रबंध एवं न्याय प्रशासन के लिए 5300000 रु. की सलाना पेंशन मिलने लगी।

इलाहाबाद की प्रथम संधि का सबसे बङा लाभ कंपनी को बंगाल, बिहार एवं उङीसा के वैधानिक अधिकार के रूप में मिला।

बंगाल में द्वैध शासन

  • द्वैध शासन को समझने में पहले दीवानी और निजामत को समझना आवश्यक है।
  • मुगल काल में प्रांतीय प्रशासन में दो प्रकार के अधिकारी होते थे जिनमें सूबेदार जिसे निजामत भी कहा जाता था, का कार्य सैनिक प्रतिरक्षा, पुलिस और न्याय प्रशासन से जुङा था।
  • दूसरा प्रांतीय स्तर पर श्रेष्ठ पद दीवान का था, जो राजस्व एवं वित्त व्यवस्था की देख-रेख करता था, ये दोनों अधिकारी एक दूसरे पर नजर रखते थे तथा मुगल बादशाह के प्रति उत्तरदायी होते थे।
  • इलाहाबाद की संधि के बाद अंग्रेजों को 26 लाख रुपये वार्षिक देने के बदले ’दीवानी’ का अधिकार तथा 53 लाख रु. बंगाल के नवाब को देने पर ’निजामत’ का अधिकार प्राप्त हुआ।
  • दीवानी और निजामत दोनों अधिकार प्राप्त कर लेने के बाद ही कंपनी ने बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत की।
  • द्वैध शासन का जनक लियो कार्टिस को माना जाता है।
  • द्वैध शासन जिसकी शुरूआत बंगाल में 1765 ई. से माना जाता है, के अन्तर्गत कंपनी ने दीवानी और निजामत के कार्यों का निष्पादन भारतीयों के माध्यम से करती थी, लेकिन वास्तविक शक्ति कंपनी के पास होती थी।
  • कंपनी और नवाब दोनों द्वारा प्रशासन की व्यवस्था को ही बंगाल में द्वैध शासन कहा गया, जिसकी विशेषता थी उत्तरदायित्व रहित अधिकार और अधिकार रहित उत्तरदायित्व।
  • शीघ्र ही बंगाल में द्वैध शासन के दुष्परिणाम देखने को मिले। समूचे बंगाल में अराजकता, अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार का माहौल बन गया। व्यापार और वाणिज्य का पतन हुआ, व्यापारियों की स्थिति भिखारियों जैसी हो गई, समृद्ध और विकसित उद्योग विशेषतः रेशम और कपङा उद्योग नष्ट हो गये, किसान भयानक गरीबी के शिकार हो गये।

इलाहाबाद की द्वितीय संधि

क्लाइव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से 16 अगस्त, 1765 को इलाहाबाद की द्वितीय संधि की। संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार है –

  1. नवाब ने कंपनी की क्षतिपूर्ति के रूप में 50 लाख रुपया देने का वायदा किया।
  2. अवध प्रांत से कङा और इलाहाबाद के जिले लेकर मुगल बादशाह को दे दिये गये।
  3. अंग्रेजों की संरक्षता में बनारस और गाजीपुर की जागीर राजा बलवंत सिंह को पैतृक जागीर के रूप में दे दी गई।
  4. शुजाउद्दौला को अवध वापस मिल गया तथा उसने चुनार अंग्रेजों को सौंप दिया।
  5. नवाब को एक और संधि द्वारा यह वचन देना पङा कि अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए वह अंग्रेजों से सैनिक सहायता लेने पर पूरा सैन्य खर्च वहन करेगा।
  6. अंग्रेजों को नवाब ने बिना कर दिए अवध में व्यापार करने की छूट दी।
  • अवध के साथ संधि पर रेम्जेम्योर ने लिखा कि ’’अब से अवध के साथ मित्रता के सम्बन्ध रखना अंग्रेजों की स्थायी नीति बन गई, जो मराठों की बढ़ती हुई शक्ति के मार्ग में एक लाभदायक बाधा थी।’’
  • फरवरी, 1765 में क्लाइव ने बंगाल के नवाब नज्मुद्दौला से संधि की, जिसकी शर्तें इस प्रकार थी – बंगाल में प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार कंपनी को होगा, साथ ही नवाब की सेना को लगभग समाप्त कर दिया गया।
  • बंगाल के नवाब के साथ संधि के बाद बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत हुई।
  • अल्पायु नवाब ने मुहम्मद रजा खां को नायब सूबेदार नियुक्त किया।
  • इस प्रकार कंपनी को मुगल सूबेदार द्वारा इलाहाबाद की संधि से बंगाल, बिहार, उङीसा की ’दीवानी’ तथा बंगाल के नवाब के साथ सम्पन्न संधि से ’निजामत’ का अधिकार प्राप्त हो गया।
  • द्वैध शासन के समय ही बंगाल में 1770 में भयंकर अकाल पङा जिसमें करीब एक करोङ लोग भुखमरी के कारण मृत्यु के शिकार हो गये। अकाल के इस भयानक दौर में कार्टियर बंगाल का गवर्नर था।

 

  • द्वैध शासन के समय बंगाल से 1766-67 के बीच 2,24,67,500 रु. की वसूली हुई, इससे पूर्व यह वसूली मात्र 80 लाख थी।
  • लार्ड कार्नवालिस इंग्लैण्ड की संसद में द्वैध शासन के बारे में कहा कि ’’मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि विश्व में कोई भी ऐसी सभ्य सरकार नहीं रही जो इतनी भ्रष्ट विश्वासघाती और लोभी हो, जितना कि भारत में कंपनी की सरकार।’’
  • क्लाइव ने खुद बंगाल की अव्यवस्था के बारे में कहा कि ’’मैं केवल इतना ही कहूँगा कि अराजकता, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और शोषण का जैसा दृश्य बंगाल में था, वैसा न तो किसी देश में देखा गया और न सुना गया। ऐसे अन्यायमुक्त और लोभपूर्ण ढंग से इतने लाभ कभी प्राप्त नहीं किये गये।’’
  • 1775 में कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने बंगाल के नवाब मुबारक-उद-दौला के बारे में कहा कि ’’वह बेताल (फेंटम) या छाया पुरुष घास-फूस का आदमी है।’’
  • क्लाइव के समय में मुंगेर और इलाहाबाद के श्वेत (अंग्रेज) सैनिकों ने भत्ता कम मिलने के कारण विद्रोह किया, जिसे श्वेत विद्रोह के नाम से जाना गया।
  • क्लाइव ने कम्पनी के कर्मचारियों के हित के लिए एक संस्था ’सोसायटी ऑफ ट्रेड’ की स्थापना की, जिसे नमक, सुपारी तथा तम्बाकू के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त था।
  • 1767 में क्लाइव के इंग्लैण्ड वापस जाने पर वहां की सरकार ने उसे ’लार्ड’ की उपाधि दी।
  • मैकाले ने क्लाइव के बारे में कहा कि ’’हमारे टापू ने शायद ही ऐसे व्यक्ति को जन्म दिया हो, जो युद्ध और विचार-विमर्श में उससे बेहतर हो।’’

बक्सर युद्ध के परिणाम – Baksar ke yuddh ke Parinaam

बक्सर की लङाई के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाह आलम से संधि कर ली। जो इलाहाबाद की संधि के नाम से विख्यात है।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की दृष्टि से बक्सर के युद्ध की विजय का विशिष्ट महत्त्व है। इस युद्ध में केवल पराजय मीर कासिम की ही नहीं हुई। बल्कि अवध के नवाब वजीर तथा भारत के मुगल सम्राट शाहआलम भी पराजित हुए। इस प्रकार यह संपूर्ण उत्तरी भारत की पराजय थी।

मुगल सम्राट से अंग्रेजों को बंगाल बिहार एवं उङीसा की दीवानी प्राप्त हुई। जिससे अंग्रेजों को बंगाल की सत्ता पूर्णता हासिल हो गई। इतना ही नहीं पलासी की विजय के फलस्वरूप जो काम प्रारंभ हुआ था। उसकी पूर्ति भी बक्सर के विजय ने कर दी। आधुनिक भारत के इतिहास में बक्सर के युद्ध को अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वस्तुतः बक्सर के युद्ध के फलस्वरूप भारत में ब्रिटिश शासन की नींव मजबूत हो गई। इतनी मजबूत हो गई। इतनी मजबूत की कोई भी शक्ति उसे हिला नहीं सकती।

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